________________
: ३२ : मोक्षमार्ग-सूत्र
(२८२) भन्ते ! कैसे चले ? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले ?—जिससे कि पाप-कर्म का बन्ध न हो।
(२८३) अायुष्मन् ! विवेक से चले; विवेक से. खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोये; विवेक से भोजन करे; और विवेक से ही बोले, तो पाप-कर्म नहीं बाँध सकता ।
(२८४) जो सब जीवों को अपने समान समझता है, अपने-पराये, सबको समान हट से देखता है, जिसने सब आस्रवों का निरोध कर लिया है, जो चंचल इन्द्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता।
(२८५) पहले ज्ञान है, बाद में दया। इसी क्रम पर समग्र त्यागीवर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिये ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पा को वह कैसे जान सकेगा ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org