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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
प्रन्धाङ्क १
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श्रीमत्स्वामि-समन्तभद्राचार्यवर्य-प्रणीत ( श्रीवीरजिन-गुणकथा-सहकृत ) हिताऽन्वेषणोपायभूत युक्त्यनुशासन
( युक्तिपरक जैनागम ) [समन्तभद भारतीका एक प्रमुख अङ्ग
।
अनुवादक और परिचायक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
प्रकाशक
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वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा जिला सहारनपुर
प्रथम संस्करण , वीर-शासन जयन्ती, वीर संवत् २४७७, मूल्य
१००० वि० संवत् २००८, जुलाई १६५१ सवा रुपया
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ग्रन्थानुक्रम
१. समर्पण
२. धन्यवाद
३. प्रकाशकके दो शब्द ४. अशुद्धि - विज्ञप्ति
५. प्राक्कथन
६. प्रस्तावना
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१. ग्रन्थ - नाम
२ ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व ७. समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय ८. विषय सूची
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1239.47
६. युक्त्यनुशासन सानुवाद १०. कारिकाओंका अकारादिक्रम
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कुल पृष्ठसंख्या = १४८
राजहंस प्रेस, सदर बाजार, दिल्ली
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...
३
50
10.
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६
...१३-२४
१३
१६
२५-४८
४६-६०
... १-८६
८७
~
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समर्पण
त्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुभ्यमेव समर्पितम् ।
हे आराध्य गुरुदेव स्वामि समन्तभद्र । आपकी यह अनुपमकृति 'युक्त्यनुशासन' मुझे आजसे कोई ४६ वर्ष पहले प्राप्त हुई थी, जब कि यह 'सनातन जैनग्रन्थमाला' के प्रथम गुच्छकमे पहली ही बार बम्बई से ग्रकाशित हुई थी । उस वक्त से बराबर यह मेरी पाठ्य बस्तु बनी हुई है, और मै इसके अध्ययन-मनन तथा मर्मको समझने के यत्न- द्वारा इसका समुचित परिचय प्राप्त करने में लगा रहा हूँ । मुझे वह परिचय कहाँ तक प्राप्त हो सका है और मैं कितने अंशोंमें इस ग्रन्थके गूढ तथा गभीर पद्वाक्योकी गहराई में स्थित अर्थको मालूम करनेमे समर्थ हो सका हूँ, यह सब संक्षेपमे प्रन्थके अनुवादसे, जो आपके अनन्य भक्त आचार्य विद्यानन्दकी संस्कृत टीकाका बहुत कुछ आभारी है, जाना जा सकता हूँ, और उसे पूरे तौर पर तो आप ही जान सकते है । मैं तो इतना ही समझता हॅू कि आपकी श्राराधना करते हुए आपके ग्रन्थों परसे, जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ, मुझे जो दृष्टि -शक्ति प्राप्त हुई है और उस दृष्टि शक्तिके द्वारा मैने जो कुछ अर्थका अवलोकन किया है, यह कृति उसी - का प्रतिफल है। इसमे आपके ही विचारोंका प्रतिबिम्ब होनेसे वास्तवमे यह आपकी ही चीज है और इस लिए आपको ही सादर समर्पित है। आप लोकहितकी मूर्ति हैं, आपके प्रसादसे इस कृति द्वारा यदि कुछ भी लोकहितका साधन हो सका तो मैं अपनेको आपके भारी ऋणसे कुछ उऋण हुआ समभूगा । विनम्र जुगलकिशोर
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धन्यवाद
समन्तभद्र - भारती के प्रमुख अङ्गस्वरूप ' युक्त्यनुशासन' नामक इस महत्वपूर्ण सुन्दर ग्रन्थके सानुवाद प्रकाशनका श्र ेय श्रीमान् बाबू नन्दलालजी जैन सुपुत्र सेठ रामजीवनजी सरावगी कलकत्ताको प्राप्त है, जिन्होंने श्रुत सेवाकी उदार भावनाओं से प्रेरित होकर तीन वर्ष हुए वीरसेवामन्दिरको अनेक ग्रन्थोंके अनुवादादि सहित प्रकाशनार्थ दस हजार रुपये की सहायता प्रदान की थी और जिससे स्तुति - विद्या, शासन - चतुस्त्रिंशिका और श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र - जैसे ग्रन्थोंके अलावा श्रीविद्यानन्द स्वामीका 'आप्त-परीक्षा' नामका महान् ग्रन्थ भी संस्कृत स्वोपज्ञ टीका और हिन्दी अनुवादादिके साथ प्रकाशित हो चुका है । यह ग्रन्थ भी उसी आर्थिक सहायता से प्रकाशित हो रहा है । अतः प्रकाशनके इस शुभ अवसर पर आपका साभार स्मरण करते हुए आपको हार्दिक धन्यवाद समर्पित है ।
जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर'
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प्रकाशक के दो शब्द
स्वामी समन्तभद्रकी यह महनीय-कृति 'युक्त्यनुशासन', जो जिज्ञासु बोके लिये न्याय-अन्याय, गुण-दोष और हित अहिनका विवेक करानेवाली अचूक कसौटी है, आज तक हिन्दी ससारकी आँखोसे ओझल थी-हिन्दीमे इसका कोई भी अनुवाद नही हो पाया था और इसलिये हिन्दी जनता इसकी गुण गरिमासे अनभिज्ञ तथा इसके लाभोसे प्राय बंचित ही थी। यह देख कर बहुत दिनोंसे इसके हिन्दी अनुवादको प्रस्तुत कराकर प्रकाशितकरनेका विचार था। तदनुसार ही आज इस अनुपम कृतिको विशिष्ट हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित करते और उसे हिन्दी जाननेवाली जनताके हाथोमे देते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है। अनुवादको न्यायाचार्य प० महेन्द्रकुमारजी प्रोफेसर हिन्दू विश्वविद्यालय काशीने अपने 'प्राकथन' मे 'सुन्दरतम, अकल्पनीय सरलतासे प्रस्तुत और प्रामाणिक' बतलाया है । इससे ग्रन्थकी उपयोगिता और भी प्रकाशित हो उठती है। आशा है अपने हितकी ग्वोजमे लगे हुए हिन्दी पाठक इस ग्रन्थरत्नको पाकर प्रसन्न होंगे और आत्महितको पहचानने तथा अपनानेके रूप मे ग्रन्थसे यथेष्ट लाभ उठाने तथा दूसरोको उठाने देनेका भरसक प्रयत्न करे।
श्रीमान् न्यायाचार्य प० महेन्द्रकुमारजीने इस ग्रन्थपर अपना जो 'प्राकथन' लिख भेजनेकी कृपा की है और जो अन्यत्र प्रकाशित है, उसके लिए वीरसेवामन्दिर उनका बहुत आभारी है और उन्हें हार्दिक धन्यवाद भेट करता है।
जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
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अशुद्धि-विज्ञप्ति (१) प्रेसके भूतोंकी कृपासे ग्रन्थ सानुवाद छपने मे कहीं कहीं कुछ अशुद्धियाँ हो गई है, जिनका सशोधन आवश्यक है उनकी विज्ञप्ति नीचे की जाती है। पाठक पहले ही उन्हे सुधार लेनेकी कृपा करे। . पृष्ठ पक्ति
शुद्ध सम्यग्दर्शन सम्यग्वर्णन नेकान्तवादसे अनेकान्तवादसे सामावायरूप समवायरूप र व-पुष्प ख-पुष्प एकान्तावगदियों एकान्तवादियों भवद्यक्त्य भवद्युक्त्य दवाच्यभेवेत्य दवाच्यमेवेत्य अपेक्षा अपेक्षा समासमकाला समा समकाला युक्तयनुशासन युक्त्यनुशासन
पदमधिगस्त्वं पदमधिगतस्त्वं• • (२) कहीं-कहीं कुछ शब्द जो ब्लैक टाइपमे छपने चाहिये थे वे सादा-सफैद टाइपमे छप गये है, जैसे पृष्ठ ५ के तीसरे पैरेके निम्न शब्द, उनके नीचे ब्लैक टाइप सूचक रेखा निम्न प्रकारसे लगा लेनी चाहिये-इस तरह हे जिन नाग! आपकी दृष्टि दूसरोंके द्वारा अप्रधृष्य है और साथ ही परधषिणी भी है
