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________________ लोकतस्व-सूत्र ( २२८ ) जीव, जीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा और मौन —— ये नव सत्य - तत्व हैं । १२६ ( २२६ ) जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व में सद्गुरु के उपदेश से, अथवा स्वयं ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है । ( २३० ) मुमुक्ष आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग - वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है । ( २३१ ) - ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप इस चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्ष जीव मोक्षरूप सद्गति पाते हैं । ( २३२ ) मंति, श्रुत, अवधि, मन: पर्याय और केवल —— इस भाँति ज्ञान पाँच प्रकार का है । Jain Education International ( २३३-२३४ ) ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और ग्रन्तराय - इस प्रकार संक्षेप में ये ग्राठ कर्म बतलाये हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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