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.. अप्रेमाद-सूत्र
(१०५) संसार में जो धन जन आदि पदार्थ हैं, उन सब को पाशरूप जानकर मुमुक्षु को बड़ी सावधानी से फूक फूक कर पाँव रखना चाहिये । जबतक शरीर सशक्त है, तबतक उसका उपयोग अधिक से अधिक संयम-धर्म की साधना के लिए कर लेना चाहिए । बाद में जब वह बिलकुल ही अशक्त हो जाये तब बिना किसी मोहममताके मिट्टी के ढेले के समान उसका त्याग कर देना चाहिए।
जिस प्रकार शिक्षित (सधा हुआ) तथा कवरधारी घोढ़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी मुमुक्षु भी जीवनसंग्राम में विजयी होकर मोक्ष प्राप्त करता है। जो मुनि दीर्घकाल सक अप्रमत्तरूप से संयम-धर्म का श्राचरण करता है, वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष-पद पाता है।
(१०७) शाश्वत-बादी लोग कल्पना किया करते हैं कि 'सरकर्म-साधना की अभी क्या जल्दी है, भागे कर लेंगे ! परन्तु यों करते-करते भोग-विलास में ही उनका जीवन समाप्त हो जाता है, और एक दिन मृत्यु सामने आ खड़ी होती है, शरीर नष्ट हो जाता है। अन्तिम समय में कुछ भी नहीं बन पाता; उस समय तो मूर्ख मनुष्य के भाग्य में केवल पछताना ही शेष रहता है।
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