SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :११: अप्रमाद-सूत्र (६६) जीवन प्रसंस्कृत है-अर्थात एक बार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुक्ता; अतः एक क्षण भी प्रमाद न करो । 'प्रमाद, हिंसा और असंयम में अमूल्य यौवन-काल बिता देने के बाद जब वृद्धावस्था प्रावेगी, तब तुम्हारी कौन रक्षा करेगा - तब किस की शरण लोगे ?' यह खूब सोच-विचार खो। (१००) जो मनुष्य अनेक पाप-कर्म कर, वैर-विरोध बढ़ाकर अमृत की तरह धन का संग्रह करते हैं, वे अन्त में कर्मों के दृढ़ पाश में बँधे हुए सारी धन-सम्पत्ति यहीं छोड़कर नरक को प्राप्त होते हैं । (११) प्रमत्त पुरुष धन' के द्वारा न तो इस लोक में ही अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में ! फिर भी धन के असीम मोह से मूद मनुष्य, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग नहीं दीख पड़ता, वैसे ही न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देख पाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy