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मोक्षमार्ग-सूत्र
१५७ (२८६.). सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं। बुद्विमान् साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे ।
(२८७) जो न तो जीव (चेतनतत्व) को जानता है, और न अजीव ( जड़तत्व) को जानता है, वह. जीव-अजीव के स्वरूप को न जाननेवाला साधक, भला किस तरह संयम को जान सकेगा ?
(२८) जो जीव को जानता है और अजीव को भी वह नीव और अजीव दोनों को भलीभाँति जानने वाला. साधक ही संयम को जान सकेगा।
(८६) जब जीव और अजीव दोनों को भलीभाँति जान लेता है, तब वह सब जीवों की नानाविध गति ( नरक तिथंच आदि ) को भी जान लेता है।
(२६०) जब वह सब जीवों की नानाविध गतियों को जान लेता है, तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है।
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