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कषाय-सूत्र
(१४६) अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व यदि किसी मनुष्य को दे दिया जाये, तो भी वह सन्तुष्ट न होगा। अहो ! मनुष्य की यह तृष्णा बड़ी दुष्पूर है !
(१४७) ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। देखो न, पहले केवज दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोड़ों से भी पूरी न हो सकी।
(१४८) - क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति में जाता है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस जोक तथा परलोक में महान् भय है।
(१४६) चाँदी और सोने के कैलास के समान विशाल असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है।
(१५०)
“चाँवल और जौ प्रादि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है-यह जानकर संयम का ही आचरण करना चाहिए ।
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