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चतुरङ्गीय सूत्र ( १५ )
परन्तु जो तपस्वी मनुष्यत्व को पाकर, सद्धर्म का श्रवण कर, उसपर श्रद्धा जाता है और तदनुसार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर से कर्म-रज को टक देता है ।
( ६६ )
जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है, उसी को आध्मा शुद्ध होती है। और, जिस की आत्मा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण की प्राप्त होता है ।
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(६७)
कर्मों के पैदा करनेवाले कारणों को दूँढो - उनका छेद करो, और फिर क्षमा आदि के द्वारा श्रचय यश का संचय करो । ऐसा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा को प्राप्त करता है - अर्थात् उच्च और श्रेष्ठ गति पाता है ।
(£5)
जो मनुष्य उक्त चार अंगों को दुर्लभ जानकर संयम मार्ग स्वीकार करता है, वह तप के द्वारा सब कर्माशों का नाश कर सदा के लिये सिद्ध हो जाता है ।
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