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________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ब्रह्मचर्यरत भितु को में तो स्त्रियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों की सुन्दर प्राकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न भाँखों में विकार पैदा करनेवाले हाव-भावों और स्नेह-भरे मोठे बचनों को ही ओर। (४७) ब्रह्मचर्य-रत भिनु को स्त्रियों का कूजन (अध्यक्त आवाज) रोदन, गीत, हास्य, सीस्कार और करुण-क्रन्दन--जिनके सुनने पर विकार पैदा होते हैं-सुनना छोड़ देना चाहिए । ब्रह्मचर्य-रत मिनु स्त्रियों के पूर्वानुभून हास्य, कोड़ा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे।। (४६) ब्रह्मा चर्य-रत भिक्षु को शीघ्र ही वासना-वर्धक पुष्टि कारक भोजन-पान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए । ब्रह्मचर्य-रत स्थिर-चित्त भिक्षु को संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए हमेशा धर्मानुकून विधि से प्राप्त परिमित भोजन हो करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यों न लगी हो, लानध-वश अधिक मात्रा में कभी भोजन नहीं करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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