Book Title: Yuktyanushasan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 142
________________ २ समन्तभद्र-भारती का०६१ (सदृश परिणाम) को लिये हुए जो (द्रव्यपर्यायकी अथवा द्रव्य-गुणकर्मकी व्यक्तिरूप) भेद हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता है। जैसे 'घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके लानेरूप विधिका विधायक (प्रतिपादक) है उसी प्रकार अघटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोगका प्रसग श्राता है और उस वाक्यान्तरके भी तत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह वाक्यान्तरके प्रयोगकी कहीं भी समाप्ति न बन सकनेसे अनवस्था दोषका प्रसग आता है, जिससे कभी भी घटके लानेरूप विधिकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकती । अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और जो मुख्यरूपसे प्रतिषधका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन करना चाहिये। (हे वीर जिन !) आपके यहॉ-आपके स्याद्वाद-शासनमें-(जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी प्रकार) व्यावृत्ति ( भेद ) बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है। सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्प मन्तिशून्यं च मिथोऽनपेचम् । सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ . (हे वीर भगवन् ।) आपका तीर्थ-प्रक्चनरूप शासन, अर्थात् परमागमवाक्य, जिसके द्वारा ससार-महासमुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान है-सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषक, एक-अनेक, आदि अशेष धमोंको लिये हुए है और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है, इसीसे

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