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________________ [ १७५] एषणीय- - शोधनीय - खोज करने लायक ——— जिनकी उत्पत्ति दूषित है या नहीं इस प्रकार गवेषणाके योग्य । औपपातिक — उपपात अर्थात् स्वर्ग में या नरकमें जन्म होना । औपपातिक का अर्थ हुआ स्वर्गीय प्राणी या नारकी प्राणी । कषाय - आत्माके शुद्ध स्वरूपको कष नाश करनेवाला, क्रोध, मान माया और लोभ ये चार महादोष । किंपाकफल – जो फल देखने में और स्वादमें सुन्दर होता है पर खानेसे प्राणका नाश करता है । केवली - केवलज्ञान वाला - सतत शुद्ध आत्म-निष्ठ । गुप्ति —गोपन करना - संरक्षण करना; मन, वचन और शरीरको दुष्ट कार्योंसे बचा लेना । तिर्यञ्च - देव, नरक और मनुष्यको छोड़कर शेष जीवोंका नाम ' तिर्यञ्च ' है । । स - धूपसे त्रास पाकर छाँहका और शीतसे त्रास पाकर धूपका आश्रय लेने वाला प्राणी त्रस । दर्शनावरणीय दर्शन - शक्तिके आवरणरूप कर्म । नायपुत्त——- भगवान महावीरके वंशका नाम 'नाय - ज्ञात है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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