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सर्वत्र
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प्राक्कथन
युगप्रधान सर्वतोभद्र आचार्य समन्तभद्र स्याद्वाद - विद्याके सञ्जीवक और प्राण प्रतिष्ठापक थे । उन्हीने सर्वप्रथम भ० महावीरके तीर्थको 'सर्वोदय' तीर्थ कहा । वे कहते हैं - हे भगवन्, आपका अनेकान्त तीर्थ' ही 'सर्वोदय - तीर्थ' हो सकता है, क्योंकि इसमे मुख्य और गौण भावसे वस्तुका अनेकधर्मात्मक स्वरूप सघ जाता है । यदि एक दृष्टि दूसरी दृष्टिसे निरपेक्ष हो जाती है तो वस्तु सर्वधर्म - रहित शून्य ही हो जायगी । और चूंकि वस्तुका विविध धर्ममय रूप se अनेकान्तकी दृष्टिसे सिद्ध होता है अतः यही समस्त आपदाओंका नाश करनेवाला और स्वयं अन्तरहित सर्वोदयकारी तीर्थ बन सकता है-सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१॥
किसी भी तीर्थके सर्वोदयी होनेके लिये आवश्यक है किउसका आधार समता और अहिसा हो, अहङ्कार और पक्षमोह "नही । भगवान् महावीरका अनेकान्त दर्शन उनकी जीवन्त अहिंसाका ही अमृतमय फल है। हिंसा और सघर्षका मूलकारण विचारभेद होता है । जब अहिंसामूर्त्ति कुमार सिद्धार्थ प्रत्रजित हुए और उनने जगत्की विषमता और अनन्त दु.खोंका मूल खोजने के लिये बारह वर्ष की सुदीर्घ साधना की और अपनी कठिन तपस्याके बाद केवलज्ञान प्राप्त किया तब उन्हें स्पष्ट भास हुआ कि यह मानवतनधारी अपने स्वरूप और अधिकारके अज्ञानके कारण स्वयं दुःखी हो रहा है और दूसरोंके लिये दुःखमय परिस्थितियोंका निर्माण
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युक्त्यनुशासन
जान या अजानमे करता जा रहा है। श्रमण महाप्रभुने अपने निमल केवलज्ञानसे जाना कि इस विचित्रविश्वमे अनन्त द्रव्य है। प्रत्येक जड या चेतन द्रव्य अपनेमें परिपूर्ण है और स्वतत्र है। वह अनन्त धर्मात्मक है, अनेकान्तरूप है। शुद्ध द्रव्य एक दुसरेको प्रभावित नहीं करते। केवल पुद्गल द्रव्य ही ऐसे हैं जो अपनी शुद्ध या अशुद्ध हर अवस्था में किसी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यसे प्रभावित होते रहते है। एक द्रव्यका निसर्गत. दूसरे द्रव्य पर कोई अधिकार नही है। प्रत्येक द्रव्यका अधिकार है तो अपने गुण और अपनी पर्यायोपर । वह उन्हीका वास्तविक स्वामी है । पर इस स्वरूप और अधिकारके अज्ञानी मोही प्राणीने जड पदार्थ तो दूर रहे, चेतन द्रव्योंपर भी अधिकार जमानेकी दुवृत्ति
और मूढ प्रवृत्ति की । इसने जड पदार्थाका सग्रह और परिग्रह तो किया ही, साथ ही उन चेतन द्रव्योपर भी स्वामित्व स्थापन किया जिन प्रत्येकमे मूलत• वैसे ही अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख
आदि गुणोकी सत्ता है, जो उसी तरह सुख-दुखका संवेदन और सचेतन करते हैं जिस प्रकार कि वह, और वह भी किया गया जाति-वर्ण और रगके नामपर ।
श्रमण-प्रभुने देखा कि यह विषमता तथा अधिकारोंकी छीनाझपटीकी होड व्यवहारक्षेत्रमे तो थी ही, पर उस धर्म-क्षेत्रमे भी जा पहुँची है जिसकी शीतल छायामे प्राणिमात्र सुख, शान्ति और • समताकी सांस लेता था । मांसलोलुपी प्रेयार्थी व्यक्ति पशुओंकी बलि धर्मके नामपर दे रहे थे। उन प्रवृत्तिरक्त पर शमतुष्टिरिक्त यज्ञजीवियोंको भगवान्ने यही कहा कि-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नही और अधिकार जमानेकी अनधिकार चेष्टा ही अधर्म है, पाप है और मिथ्यात्व है । फिर धर्म के नामपर यह चेष्टा तो घोर पातक है।
स्वामी समन्तभद्रने भूतचैतन्यवादी चार्वाकोंका खण्डन करते
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प्राकथन
समय उन्हें 'आत्मशिश्नोदरपुष्टितुष्ट' ( स्वार्थी, काम और उदर पोषणमें मस्त) और 'निहींभया ( भय और लोकलाजसे रहित) विशेषण दिया है। पर वस्तुतः देखा जाय तो यज्ञजीवी और धर्महिंसी लोग इन विशेषणोंके सर्वथा उपयुक्त हैं। भगवान्के सर्वोदय शासनमे प्रत्येक प्राणी को धर्मके सब अवसर हैं, सभी द्वार उन्मुक्त हैं। मनुष्य बिना किसी जाति, पाति, वर्ण, रंग या कुल आदिके भेदके अपनी भावनाके अनुसार धर्मसाधन कर सकता है। ____ श्रमण महाप्रभुने अहिंसाकी चरम साधनाके बाद यह स्पष्ट देखा कि जब तक अहिंसाका तत्त्वज्ञान हदभूमि पर नहीं होगा तब तक बुद्धिविलासी व्यक्ति श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक इसको उपासना नहीं कर सकते । खासकर उस वातावरणमें जहां 'सत्, असत्, उमय अनुभय' 'नित्य, अनित्य, उभय, अनुभय' आदि चतुष्कोटियोंकी चरचा चौराहों पर होती रहती हो। विविध विचारके बुद्धिमान प्राणी प्रभुके संघमे उनकी अलौकिक वृत्तिसे प्रभावित होकर दीक्षित होने लगे, पर उनकी वस्तुतत्त्वके बोधकी जिज्ञासा बराबर बनी ही रही। उनकी साधनामे यह जिज्ञासा पक्षमोहकी आकुलता उत्पन्न करने के कारण महान कटक थी। इसकी शान्तिके बिना निराकुल और निविकल्प समता पाना कठिन था। खास कर उस समय जब भिक्षाके लिये जाते समय गली कूचोंमे भी शास्त्रार्थ हो जाते थे। संघमें भी तत्त्वज्ञानकी दृढ और स्पष्ट भूमिकाके बिना मानस शान्ति पाना कठिन ही था। प्रभुने अपने निरावरण ज्ञाननेत्रोंसे देखा कि इस विराट् विश्वका प्रत्येक चेतन
और अचेतन अणु-परमाणु अनन्त धर्मोका वास्तविक आधार है। सांसारिक जीवोंका ज्ञानलव उसके एक एक अंशको छूकर ही परिसमाप्त हो जाता है, पर यह अहंकारी उस ज्ञान-लवको ही 'महान्। मानकर मद-मत्त हो जाता है और दूसरेके ज्ञानको तुच्छ मान बैठता है। प्रभुने कहा-प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मोका अखण्ड पिंड
और अञ्चत जीवोंका ज्ञानलह अहंकारी सरक ज्ञानको अखण्ड पिड
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युक्त्यनुशासन है। छमस्थोंका ज्ञान उसके पूर्ण रूपको नहीं जान सकता। उसमे सत्, असत्, उभय, अनुभय ये चार कोटियां ही नहीं, इनको मिलाजुलाकर जितने प्रश्न हो सकते हों उन अनन्त सप्तभंगियोंके विषयभूत अनन्त धर्म प्रत्येक वस्तुमे लहरा रहे हैं। उन्होंने बुद्धकी तरह तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमे अपने शिष्योंको अनुपयोगिताके कुहरे में नहीं डाला और न इस तरह उन्हे तत्त्वज्ञानके क्षेत्रमे मानसिक दैन्यका शिकार ही होने दिया। उनने आत्मा लोक परलोक आदिकी नित्यता अनित्यता आदिके निश्चित दृष्टिकोण समझाये । इस तरह मानस अहिंसाकी परिपूर्णताके लिये विचारोंका वस्तुस्थितिके आधारसे यथार्थ सामञ्जस्य करनेवाला अनेकान्त दर्शनका मौलिक उपदेश दिया गया। इसी अनेकान्तका निर्दुष्ट रूपसे कथन करने वाली भाषाशैली 'स्याद्वाद' कहलाती है । स्याद्वादका 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्मके सिवाय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मोंका प्रतिनिधित्व करता है। वह उन मूक धर्मोका सद्भाव तथा वस्तुमें उनका बराबरीका अधिकार बताता है और श्रोताको यह सोचनेको बाध्य करता है कि वह शब्दसे उच्चरित धर्मरूप ही वस्तु न समझ बैठे। अतः मानस अहिंसा अनेकान्त दर्शना,वाणीकी अहिंसा 'स्याद्वाद' तथा कायिक अहिंसा 'सम्यक् चारित्र' ये अहिसा प्रासादके मुख्य स्तम्भ हैं। युगावतार स्वामी समन्तभद्रने अनेकान्त, स्याद्वाद तथा सम्यक्चारित्रके सारभूत मुद्दोंका विवेचन ' इस युक्त्यनुशासनमे दृढ निष्ठा और अतुल वाग्मिताके साथ किया है, जो कि उन्हीं वीरप्रभुके स्तोत्र रूपमे लिखा गया है। वे जैनमतका अमृतकुम्भ हाथमे लेकर अटूट विश्वाससे कहते हैंभगवन् । दया, दम, त्याग और समाधिमें जीवित रहने वाला तथा नय और प्रमाणकी द्विविध शैलीसे वस्तुका यथार्थ निश्चय करने वाले तत्त्वज्ञानकी दृढ भूमिपर प्रतिष्ठित आपका मत अद्वितीय है, प्रतिवादिगों द्वारा अजेय है
