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विणय-सुत्तं
(७०) मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स,
खंधाउ पच्छा समुन्ति साहा । साहा-प्पसाहा विरहन्ति पत्ता, तो य से पुष्कं फलं रसो य ॥१॥
[ दश. 4) ६ उ०२ ना०]
एवं धम्मस्स विणश्रो, मूल परमो से मोक्यो । जेण कित्ति सुयं सिग्घ, निम्सेस चाभिगच्छद ॥२॥
[दश: अ. ६ उ० २ गा० २]
(७२) अह पंचर्हि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लभइ । थम्भा कोहा पमाए, रोगेणाऽऽलस्सएण य ॥३॥
[ उत्तरा० भ० ११ गा० ३ ]
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