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का०५३
युक्त्यनुशासन
यदि तत्त्वका निश्चय ही राग होवे तो क्षीणमोहीके भी रागका प्रसग श्राएगा, जोकि असम्भव है, और न अतत्त्वके व्यवच्छेदको ही द्वेष प्रतिपादित किया जा सकता है, जिसके कारण अनेकान्तवादीका मन सम न रहे। अत: अनेकान्तवादीके मनकी समताके निमित्तसे होनेवाले मोक्षका निषेध कैसे किया जा सकता है ? और मनका समत्व सर्वत्र और सदाकाल नहीं बनता, जिससे राग-द्वेषके अभावसे बन्धके अभावका प्रसग आवे, क्योकि गुणस्थानोकी अपेक्षासे किसी तरह, कहीपर और किसी समय कुछ पुण्यबन्धकी उपपत्ति पाई जाती है। अतः बन्ध और मोक्ष दोनों अपने (अनेकान्त) मतसे--जोकि अनन्तात्मक तत्त्व विषयको लिये हुए हैंबाह्य नहीं हैं-उसीमे वस्तुतः उनका सद्भाव है क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों ज्ञवृत्ति हैं-अनेकान्तवादियोद्वारा स्वीकृत ज्ञाता श्रात्मामे ही उनकी प्रवृत्ति है । और इसलिये साख्योद्वारा स्वीकृत प्रधान (प्रकृति) के अनेकान्तात्मक होनेपर भी उसमें वे दोनो घटित नही हो सकते, क्योकि प्रधान (प्रकृति) के अज्ञता होती है-वह ज्ञाता नहीं माना गया है।"
आत्मान्तराऽभाव-समानता न वागास्पदं स्वाऽऽश्रय-भेद-हीना। भावस्य सामान्य-विशेषवत्त्वा
दैक्ये तयोरन्यतरन्निरात्म ॥५३॥ '(यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके प्रतिपादक शब्द पटुसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं हैं, क्योंकि बौद्धोके अन्याऽपोहरूप जो सामान्य है उसके वागास्पदता-वचनगोचरता-है, और वचनोंके वस्तु-विषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि) आत्मान्तरके अभावरूप-श्रात्मस्वभावसे भिन्न अन्य-अन्य स्वभावके अपोहरूपजो समानता ( सामान्य ) अपने आश्रयरूप भेदोंसे हीन ( रहित) है वह वागास्पद-वचनगोचर-नहीं होती, क्योकि वस्तु सामान्य और विशेष दोनो धर्मोको लिये हुए है।'