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________________ पूज्य-सूत्र १३७ (२४८) संसार में लोभी मनुष्य किसी विशेष प्राशा की पूर्ति के लिये लोह-कंटक भी सहन कर लेते हैं, परन्तु जो बिना किसी अाशां-तृष्णा के कानों में तीर के समान चुभने वाले दुर्वचनरूपी कंटकों को सहन करता है, वही पूज्य है। (२४६) . विरोधियों की ओर से पड़नेवाली दुर्वचन की चोटें कानों में पहुँचकर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा पैदा करती हैं, परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुष उन चोटों को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वहीं पूज्य है । ( २५०) ___ जो पर.क्ष में किसी की निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष में भी कलहवर्धक अंट-संट बातें नहीं बकता, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली एवं निश्चयकारो भाषा नहीं बोलता, वहीं पूज्य है। (२११) ____ जो रसलोलुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टे.ना करनेवाला) नहीं है, मायावो नहीं है, चुगलखे र नहीं है, दोन नहीं है, दूसरों से अपनो प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखता, स्वयं भी अपने मुह से अपनी प्रशंसा नहीं करता, खेल-तमाशे श्रादि देखने का भी शौर्क न नहीं है, वहीं पृथ्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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