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जातिमद-निवारण सूत्र
(३०७) भिन्नु अकिंचन है, अपरिग्रहो है और लखा-सूखा जो पाता है उससे ही अपनी जीवनयात्रा निभाता है। ऐसा भितु होकर जो अपनी आजीविका के लिये अपने उत्तम कुल, जाति व गोत्र का उपयोग करता है अर्थात् 'मैं तो अमुक उत्तम कुल का था, अमुक उत्तम घराने का था, अमुक ऊँचे गोत्र का था व अमुक विशिष्ट वंश का था' इस प्रकार अपनी बड़ाई करके जीवन-यात्रा चलाता है वह तत्व को न समझता हुअा बारंबार विपर्यास को पाता है।
(३०८) जो भिक्षु-मानव-प्रज्ञा के मद को, तप के मद को, गोत्र के मद को तथा चौथे धन के मद को नमाता है अर्थात् छोड़ता है वह पंडित है, वह उत्तम आत्मा है ।
(३०६) हे धीर पुरुष ! इन मदों को काट दे-विशेषरूप से काट दे, सुधीर धर्मवाले मानव उन मदों का सेवन नहीं करते। ऐसे मदों को जड़ से काटने वाले महर्षिजन सब गोत्रों से दूर होकर उस स्थान को पाते हैं जहाँ न जाति है, न गोत्र है. और न वंश है। अर्थात् महर्षिजन ऐसी उत्तम गति पाते हैं।
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