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पूज्य-सूत्र
जो प्राचार-प्राप्ति के लिये विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है एवं स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अशातना नहीं करता वही पूज्य है।
( २४६ ) जो केवल संयम यात्रा के निर्वाह के लिये अपरिचितभाव से दोष-रहित भिक्षावृत्ति करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता वहीं पूज्य है।
(२४७)
जो संस्तारक, शय्या, ग्रासन और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, सन्तोष की प्रधानता में रत होकर अपने-अापको सदा संतुध बनाये रखता है, वही पूज्य है।
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