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________________ पण्डित-सूत्र ११६ (२०७) समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वो श्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण-बुद्धि के तत्वज्ञानी साथी की खोज करे, और ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करे । (२०८) बाद अपने से गुणों में अधिक या समान गुणवाला साथी न मिले, तो पापकर्मों का परित्याग कर तथा काम भोगों में सर्वथा अनासक्त रहकर अकेला हो विचरे । परन्तु दुराचारी का कभी भूल कर भी संग न करे। (२०६) संसार में जन्म-मरण के महान् दुःखों को देखकर और यह अच्छी तरह जानकर कि.---'सब जीव सुख की इच्छा रखनेवाले हैं। अहिंसा को मोक्ष का मार्ग समझकर सम्यक्त्वधारी विद्वान कभी भी पाप कर्म नहीं करते । (२१०) मूर्ख साधक कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, किन्तु पाप-कर्मों से पाप-कर्मों को कदापि न नहीं कर सकते। बुद्धिमान साधक वे हैं जो पाप-कर्मों के परित्याग से पाप-कर्मों को नष्ट करते हैं। अतएव ले.भ और भय से रहित सर्वदा सन्तुष्ट रहने वाले मेधावी पुरुष किसी भी प्रकार का पाप कर्म नहीं करते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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