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marrrrram
प्राकथन
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादै र्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
युक्त्यनुशासन जैसे जटिल और सारगर्भ महान् ग्रन्थका सुन्दरतम अनुवाद समन्तभद्र स्वामीके अनन्यनिष्ट भक्त साहित्य-तपस्वी प० जुगलकिशोरजी मुख्तारने जिस अकल्पनीय सरलतासे प्रस्तुत किया है वह न्याय-विद्याके अभ्यासियों के लिये आलोक देगा। सामान्य-विशेष युतसिद्धि-अयुतसिद्धि, क्षणभगवाद सन्तान आदि पारिभाषिक दर्शनशब्दोंका प्रामाणिकतासे भावार्थ "दिया है। आचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारकी यह एकान्त साहित्य-साधना आजके मोलतोलवाले युगको भी मॅहगी नही मालूम होगी, जब वह थोड़ा-सा भी अन्तर्मुख होकर इस तपस्वीकी निष्ठाका अनुबादकी पंक्ति-पक्तिपर दर्शन करेगा। वीरसेवामन्दिरकी ठोस साहित्य. सेवाएँ आज सीमित साधन होनेसे विज्ञापित नहीं हो रही है पर वे ध्रुवताराएँ हैं जो कभी अस्त नही होते और देश और कालकी परिधियों जिन्हें धूमिल नहीं कर सकती। जैन समाजने इस ज्ञानहोताकी परीक्षा ही परीक्षा ली । पर यह भी अधीर नही हुआ और आज भी वृद्धावस्थाकी अन्तिम डालपर बैठा हुआ भी नवकोंपलोंकी लालिमासे खिल रहा है और इसे आशा है कि -"कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी। हम इस ज्ञानयोगीकी साधनाके आगे सश्रद्ध नतमस्तक हैं और नम्र निवेदन करते हैं कि इनने जो आबदार ज्ञानमुक्ता चुन रखे हैं उनकी माला बनाकर रखदे, जिससे समन्तभद्रकी सर्वोदयी परम्परा फिर युगभाषाका नया रूप लेकर निखर पड़े।
हिन्दू विश्वविद्यालय । काशी, ता० १-६-५१ ।
महेन्द्रकुमार (न्यायाचार्य)
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प्रस्तावना
ग्रन्थ-नाम
१
इस ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'युक्त्यनुशासन' है । यद्यपि ग्रन्थके आदि तथा अन्तके पद्योंमे इस नामका कोई उल्लेख नही है - उनमे स्पष्टतया वीर - जिनके स्तोत्रकी प्रतिज्ञा और उसीकी परिसमाप्तिका उल्लेख है और इससे प्रन्थका मूल अथवा प्रथम नाम 'वीरजिनस्तोत्र' जान पड़ता है - फिर भी ग्रन्थकी उपलब्ध प्रतियों तथा शास्त्र भण्डारोंकी सूचियोंमें 'युक्त्यनुशासन' नामसे ही इसका प्राय उल्लेख मिलता है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्यने तो बहुत स्पष्ट शब्दों में टीकाके मगलपद्य, मध्यपद्य और अन्त्यपद्यमे इसको समन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्रग्रन्थ उद्घोषित किया है, जैसा कि उन पद्योंके निम्न वाक्यों से प्रकट है।
"
"जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्र युक्त्यनुशासनम् ” ( १ ) " स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेवरस्य निःशेषतः " (२) ''श्रीमद्वीरजिनेश्वराऽमलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीच्याऽखिलम् | प्रोक्त युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वाद मार्गानुगैः” (४)
।
१ " स्तुतिगोचरत्व निनीषव' स्मो वयमद्य वीर" (१), 'नरागान्न. स्तोत्र भवति भवपाशच्छिदि मुनौ” (६३), "इति स्तुत शक्त्या श्र ेय. पदमधिगतस्त्व जिन मया । महावीरो वीरो दुरितपरसेनाभिविजये" (६४) ।
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युक्त्यनुशासन
याहुयाध होती अथवा
यहाँ मध्य और अन्त्यके पद्योंसे यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थ वीरजिनका स्तोत्र होते हुए भी 'यक्त्यनुशासन' नामको लिये हुए है अर्थात् इसके दो नाम है-एक 'वीरजिनस्तोत्र' और दूसरा 'युक्त्यनुशासन'। समन्तभद्रके अन्य उपलब्ध ग्रन्थ भी दो दो नामोंको लिये हुए है, जैसा कि मैंने 'स्वयम्भूस्तोत्र' की प्रस्तावनामे व्यक्त किया है । पर स्वयम्भूस्तोत्रादि अन्य चार ग्रन्थों में ग्रन्थका पहला नाम प्रथम पद्य द्वारा और दूसरा नाम अन्तिम पद्य-द्वारा सूचित किया गया है और यहाँ आदि-अन्तके दोनो ही पद्योंमें एक ही नामकी सूचना की गई है, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या 'युक्त्यनुशासन' , यह नाम बादको श्रीविद्यानन्द या दूसरे किसी
आचायके द्वारा दिया गया है अथवा ग्रन्थके अन्य किसी पद्यसे इसकी भी उपलब्धि होती है ? श्रीविद्यानन्दाचार्य के द्वारा यह नाम दिया हुआ मालूम नहीं होता, क्योंकि वे टीकाके आदि मंगल पद्यमे 'युक्त्यनुशासन' का जयघोष करते हुए उसे स्पष्ट रूपमे समन्तभद्रकृत बतला रहे हैं और अन्तिम पद्यमे यह साफ घोषणा कर रहे है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वकी समीक्षा करके श्रीवीरजिनेन्द्रके निर्मल गुणों के स्तोत्ररूपमे यह 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थ कहा है। ऐसी स्थितिमें उनके द्वारा इस नामकरणकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। इसके सिवाय, शकसंवत् ७०५ (वि सं. ८४०) मे हरिवंशपुराणको बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने 'जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् , वचः समन्तभद्रस्या इन पदोंके द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दोंमे समन्तभद्रको 'जीवसिद्धि' प्रन्थका विधाता और 'युक्त्यनुशासन' का कर्ता बतलाया है। इससे भी यह साफ जाना जाता है कि 'युक्त्यनुशासन' नाम श्रीविद्यानन्द अथवा श्रीजिनसेनके द्वारा बादको दिया हुआ नाम नहीं है, बल्कि ग्रन्थकार द्वारा स्वयका ही विनियोजित नाम है।
अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थके किसी दूसरे पद्यसे इस
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प्रस्तावना
नामकी कोई सूचना मिलनी है ? सूचना जरूर मिलती है। स्वामीजीने स्वय ग्रन्थको ४८वी कारिकामे 'यक्त्यनुशासन'का निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है"दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासन ते " .
