________________
युक्त्यनुशासन mmmmmmmmmmmmmmmmwww.amwwwwww एक उदाहरण धनञ्जय कविका 'विषापहार' स्तोत्र है, जो कि न तो 'विषापहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न आदि-अन्तके पद्योमें ही उसके 'विषापहार' नामकी कोई सूचना की गई है,फिर भी मध्य में प्रयुक्त हुए 'विषापहार मणिमौषधानि' इत्यादि वाक्यपरसे वह 'विषापहार नामको धारण करता है। उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्त्यनुशासन' नामको धारण करता हुआ जान पड़ता है।
इस तरह ग्रन्थके दोनों ही नाम युक्तियुक्त हैं और वे ग्रन्थकारद्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते हैं। जिसे जैसी रुचि हो उसके अनुसार वह इन दोनों नामोंमें से किसीका भी उपयोग कर सकता है। ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व
यह ग्रन्थ उन आप्तो अथवा 'सर्वज्ञ' कहे जाने वालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है,जिनके आगम किसी-न-किसी रूपमे उपलब्ध है और जिनमे बुद्ध कपिलादिके साथ वीरजिनेन्द्र भी शामिल हैं। परीक्षा 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधि वाक्त्वा हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरोध रूप पाये गये उन्हें ही प्राप्तरूपमें स्वीकार किया गया है- शेषका प्राप्त होना बाधित ठहराया गया है। ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामे, जिसे उन्होंने अपने 'आप्त-मीमांसा' (देवागम.) प्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरजिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादि-आप्तोका प्रतिनिधित्व करते हैं, पूणरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हे निर्दोष प्राप्त (सर्वज्ञ) घोषित करते हुए और उनके अभिमत अनेकान्तशासनको प्रमाणाऽबाधित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनाऽमृतसे बाह्य जो सवथा एकान्तवादी हैं वे आप्त नहीं प्राप्ताभिमानसे दग्ध है; क्योकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष-प्रमाणसे बाधित है