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कपाय-सूत्र
(१४२) अनिगृहीत क्रोध और मान; तथा प्रबद्ध मान ( बढ़ते हुए) माया और लोभ-ये चारों ही काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्म रूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं ।
(१४३) जो मनुष्य अपना हित चाहता है उसे पाप को बढ़ानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार दोषों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिए ।
(१४४) क्रोध प्रीति का नाश करता है; मान विनय का नाश करता है; माया मित्रता का नाश करती है, और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है ।
(१४५) शान्ति से क्रोध को मारो, नम्रता से अभिमान को जीतो; सरलता से माया का नाश करो; और सन्तोष से लोभ को काबू में लाश्रो ।
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