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बाल-सूत्र
१०६ ( १८७) जब अनार्य मनुष्य काम-भोगों के लिये धर्म को छोड़ता है तब भोग-विजाप्स में मुञ्छित रहनेवाला वह मूर्ख अपने भयंकर भविष्य को नहीं जानता।
(१८८) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्न रहने वाला चोर अपने ही दुष्कर्मों के कारण दुःख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य अपने दुराचरणों के कारण दुःख पाता है और अन्तकाल में भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता।
(१८९) जो मिनु प्रव्रज्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सो जाया करता है, वह 'पाप श्रमण' कहलाता है।
(१९०) वैर रखने वाला मनुष्य हमेशा वैर ही किया करता है, वह वैर में ही प्रानन्द पाता है । हिंसा-कर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले हैं, अन्त में दुख पहुँचाने वाले हैं।
(१६१) यदि अज्ञानी मनुष्य महीने-महीने भर का घोर तप करे और पारणा के दिन केवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सत्पुरुषों के बताये धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुंच सकता ।
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