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________________ बाल-सूत्र ( १८२ ) मूर्ख मनुष्य विषयासक्त होते ही त्रस तथा स्थावर जीवों को सताना शुरू कर देता है, और अन्त तक मतलब बेमतलब प्राणिसमूह की हिंसा करता रहता है । १०७ ( १८३ ) मूर्ख मनुष्य हिंसक, श्रसत्य-भाषी, मायावी, चुगलखोर और धूर्त इंता है। वह मांस-मद्य के खाने-पीने में ही अपना श्रय समझता है । ( १८४ ) जो मनुष्य शरीर तथा वचन के बल पर मदान्ध है, धन तथा स्त्री आदि में श्रासक्त है, वह राग और द्वेष दोनों द्वारा वैसे ही कर्म का संचय करता है, जैसे अलसिया मिट्टी का । ( १८१ ) पाप कर्मों के फलस्वरूप जब मनुष्य अन्तिम समय में असाध्य रोगों से पीड़ित होता है, तब वह खिन्नचित्त होकर अन्दर-ही-अन्दर पछताता हैं और अपने पूर्वकृत पाप कर्मों को याद कर-कर के परलोक की विभीषिका से काँप उठता है । Jain Education International ( १८६ ) जो मूर्ख मनुष्य अपने तुच्छ जीवन के लिये निर्दय होकर पाप-कर्म करते हैं, वे महाभयंकर प्रगाढ़ अन्धकाराच्छन्न एवं तीव्र तापवाले तमिस्र नरक में जाकर पड़ते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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