इसमे बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थसे प्ररूपण है उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते हैं और वही ( हे वीर भगवन् । ) आपको अभिमत है-अभीष्ट है।' प्रन्थका सारा अर्थप्ररूपण युक्त्यनुशासनके इसी लक्षणसे लक्षित है, इसीसे उसके सारे शरीरका निर्माण हुआ है और इसलिये 'युक्त्यनुशासन' यह नाम ग्रन्थकी प्रकृतिके अनुरूप उसका प्रमुख नाम है । चुनॉचे ग्रन्थकारमहोदय, ६३वीं कारिकामे ग्रन्थके निर्मारणका उद्दश्य व्यक्त करते हुए, लिखते हैं कि 'हे वीर भगवन् । यह स्तोत्र आपके प्रति रागभावको अथवा दूसरोंके प्रति द्वेषभावको लेकर नही रचा गया है, बल्कि जो लोग न्याय अन्यायको पहचानना चाहते है और किसी प्रकृतविषयके गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह हितान्वेषणके उपायस्वरूप आपकी गुण-कथाके साथ कहा गया है। इससे साफ जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य भूले भटके जीवोको न्याय-अन्याय, गुणदोष और हित-अहितका विवेक कराकर उन्हें वीरजिन-प्रदर्शित सन्मार्गपर लगाना है और वह युक्तियोंके अनुशासन-द्वारा ही साध्य होता है, अतः ग्रन्थका मूलतः प्रधान नाम 'युक्त्यनुशासन ठीक जान पड़ता है। यही वजह है कि वह इसी नाम से अधिक प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है। 'वीरजिनस्तोत्र यह उसका दूसरा नाम है, जो स्तुतिपात्रकी दृष्टिसे है, जिसका और जिसके शासनका महत्व इस ग्रन्थमे ख्यापित किया गया है। ग्रन्थके मध्यमे प्रयुक्त हुए किसी पदपरसे भी ग्रन्थका नाम रखनेकी प्रथा है, जिसका
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युक्त्यनुशासन mmmmmmmmmmmmmmmmwww.amwwwwww एक उदाहरण धनञ्जय कविका 'विषापहार' स्तोत्र है, जो कि न तो 'विषापहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न आदि-अन्तके पद्योमें ही उसके 'विषापहार' नामकी कोई सूचना की गई है,फिर भी मध्य में प्रयुक्त हुए 'विषापहार मणिमौषधानि' इत्यादि वाक्यपरसे वह 'विषापहार नामको धारण करता है। उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्त्यनुशासन' नामको धारण करता हुआ जान पड़ता है।
इस तरह ग्रन्थके दोनों ही नाम युक्तियुक्त हैं और वे ग्रन्थकारद्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते हैं। जिसे जैसी रुचि हो उसके अनुसार वह इन दोनों नामोंमें से किसीका भी उपयोग कर सकता है। ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व
यह ग्रन्थ उन आप्तो अथवा 'सर्वज्ञ' कहे जाने वालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है,जिनके आगम किसी-न-किसी रूपमे उपलब्ध है और जिनमे बुद्ध कपिलादिके साथ वीरजिनेन्द्र भी शामिल हैं। परीक्षा 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधि वाक्त्वा हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरोध रूप पाये गये उन्हें ही प्राप्तरूपमें स्वीकार किया गया है- शेषका प्राप्त होना बाधित ठहराया गया है। ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामे, जिसे उन्होंने अपने 'आप्त-मीमांसा' (देवागम.) प्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरजिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादि-आप्तोका प्रतिनिधित्व करते हैं, पूणरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हे निर्दोष प्राप्त (सर्वज्ञ) घोषित करते हुए और उनके अभिमत अनेकान्तशासनको प्रमाणाऽबाधित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनाऽमृतसे बाह्य जो सवथा एकान्तवादी हैं वे आप्त नहीं प्राप्ताभिमानसे दग्ध है; क्योकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष-प्रमाणसे बाधित है
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प्रस्तावना
म त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ स्वन्मताऽमृत-बाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताऽभिमान-दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥
-आप्तमीमांसा इस तरह वीरजिनेन्द्र के गलेमे आप्त-विषयक जयमाल डालकर और इन दोनों कारिकाओंमे वर्णित अपने कथनका स्पष्टीकरण करनेके अनन्तर आचार्य स्वामी समन्तभद्र इस स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे है, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामे प्रयुक्त हुए 'अद्य शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार प्रोविद्यानन्दाचार्य ने भी 'अद्य' शब्दका अर्थ 'अद्याऽस्मिन् काले परीक्षावसानसमये दिया है। साथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ आप्तमीमासाके बाद रचा गया है
"श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहतान्त्यतीर्थङ्कर• परमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः ? इति ते पृष्ठा इव प्राहुः।"
स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा-प्रधानी आचार्य थे,वे यों ही किसीके आगे मस्तक टेकनेवाले अथवा किसीकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेवाले नहीं थे। इसीसे वीरजिनेन्द्रकी महानता-विषयक जब ये बाते उनके सामने आई कि 'उनके पास देव आते है, आकाशमे विना किसी विमानादिकी सहायताके उनका गमन होता है और
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युक्त्यनुशासन
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चंवर छत्रादि अष्ट प्रातिहार्यो के रूपमें तथा समवसरणादिके रूप में अन्य विभूतियोंका भी उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि 'ये बाते तो मायावियोंमे - इन्द्रजालियों में भी पाई जाती हैं, इनके कारण आप हमारे महान् पूज्य अथवा आप्तपुरुष नही है ' । और जब शरीरादिके अन्तर्बाह्य महान् उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कह दिया कि शरीरादिका यह महान उदय रागादिके वशीभूत देवताओं में भी पाया जाता है । अत यह हेतु भी व्यभिचारी है इससे महानता (आप्तता) सिद्ध नही होती ' । इसी तरह तीर्थङ्कर होने से महानताकी बात जब सामने लाई गई तो आपने साफ कह दिया कि 'तीर्थङ्कर' तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संसार से पार उतरने अथवा निवृ ति प्राप्त करने के उपाय रूप प्रवर्तक माने जाते है तब वे सब भी आप्त- सर्वज्ञ ठहरते हैं, और यह बात बनती नही, क्योकि तीर्थङ्करोंके आगमों में परस्पर विरोध पाया जाता है । अत उनमे कोई एक ही महान् हो सकता है, जिसका ज्ञापक तीर्थङ्करत्व हेतु नही, कोई दूसरा ही हेतु होना चाहिये ।
ऐसी हालत में पाठकजन यह जाननेके लिये जरूर उत्सुक होंगे कि स्वामीजीने इस स्तोत्रमे वीरजिनकी महानताका किस रूप में
१ - ३ देवागम- नभोयान - चामरादि-विभूतय. ।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नाऽतस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदय । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥ तीर्थकृत्समयाना च परस्पर विरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥
- प्राप्त सीमास
