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समन्तभद्र-भारती
का० ६४
सच्ची सविवेक भक्ति ही मार्गका अनुसरण करनेमे परम सहायक होती है और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्गका अनुसरण करना अथवा उसके अनुकूल चलना ही स्तुतिको सार्थक करता है, इसीसे स्तोत्र के अन्त में ऐसी फलप्राप्तिकी प्रार्थना अथवा भावना की गई है ।'
इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति - सकलतार्किकचक्रचूडामणिश्रद्धागुणज्ञता दिसातिशयगुणगणविभूषित-सिद्धसारस्वत
स्वामिसमन्तभद्राचार्यवर्य-प्रणीत हितान्वेषणोपायभूत युक्त्यनुशासन स्तोत्र समाप्तम् ।
इस स्तोत्र की श्रीविद्यानन्दाचार्य विरचित सस्कृतटीकाके अन्त में स्तुत्याsभिनन्दन और ग्रन्थ- प्रशस्स्यादिके रूपमें जो दो महत्व के पद्म पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं :
स्थेयाज्जातजयध्वजाऽप्रतिनिधि: प्रोभूत-भूरिप्रभुः प्रध्वस्ताsखिल दुनेय द्विषभिः सन्नति-सामध्यतः । सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्ग-मथनोऽर्हन्वीरनाथ. श्रिये शश्वत्स स्तुति - गोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥ १॥ श्रीमद्वीर - जिनेश्वराऽमल गुण स्तोत्र परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्व समीच्याऽखिलम् । प्रोक्तं युक्तयनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गाऽनुगैविद्यानन्द-बुधैरलंकृत मिद श्रीसत्यवाक्याधिपै ||२||||