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का० ४१
युक्त्यनुशासन यदेवकारोपहितं पदं तद्अस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्व
पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥४१॥ 'जो पद एवकारसे उपहित है-अवधारणार्थक 'एव' नामके निपातसे विशिष्ट है, जैसे 'जीव एवं' (जीव ही)-वह अस्वार्थसे स्वार्थको (अजीवत्वसे जीवत्वको) [ जैसे ] अलग करता है-अस्वार्थ ( अजीवत्व ) का व्यवच्छेदक है-[वैसे ] सब स्वार्थपर्यायो (सुखज्ञानादिक), सब स्वार्थसामान्यो (द्रव्यत्व-चेतनत्वादि) और सब स्वार्थविशेषों (अभिधानाऽविषयभूत अनन्त अर्थपर्यायो) सभीको अलग करता है-उन सबका भी व्यच्छेदक है, अन्यथा उस एक पदसे ही उनका भी बोध होना चाहिये, उनके लिये अलग-अलग पदोका प्रयोग (जैसे मै सुखी हूँ, ज्ञानी हूँ, द्रव्य हू, चेतन हूँ, इत्यादि ) व्यर्थ ठहरता है और इससे (उन क्रमभावी धो-पर्यायों, सहभावी धर्मोंसामान्यो तथा अनभिधेय धर्मो-अनन्त अर्थ-पर्यायोका व्यवच्छेद-अभावहोनेपर ) पदार्थकी (जीवपदके अभिधेयरूप जीवत्वकी) भी हानि उसी प्रकार ठहरती है जिस प्रकार कि विरोधी (अजीवस्व) की हानि होती है क्योकि स्वपर्यायो आदिके अभावमे जीवादि कोई भी अलग वस्तु सभव नही हो सकती।'
(यदि यह कहा जाय कि एवकारसे विशिष्ट 'जीव' पद अपने प्रतियोगी 'अजीव' पदका ही व्यवच्छेदक होता है-अप्रतियोगी स्वपर्यायो, सामान्यो तथा विशेषोका नहीं, क्योकि वे अप्रस्तुत-अविवक्षित होते है, तो ऐसा कहना एकान्तवादियोके लिये ठीक नहीं है क्योकि इससे स्याद्वाद (अनेकान्तवाद ) के अनुप्रवेशका प्रसग अाता है, और उससे उनके एकान्त सिद्धान्तकी हानि ठहरती है।)