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प्रस्तावना mararmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm संद्योतन किया है। वीरजिनकी महानताका संद्योतन जिस रूपमें किया गया है उसका पूर्ण परिचय तो पूरे ग्रन्थको बहुत दत्तावधा. नताके साथ अनेक वार पढ़ने पर ही ज्ञात हो सकेगा,यहाँ पर संक्षेपमें कुछ थोडासा ही परिचय कराया जाता है और उसके लिये ग्रन्थकी निम्न दो कारिकाएँ खास तौरसे उल्लेखनीय है -
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठों तुला-व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम् । अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥ दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
इनमेंसे पहली कारिकामे श्रीवीरको महानताका और दूसरीमें उनके शासनकी महानताका उल्लेख है। श्रीवीरकी महानताको इस रूपमे प्रदर्शित किया गया है कि 'वे अतुलित शान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिको पराकाष्ठाको प्राप्त हुए है-उन्होंने मोहनीयकर्मका अभाव कर अनुपम सुख-शान्तिकी, ज्ञानावरण-दर्शनावरणकर्मोका नाशकर अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप शुद्धिके उदयकी और अन्तराय-कर्मका विनाशकर अनन्तवीर्यरूप शक्तिके उत्कर्षकी चरमसीमाको प्राप्त किया है-और साथही ब्रह्मपथके-अहिसात्मक आत्मविकासपद्धति, अथवा मोक्षमार्गके वे नेता बने हैं-उन्होने अपने आदर्श एव उपदेशादि-द्वारा दूसरोंको उस सन्मार्गपर लगाया है जो शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिके परमोदयरूपमें आत्म
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युक्त्यनुशासन विकासका परम सहायक है।' और उनके शासनकी महानताके विषयमे बतलाया है कि 'वह दया (अहिसा), दम(संयम) त्याग (परिग्रह-त्यजन) और समाधि (प्रशस्तध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है, नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट-सुनिश्चित करनेवाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंके द्वारा अबाध्य है-कोई भी उसके विषयको खण्डित अथवा दूषित करनेमे समर्थ नही है। यही सब उसकी विशेषता है और इसी लिये वह अद्वितीय है।'
अगली कारिकाओंमे सूत्ररूपसे वर्णित इस वीरशासनके महत्वको और उसके द्वारा वीरजिनेन्द्रकी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तौरसे यह प्रदर्शित किया गया है कि वीरजिन-द्वारा इस शा सनमे वर्णित वस्तुतत्त्व कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता है
और दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोंमे निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व किस प्रकारसे प्रमाणबाधित तथा अपने अस्तित्वको सिद्ध करने में असमर्थ पाया जाता है । सारा विषय विज्ञ पाठकोके लिये बड़ा ही रोचक है और वीरजिनेन्द्रकी कीर्तिको दिग्दिगन्त-व्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान दर्शनों और उनके अवान्तर कितने ही वादोंका सूत्र अथवा सकेतादिकके रूपमे बहुत कुछ निर्देश और विवेक आगया है। यह विषय ३६वी कारिका तक चलता रहा है। श्रीविद्यानन्दाचार्यने इस कारिकाकी टीकाके अन्तमे वहाँ तकके वर्णित विषयकी संक्षेपमें सूचना करते हुए लिखा है
स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीतं मतमद्वितीयममलं संक्षेपतोऽपाकृतं तबाह्य वितथं मतं च सकलं सद्धीधनैर्बुध्यताम् ।।
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प्रस्तावना
अर्थात्-यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रके अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोंका समूह है, उस सबका संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये।
___ इसके आगे, प्रन्थके उत्तरार्धमें, वीर शासन-वर्णित तत्त्वज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो स्थकार-महोदय स्वामी समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रन्थोंमे प्राय. नही पाई जाती, जिनमे 'एव' तथा 'स्यात् शब्दके प्रयोगअप्रयोगके रहस्यकी बाते भी शामिल हैं और जिन सबसे वीरके तत्त्वज्ञानको समझने तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है । वीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही ग्रन्थमे 'सर्वोदयतीथे। बतलाया है-ससारसमुद्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी पार उतर जाते हैं और जो सबोंके उदय-उत्कर्षमे अथवा आत्माके पूर्ण विकासमें सहायक है-और यह भी बतलाया है कि वह सर्वान्तवान् है सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एकत्व-अनेकत्वादि अशेष धर्मोको अपनाये हुए है, मुख्य गौणकी व्यवस्थासे सुव्यवस्थित है और सर्व दु:खोंका अन्त करनेवाला तथा स्वय निरन्त हैं-अविनाशी तथा अखण्डनीय है। साथ ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता हैवह सर्वधर्मोसे शून्य होता है-उसमे किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है, ऐसो हालतमें सर्वथा एकान्तशासन 'सर्वोदयतीर्थ पद
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युक्त्यनुशासन के योग्य हो ही नहीं सकता। जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है
सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्तं
सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ वीरके इस शासनमे बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वष रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समदृष्टिहुआ उपपत्ति चक्षुसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक समाधानकी दृष्टिसे-वीरशासनका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृग खण्डित होजाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है। ऐसी इस ग्रन्थके निम्न वाक्यमे स्वामी समन्तभद्रने जोरोंके साथ घोषणा की है
कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो
भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ इस घोषणा में सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार और आत्मविश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत नहीं, जरूरत है यह कहने और बतलानेकी कि एक समर्थ आचार्यकी ऐसी प्रबल घोषणाके होते हुए और वीरशासनको 'सर्वोदयतीर्थ'का पद प्राप्त
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प्रस्तावना
