________________
महावीर - वाणी
सुसमाहिप्पा,
सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ॥७॥
( २७६ )
उद्दिम्मि अमुच्छिए अमुच्छि गिद्ध,
१५०
अज्भापरए
अन्नायउंछं,
कयविक्कयसन्निहिओ
पुलनिप्पुलाए । विरए,
सत्रसंगाव गए य जे स भिक्खू ||५||
1
( २७७ )
अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध,
उछ चरे जीविय नाभिकखे ।
+
इडिंट च सक्कारण- पूयणं च,
चए ठिया अहेि जे स भिक्खू ॥६॥
( २७८)
नं परं वइज्जासि अयं कुसीले,
जेणं च कुप्पेज्ज न तं वएज्जा ।
जारिणय पत्तेयं पुरण--पावं,
अंताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ १० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org