________________
: १५ :
अशरण-सूत्र
(१६५) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवालों को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे हैं। और मैं उनका हूँ। परन्तु इनमें से कोई भी आपत्ति काल में त्राण तथा शरण नहीं दे सकता।
जन्म का दुःख है, जरा (बुढ़ापा) का दुःख है, रोग और मरण का दुःख है। अहो ! संसार दुःखरूप ही है ! यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक प्राणी जब देखो तब क्लेश ही पाता रहता है।
यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुःख और क्लेशों का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ ही क्षणों के लिए निवास है, अाखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है।
(१६८) स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन सब जोते जो के हो साथी हैं, मरने पर कोई भी साथ नहीं पाता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org