२३ होते हुए भी आज वे लोग क्या कर रहे हैं जो तीर्थ के उपासक कहलाते हैं, पण्डे-पुजारी बने हुए है और जिनके हाथों यह तीर्थ पड़ा हुआ है। क्या वे इस तीर्थके सच्चे उपासक हैं ? इसकी गुण-गरिमा एवं शक्तिसे भले प्रकार परिचित हैं ? और लोकहितकी दृष्टिसे इसे प्रचार में लाना चाहते हैं? उत्तरमे यही कहना होगा कि 'नहीं। यदि ऐसा न होता तो आज इसके प्रचार और प्रसारकी दिशामें कोई खास प्रयत्न होता हुआ देखने में आता, जो नहीं देखा जा रहा है। खेद है कि ऐसे महान प्रभावक ग्रन्थोको हिन्दी आदिके विशिष्ट अनुवादादिके साथ प्रचारमे लानेका कोई खास प्रयत्न भी आजतक नहीं होसका है,जो वीर-शासनका सिक्का लोकहृदयोंपर अङ्कित कर उन्हे सन्मार्गकी ओर लगानेवाले हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ कितना प्रभावशाली और महिमामय है, इसका विशेष अनुभव तो विज्ञपाठक इसके गहरे अध्ययनसे ही कर सकेगे। यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना उचित जान पड़ता है कि श्रीविद्यानन्द आचार्यने युक्त्यनशासनका जयघोष करते हुए उसे 'प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तु-तत्त्वमबाधित' (१) विशेषणके द्वारा प्रमाण-नयके आधारपर वस्तुतत्त्वका अबाधित रूपसे निर्णायक बतलाया है। साथ ही टीकाके अन्तिम पद्यमें यह भी बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वसमूहकी साक्षात् समीक्षाकर इसकी रचना की है।' और श्रीजिनसेनाचार्यने, अपने हरिव शपुराणमें 'कृतयुक्त्यनुशासन' पदके साथ 'वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजम्भते' इस वाक्यकी योजना कर यह घोषित किया है कि समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन ग्रन्थ वीरभगवानके वचन (आगम। के समान प्रकाशमान एव प्रभावादिकसे युक्त है।" और इससे साफ जाना जाता है कि यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक है, आगमकी कोटिमें स्थित है और इसका निर्माण बीजपदों अथवा
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युक्त्यानुशासन
गम्भीरार्थक और वह्वर्थक सूत्रोंके द्वारा हुआ है । सचमुच इस प्रन्थकी कारिकाएँ प्राय अनेक गधसूत्रोंसे निर्मित हुई जान पडती है, जो बहुत ही गाम्भीर्य तथा अर्थगौरवको लिये हुए हैं। उदाहरण के लिये ७वी कारिकाको लीजिये, इसमे निम्न चार सूत्रोंका समावेश है
१ अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वम् २ स्वतन्त्राऽन्यतरत्वपुष्पम् । ३ अवृतिमत्वात्समवायवृत्तेः (संसर्गहानिः)।
४ संसर्गहानेः सकलाऽर्थ-हानिः । इसी तरह दूसरी कारिकाओंका भी हाल है। मैं चाहता था कि कारिकाओंपरसे फलित होनेवाले गद्य सूत्रोंकी एक सूची अलगसे दीजाती, परन्तु उसके तय्यार करनेके योग्य मुझे स्वय अवकाश नही मिल सका और दूसरे एक विद्वान्से जो उसके लिये निबेदन किया गया तो उनसे उसका कोई उत्तर प्राप्त नही होसका। और इसलिये वह सूची फिर किसी दूसरे संस्करणके अवसर पर ही दी जा सकेगी।
आशा है प्रन्थके इस संक्षिप्त परिचय और विषय-सूची परसे पाठक ग्रन्थ के गौरव और उसकी उपादेयताको समझकर सविशेष-- रूपसे उसके अध्ययन और मननमे प्रवृत्त होंगे।
जुगलकिशोर मुख्तार ता०२४-६-१६५१
देहली
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समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय इस ग्रन्थके सुप्रसिद्ध कर्ता स्वामी समन्तभद्र है, जिनका आसन जैनसमाजके प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानो तथा लेखको और सुपूज्य महात्माओमे बहुत ऊंचा है। आप जैनधर्मके मर्मज्ञ थे, वीरशासनके रहस्यको हृदयङ्गम किये हुए थे, जनधर्मकी साक्षात् जीती-जागती मूर्ति थे और वीरशासनका अद्वितीय प्रतिनिधित्व करते थे, इतना ही नहीं बल्कि आपने अपने समयके सारे दर्शनशास्त्रोका गहरा अध्ययन कर उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और इसीसे आप सब दर्शनो, धर्मों अथवा मतोका सन्तुलनपूर्वक परीक्षण कर यथार्थ वस्तुस्थितिरूप सत्यको ग्रहण करनेमे समर्थ हुए थे और उस असत्यका निर्मूलन करनेमे भी प्रवृत्त हुए थे जो सर्वथा एकान्तवादके मूत्रसे संचालित होता था। इसीसे महान आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामीने युक्त्यनुशासन-टीकाके अन्तमे आपको 'परीक्षेक्षण-परीक्षानेत्रसे सबको देखनेवाले-लिखा है और अष्टसहस्रीमे आपके वचन-माहात्म्यका बहुत कुछ गौरव ख्यापित करते हुए एक स्थानपर यह भी लिखा है कि-'स्वामी समन्तभ, का वह निर्दोष प्रवचन जयवन्त हो-अपने प्रभावसे लोकहृदयोको प्रभावित करेजो नित्यादि एकान्तगर्तोमे-वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा नित्य ही है अथवा क्षण-क्षणमे निरन्वय-विनाशरूप सर्वथा क्षणिक (अनित्य) ही है, इस प्रकारकी मान्यतारूप एकान्त खड्डोमे पड़नेके लिये विवश हुए प्राणियोको अनर्थसमूहसे निकालकर मगलमय उच्च पद प्राप्त करानेके लिए समर्थ है, स्याद्वादन्यायके मार्गको प्रख्यात करनेवाला है, सत्यार्थ है, अलंध्य है, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुआ है
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युक्त्यनुशासन
अथवा प्रेक्षावान-समीक्ष्यकारी प्राचार्य महोदयके द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने सम्पूर्ण मिथ्याप्रवादको विघटित अथवा तितर बितर कर दिया है।' और दूसरे स्थानपर यह बतलाया है कि-'जिन्होंने परीक्षावानोके लिये कुनीति और कुप्रवृत्तिरूप-नदियोको सुखा दिया है, जिनके वचन निर्दोष नीतिस्याद्वादन्यायको लिये हुए होनेके कारण मनोहर है तथा तत्त्वार्थसमूहके संद्योतक है वे योगियोके नायक, स्याद्वादमार्गके अग्रणी नेता, शक्ति-सामयंसे सम्पन्न-विभु और सूर्यके समान देदीप्यमान-तेजस्वी श्रीस्वामी समन्तभद्र कलुषित-आशय-रहित प्राणियोको-सजनो अथवा सुधीजनोको-विद्या और आनन्द-घनके प्रदान करनेवाले होवे-उनके प्रसादसे (प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चित्तमे धारण करनेसे ) सबोके हृदयमे शुद्धज्ञान और आनन्दकी वर्षा होवे'। साथ ही एक तीसरे स्थान पर यह प्रकट किया है कि'जिनके नय-प्रमाण-मूलक अलंध्य उपदेशसे-प्रवचनको सुनकर-महा उद्धतमति वे एकान्तवादी भी प्राय शान्तताको प्राप्त हो जाते हैं जो कारणसे कार्यादिकका सर्वथा भेद ही नियत मानते है अथवा यह स्वीकार करते हैं कि कारण-कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही है-एक ही है-वे निर्मल तथा विशालकीर्तिसे युक्त अतिप्रसिद्ध योगिराज स्वामी समन्तभद्र सदा जयवन्त रहेअपने प्रवचनप्रभावसे बराबर लोकहृदयोको प्रभावित करते रहे।
___ इसी तरह विक्रमकी ७वी शताब्दीके सातिशय विद्वान् श्रीअकलकदेव-जैसे महर्द्धिक आचार्यने, अपनी अष्टशती मे समन्तभद्रको 'भव्यैकलोकनयन' -भव्य जीवोके हृदयान्धकारको दूर करके अन्त प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाला अद्वितीय सूर्य-और 'स्याद्वादमार्गका पालक ( संरक्षक ) बतलाते हुए
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समन्तभद्र-परिचय www.rrrrrrrrrrrrrrwmmm यह भी लिखा है कि- उन्होने सम्पूर्ण पदार्थ-तत्वोको अपना विषय करनेवाले स्थाद्वादरूपी पुण्योदधि-तीर्थको, इस कलिकालमे, भव्यजीवोके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है-उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है, और ऐसा लिखकर उन्हे बारबार नमस्कार किया है। ___ स्वामी समन्तभद्र यद्यपि बहुतसे उत्तमोत्तम गुणोके स्वामी थे, फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण आपमे असाधारण कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे-ये चारो शक्तियाँ उनमे खास तौरसे विकासको प्राप्त हुई थी और इनके कारण उनका निर्मल यश दूर-दूर तक चारो ओर फैल गया था। उस समय जितने 'कवि' थे-नये नये सन्दर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेवाले समर्थ विद्वान थे, 'गमक' थे-दूसरे विद्वानोकी कृतियोके मर्म एवं रहस्यको समझने तथा दूसरोंको समझानेमे प्रवीणबुद्धि थे, विजयकी ओर वचन-प्रवृत्ति रखनेवाले 'वादी' थे, और अपनी वाकपटुता तथा शब्दचातुरीसे दूसरोको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेनेमे निपुण ऐसे 'वाग्मी' थे, उन सबपर समन्तभद्रके यशकी छाया पडी हुई थी, वह चूड़ामणिके समान सर्वोपरि था और बादको भी बडे-बड़े विद्वानो तथा महान् आचार्योके द्वारा शिरोचार्य किया गया है। जैसा कि विक्रमकी हवीं शताब्दीके विद्वान् भगवजिनसेनाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट हैकवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीय मूधिनचूडामणीयते ॥ (आदिपुराण) __ स्वामी समन्तभद्रके इन चारो गुणोकी लोकमे कितनी धाक थी, विद्वानोके हृदय पर इनका कितना सिक्का जमा हुआ था
