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अस्तेनक-सूत्र
( ३३-३४ ) पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत और तो क्या, दाँत कुरेदने की सोंक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो उसकी प्राज्ञा लिये बिना पूर्ण-संयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं, और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन हो करते हैं।
(३५) ऊँची, नोची और तिरछी दिशा में जहाँ कहीं भी जो त्रस और स्थावर प्राणी हों उन्हें संयम से रह कर अपने हाथों से, परों से,-किसी भी अंग से पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिये। दूसरों की बिना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।
जो मनुष्य अपने सुख के लिये त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क रता-पूर्वक हिंसा करता है उन्हें अनेक तरह से कष्ट पहुँचाता है, जो दूसरों की चोरी करता है, जो अादरणीय ब्रतों का कुछ भी पालन नहीं करता, ( वह भयंकर क्लेश उठाता है)।
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