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युक्त्यनुशासन अथवा अवयव पुरुषार्थहेतुतारूपसे उपलक्ष्यमान नहीं हैं, अतः पुरुषार्थता. हेतुरूपमे व्यवस्थित नहीं होते। यह युक्तयनुशासन प्रत्यक्ष और भागमसे अविरुद्ध है।
'जो अश-धर्म परस्पर-सापेक्ष है वे पुरुषार्थके हेतु हैं, क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं जो जिस रूपमें देखे जाते हैं वे उसी रूपमें व्यवस्थित होते हैं, जैसे दहन (अग्नि) दहनताके रूपमें देखी जाती है और इसलिये तद्र पभे व्यवस्थित होती है, परस्परसापेक्ष अशः स्वभावतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे देखे जाते हैं और इसलिये पुरुषार्थहेतुरूपसे व्यवस्थित हैं। यह स्वभावकी उपलब्धि है।
"( इसी तरह ) अशी-धर्मी अथवा अवयवी-अंशोंसे-धर्मों अथवा अवयवोंसे-पृथक् नहीं है, क्योंकि उसरूपमें उपलभ्यमान नहीं है-जो जिस रूपमें उपलभ्यमान नही वह उसमें नास्तिरूप ही है, जैसे अग्नि शीततारूपसे उपलभ्यमान नहीं है अतः शीततारूपसे उसका प्रभाव है। अशोंसे अशीका पृथक् होना सर्वदा अनुपलभ्यमान है अतः अशोसे पृथक् अशीका अभाव है । यह स्वभावकी अनुपलब्धि है। इसमे प्रत्यक्षतः कोई विरोध नहीं है, क्योकि परस्पर विभिन्न पदार्थों सह्याचल-विन्ध्याचलादि जैसोके अश-अशीभावका दर्शन नहीं होता। आगम-विरोध भी इसमें नहीं है, क्योंकि परस्पर विभिन्न अर्थोंके अश-अशीभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमका अभाव है, और जो भागम परस्पर विभिन्न पदार्थोंके अंश-अशीभावका प्रतिपादक है वह युक्ति-विरुद्ध होनेसे श्रागमाभास सिद्ध है। ___ 'अश-शीकी तरह परस्परसापेक्ष नय-नैगमादिक भी ( सत्तालक्षणा ) असिक्रियामें पुरुषार्थके हेतु हैं, क्योंकि उस रूप में देखे जाते हैं-उपलभ्यमान हैं। इससे स्थितिग्राहक द्रव्यार्थिकनयके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार और प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके ग्राहक पर्यायार्थिकनयके भेद ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवभूत ये सब परस्परमें सापेक्ष होते हुए ही वस्तुका जो साध्य अर्थक्रिया-लक्षण-पुरुषार्थ है उसके