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युक्त्यनुशासन
और वे वास्तवमे कितने अधिक महत्वको लिये हुए थे, इन सब बातोका कुछ अनुभव करानेके लिये कितने ही प्रमाण-वाक्योको 'स्वामी समन्तभद्र, नामके उस ऐतिहासिक निबन्धमे संकलित किया गया है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालामे प्रकाशित हुए रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी विस्तृत प्रस्तावनाके अनन्तर २५२ पृष्ठोपर जुदा ही अङ्कित है और अलगसे भी विषयसूची तथा अनुक्रमणिकाके साथ प्रकाशित हुआ है । यहाँ संक्षेपमे कुछ थोडासा ही सार' दिया जाता है और वह इस प्रकार है:
(१) भगवज्जिनसेनने, आदिपुराण मे, समन्तभद्रको 'महान् कविवेधा'-कवियोको उत्पन्न करनेवाला महान् विधाता (ब्रह्मा) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे ।
(२) वादिराजसूरिने, यशोधरचरितमे,समन्तभद्रको 'काव्यमाणिक्योका रोहण' (पर्वत) लिखा है और यह भावना की है कि 'वे हमे सूक्तिरत्नोके प्रदान करनेवाले होवे'।
(२) वादीभसिह सूरिने, गद्यचिन्तामणिमे, समन्तभद्रमुनीश्वरका जयघोष करते हुए उन्हे 'सरस्वतीकी स्वछन्द-विहारभूमि' बतलाया है और लिखा है कि 'उनके वचनरूपी वजके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्त-रूप पर्वतोकी चोटियाँ खण्ड-खण्ड हो गई थी अर्थात् समन्तभद्रके आगे प्रतिपक्षी सिद्धान्तोका प्रायः कुछ भी मूल्य या गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुह करके ही सामने खड़े हो सकते थे।'
१ इस सारके अधिकाश मूल वाक्योंका परिचय 'सत्साधुस्मरणमगलपाठ' के अन्तर्गत 'समन्तभद्र-स्मरण' नामक प्रकरणसे भी प्राप्त किया जा सकता है।
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समन्तभद्र-परिचय ___ (४) वर्द्धमानसूरिने, वराङ्गचरितमे, समन्तभद्रको 'महाकवीश्वर' 'कुवादिविद्या-जय-लब्ध-कीर्ति, और 'सुतर्कशास्त्रामृतसारसागर' लिखा है और यह प्रार्थना की है कि वे मुझ कवित्वकांक्षी पर प्रसन्न होवे-उनकी विद्या मेरे अन्तःकरणमे स्फुरायमान होकर मुझे सफल-मनोरथ करे।'
(५) श्री शुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानार्णवमे, यह प्रकट किया है कि 'समन्तभद्र जैसे कवीन्द्र-सूर्यों की जहां निर्मलसूक्तिरूप किरणे स्फुरायमान हो रही हैं वहां वे लोग खद्योत-जुगनू की तरह हँसीके ही पात्र होते है जो थोडेसे ज्ञानको पाकर उद्धत है-कविता (नृतन संदर्भकी रचना ) करके गर्व करने लगते है।'
(६) भट्टारक सकलकीर्तिने, पार्श्वनाथचरितमे, लिखा है कि 'जिनकी वाणी (ग्रन्थादिरूप भारती) संसारमे सब ओरसे मगलमय है और सारी जनताका उपकार करनेवाली है उन कवियोके ईश्वर समन्तभद्रको सादर वन्दन (नमस्कार) करता हूँ।'
(७) ब्रह्मअजितने हनुमच्चरितमे, समन्तभद्रको 'दुर्वादियोकी वादरूपी खाज-खुजलीको मिटानेके लिये अद्वितीय 'महौषधि' बतलाया है।
(८) कवि दामोदरने, चन्द्रप्रभचरितमे, लिखा है कि 'जिनकी भारती के प्रतापसे-ज्ञानभण्डाररूप मौलिक कृतियोके अभ्याससे समस्त कविसमूह सम्यगज्ञानका पारगामी हो गया उन कविनायक-नई नई मौलिक रचनाएँ करने वालोके शिरोमणियोगी समन्तभद्रकी मै स्तुति करता हूँ।
() वसुनन्दी आचार्यने, स्तुतिविद्याकी टीकामे, समन्तभद्रको
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युक्त्यनुशासन 'सद्बोधरूप'-सम्यग्ज्ञानकी-मूर्ति-और 'वरगुणालय'–उत्तमगुणोंका आवास-बतलाते हुए यह लिखा है कि उनके निर्मलयशकी कान्तिसे ये तीनो लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनो प्रदेश कान्तिमान थे-उनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था।'
(१०) विजयवर्णीने, शृङ्गारचन्द्रिकामे समन्तभद्रको 'महाकवीश्वर' बतलाते हुए लिखा है कि उनके द्वारा रचे गये प्रबन्धसमूहरूप सरोवरमे जो रसरूप जल तथा अलङ्काररूप कमलोसे सुशोभित है और जहॉ भावरूप हँस विचरते है. सरस्वती-क्रीडा किया करती है'-सरस्वती देवीके क्रीडास्थल ( उपाश्रय ) होनेसे समन्तभद्रके सभी प्रबन्ध (ग्रन्थ ) निर्दोष पवित्र एव महती शोभासे सम्पन्न हैं।'
(११) अजितसेनाचार्यने, अलङ्कारचिन्तामणिमे, कई पुरातन पद्य ऐसे संकलित किये हैं जिनसे समन्तभद्रके वाद-माहाम्यका कितना ही पता चलता है। एक पद्यसे मालूम होता है कि 'समन्तभद्रकालमे कुवादीजन प्रायः अपनी स्त्रियोंके सामने तो कठोर भाषण किया करते थे उन्हें अपनी गर्वोक्तियां अथवा बहादुरीके गीत सुनाते थे परन्तु जब योगी समन्तभद्रके सामने
आते थे तो मधुरभाषी बनजाते थे और उन्हे 'पाहि पाहि'रक्षा करो रक्षा करो अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं-ऐसे सुन्दर मृदुल वचन ही कहते बनता था।' और यह सब समन्तभद्रके असाधारण-व्यक्तित्वका प्रभाव था।
दूसरे पद्यसे यह जाना जाता है कि 'जब महावादी श्रीसमन्तभद्र (सभास्थान आदिमे) आते थे तो कुवादीजन नीचामुख करके अँगूठोसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे अर्थात् उन लोगो पर
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समन्तभद्र - परिचय
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प्रतिवादियो पर - समन्तभद्रका इतना प्रभाव पडता था कि वे उन्हे देखते ही विषण्णवदन हो जाते और किकर्तव्यविमूढ बन जाते थे ।'
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और एक तीसरे पद्यमे यह बतलाया गया है कि- वादीसमन्तभद्रकी उपस्थितिमे चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटिकी - तन्नामक महाप्रतिवादी विद्वान्कीजिह्वा ही जब शीघ्र अपने बिलमे घुसजाती है— उसे कुछ बोल नही आता तो फिर दूसरे विद्वानोका तो कथा ( बात ) ही क्या है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्त्व नही रखता । वह पद्य, जो कविहस्त मल्ल के 'विक्रान्तकौरव' नाटकमे भी पाया जाता है, इस प्रकार है
अवटु-तटमटति झटिति स्फुट - पटु- वाचाट - धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितिवति का कथाऽन्येषाम् ॥
यह पद्य शकसंवत् १९०५० मे उत्कीर्ण हुए श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५४ (६७) मे भी थोड़ेसे पाठभेदके साथ उपलब्ध होता है । वहा 'धूर्जटेर्जिह्वा' के स्थानपर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का कथाsन्येषा' की जगह तब सदसि भूप । कास्थाऽन्येषां ' पाठ दिया है, और इसे समन्तभद्र के वादारम्भ-समारम्भ-समयकी - उक्तियोमे शामिल किया है । पद्यके उसरूपमे धूर्जटिके निरुत्तर होनेपर अथवा धूर्जटिकी गुरुतर पराजयका उल्लेख करके राजासे पूछा गया है कि 'धूर्जटि-जैसे विद्वानकी ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोकी क्या आस्था है ? क्या उनमे से कोई वाद करनेकी हिम्मत रखता है' ?
