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________________ अमाद-सूत्र (१२६) वियुज धनराशि तथा मित्र-शन्धवों को ए बार सोच्छापूर्वक छोड़कर, अब दोबारा उनकी गोषणा (पूछताछ) न कर । हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (१२७) घुमावदार विषम मार्ग को छोड़कर तू सीधे और साफ मार्ग पर चल । विषम मार्ग पर चलनेवाले निर्बल भारवाहक की तरह बाद में पछतानेवाला न बन हे गौतम ! क्षण-मान भी प्रमाद न कर। (१२८) तू विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका है, अब भला किनारे श्राकर क्यों अटक रहा है ? उस पार पहुँचने के लिए जितनी भी हो सके शीघ्रता कर! हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (१२६) भगवान महावीर के इस भाँति अर्थयुक्त पदोंवाले सुभाषित वचनों को सुनकर श्री गौतम स्वामी राग तथा द्वेष का छेदन कर लिद्ध-ति को प्राप्त हो गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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