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भिक्षु-सूत्र
(२७२) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अचंचल हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्रु वयोगी (सर्वथा तल्लीन ) रहता है, जो संकट आने पर ज्याकुल नहीं होता, जो कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिन्तु है।
(२७३) जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालंभों को शान्तिपूर्वक सह लेता है, जो भीषण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जना वाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दु:ख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है।
( २७४ ) जो शरीर से परीपहों को धैर्य के साथ सहन कर संसार-गर्त से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर सदा श्रमणोचित तपश्चरण में रत रहता है, वही भिक्षु है।
(२४) जो हाथ, पाँव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको
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