(१२) श्रवणबेलगोलके शिलालेख न० १०५ मे समन्तभद्रका
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युक्त्यनुशासन
जयघोष करते हुए उनके सूक्तिसमूहको - सुन्दर प्रौढ युक्तियोको लिये हुए प्रवचनको - वादीरूपी हाथियोको वशमे करनेके लिये 'वजाकुश' बतलाया है और साथ ही यह लिखा है कि उनके प्रभाव से यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक वार दुर्वादुकोकी वार्तासे भी विहीन होगई थी— उनकी कोई बात भी नहीं करता था ।'
(१३) श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं १०८ मे भद्रमूर्तिसमन्तभद्रको जिनशासनका प्रणेता ( प्रधान नेता ) बतलाते हुए यह भी प्रकट किया है कि 'उनके वचनरूपी वजके कठोरपातसे प्रतिवादीरूप पर्वत चूर चूर हो गये थे - कोई भी प्रतिवादी उनके सामने नही ठहरता था ।'
(१४) तिरुमकूडलु नरसीपुरके शिलालेख नं० १०५ मे समन्तभद्रके एक वादका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'जिन्होने बाराएसी (बनारस) के राजाके सामने विद्वेषियोको अनेकान्तशासन से द्वेष रखनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोको - पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके स्तुतिपात्र नही है ?सभीके द्वारा भले प्रकार स्तुति किये जानेके योग्य है ।'
(१५) समन्तभद्रके गमकत्व और वाग्मित्व- जैसे गुणोका विशेष परिचय उनके देवागमादि ग्रन्थोका अवलोकन करनेसे भले प्रकार अनुभवमे लाया जा सकता है तथा उन उल्लेख - वाक्योपर से भी कुछ जाना जा सकता है जो समन्तभद्र - वाणीका कीर्तन अथवा उसका महत्त्व ख्यापन करनेके लिये लिखे गये है । ऐसे उल्लेखवाक्य अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोमे बहुत पाये जाते है । कवि नागराजका 'समन्तभद्र भारती स्तोत्र' तो इसी विषयको लिये हुए है और वह 'सत्साधु - स्मरण - मंगलपाठ' मे वीर सेवामन्दिरसे सानुवाद प्रकाशित हो चुका है। यहा दो तीन उल्लेखोका और
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समन्तभद्र - परिचय
सूचन किया जाता है, जिससे समन्तभद्रकी गमकत्वादि-शक्तियो और उनके वचन माहात्म्यका और भी कुछ पता चल सके
३.३
(क) श्रीवादिराजमूरिने, न्यायविनिश्चयालङ्कारमे लिखा है कि 'सर्वत्र फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारण जिसका तत्त्व लोकमे दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझमे नही आता - वह हितकारी वस्तु — प्रयोजनभूत जीवादि-पदार्थमाला - श्रीसमन्तभद्रके वचन रूप देदीप्यमान रत्नदीपकोके द्वारा हमे सब ओरसे चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभासित होवे - अर्थात् स्वामी समन्तभद्रका प्रवचन उस महाजाज्वल्यमान रत्नसमूहके समान है जिसका प्रकाश अप्रतिहत होता है और जो संसारमे फैले हुए निरपेक्षनयरूपी महामिध्यान्धकारको दूर करके वस्तुतस्वको स्पष्ट करनेमे समर्थ है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करे ।'
(ख) श्रीवीरनन्दी आचार्यंन, चन्द्रप्रभचरित्रमे लिखा है कि गुणोसे— सूतके धागोसे - गूथी हुई निर्मल गोल मोतियोसे युक्त और उत्तम पुरुषोके कण्ठका विभूषण बनी हुई हारयष्टिकोश्रेष्ठ मोतियोकी मालाको—- प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती ( वारणी ) को पा लेनाउसे खूब समझकर हृदयङ्गम कर लेना है जो कि सद्गुणोको लिये हुए है, निर्मल वृत्त ( वृत्तान्त चरित्र, आचार, विधान तथा छन्द) रूपी मुक्ताफलोसे युक्त है और बड़े-बड़े आचार्यों तथा विद्वानोने जिसे अपने कण्ठका आभूषण बनाया है - वे नित्य ही उसका उच्चारण तथा पाठ करनेमे अपना गौरव मानते और अहो - भाग्य समझते रहे हैं । अर्थात् समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है - उनके सातिशय वचनोका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे होता है ।'
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युक्त्यनुशासन annan vara
(ग) श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य, सिद्धान्तसारसग्रहमे, यह प्रकट करते हैं कि श्रीसमन्तभद्रदेवका निर्दोष प्रवचन प्राणियोके लिये ऐसा ही दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अथीत् अनादिकालसे ससारमे परिभ्रमण करते हुए प्राणियोको जिस प्रकार मनुष्यभवका मिलना दुर्लभ होता है उसी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनका लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्राप्ति होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली है।
ऊपरके इन राब उल्लेखोपरसे समन्तभद्रकी कवित्वादि शक्तियोके साथ उनकी वादशक्तिका जो परिचय प्राप्त होता है उससे सहज ही यह समझमे आ जाता है कि वह कितनी असाधारण कोटिकी तथा अप्रतिहत-वीर्य थी और दूसरे विद्वानोपर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था, जो अभी तक भी अक्षुण्णरूपसे चला जाता है-जो भी निष्पक्ष विद्वान आपके वादो अथवा तर्कोसे परिचित होता है वह उनके सामने नत-मस्तक हो जाता है। ___ यहॉपर मै इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि समन्तभद्रका वाद-क्षेत्र संकुचित नहीं था। उन्होने उसी देशमे अपने वादकी विजयदुन्दुभि नहीं बजाई जिसमे वे उत्पन्न हुए थे बल्कि उनकी वाद-प्रीति, लोगोके अज्ञानभावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगानेकी शुभभावना और जैन सिद्धान्तोके महत्वको विद्वानोके हृदय-पटलपर अंकित कर देनेकी सुरुचि इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होने सारे भारतवर्षको अपने वादका लीला-स्थल बनाया था। वे कभी इस बातकी प्रतीक्षामे नही रहत्ते थे कि कोई दूसरा उन्हे वादके लिए निमंत्रण दे और न उनकी मन परिणति उन्हें इस बातमे सन्तोष करनेकी ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञानभावसे मिथ्यात्वरूपी गों
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समन्तभद्र-परिचय mmmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammarrrrrrrrrrrrrrammar (खड्डो) मे गिरकर अपना श्रात्मपतन कर रहे है उन्हें वैसा करने दिया जाय । और इसलिये उन्हे जहां कही किसी महावादी अथवा किसी बड़ी वादशालाका पता चलता था तो वे वही पहुंच जाते थे और अपने वादका डंका बजाकर विद्वानोको स्वतः वादके लिये आह्वान करते थे। डकेको सुनकर वादीजन, यथा नियम, जनताके साथ वादस्थानपर एकत्र हो जाते थे और तब समन्तभद्र उनके सामने अपने सिद्धान्तोका बडी ही खूबीके साथ विवेचन करते थे और साथ ही इस बातकी घोषणा कर देते थे कि उन सिद्धान्तोमेसे जिस किसी सिद्धान्तपर भी किसीको आपत्ति हो वह वादके लिये सामने आ जाय। कहते है कि समन्तभद्र के स्याद्वाद-न्यायकी तुलामे तुले हुए तत्त्वभापणको सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे और उन्हे उसका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था। यदि कभी कोई भी मनुष्य अहकारके वश होकर अथवा नासमझीके कारण कुछ विरोध खडा करता था तो उसे शीव्र ही निरुत्तर हो जाना पड़ता था।
इस तरह, समन्तभद्र भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, प्राय सभी देशो मे, एक अप्रतिद्वंद्वी सिंह के समान क्रीडा करते हुए, निर्भयताके साथ वादके लिये घूमे है । एक बार आप घूमते
१ उन दिनो–समन्तभद्रके समयमे-फाहियान ( ई० ४०० ) और हेनत्सग ( ई० ६३०) के कथनानुसार यह दस्तूर था कि नगर मे किसी सार्वजनिक स्थानपर एक डका (मेरी या नकारा) रक्खा जाता था
और जो कोई विद्वान् किसी मतका प्रचार करना चाहता था अथवा बादमे अपने पाण्डि य और नैपुण्यको सिद्ध करनेकी इच्छा रखता था तो वह वाद-घोषणाके रूपमे उस डकेको बजाता था ।
-हिस्ट्री श्राफ कनडीज लिटरेचर
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युक्त्यनुशासन
हुए 'करहाटक' नगर मे भी पहुंचे थे, जो उस समय बहुतसे भटोसे युक्त था, विद्याका उत्कट स्थान था और साथ ही अल्प विस्तारवाला अथवा जनाकीर्णं था । उस वक्त आपने वहॉके राजापर अपने वाद-प्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हे अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमे दिया था वह श्रवण बेल्गोलके शिलालेख नं. ५४ मे निम्न प्रकारसे संग्रहीत है
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट सकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शादुलविक्रीडित ॥ इस पद्यमे दिये हुए आत्मपरिचयसे यह मालूम होता है कि करहाटक पहुंचने से पहले समन्तभद्रने जिन देशो तथा नगरोमे वादके लिये विहार किया था उनमे पाटलिपुत्रनगर, मालव (मालवा ) सिन्धु, ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम् ) और वैदिश (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे जहाँ उन्होने वादकी भेरी बजाई थी और जहाँ पर प्राय किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया था।'
१ समन्तभद्रके इस देशाटनके सम्बन्धमे मिस्टर एम० एस० रामस्वामी प्राय्यगर अपनी 'स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' नामकी पुस्तक मे लिखते हैं___ 'यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुत बडे जैनधर्मप्रचारक थे, जिन्होंने जैनसिद्धान्तो और जैन श्राचारोंको दूर दूर तक विस्तारके साथ फैलानेका उद्योग किया है, और यह कि जहा कही वे गये हैं उन्हें दूसरे
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समन्तभद्र-परिचय यहाँ तकके इस सब परिचय पर से स्वामी समन्तभन्द्रके आसाधारण गुणो उनके अनुपम प्रभाव और लोकहितकी भावनाको लेकर धर्मप्रचारके लिये उनके सफल देशाटनादिका कितना ही हाल तो मालूम हो गया, परन्तु अभी तक यह मालूम नही हो सका कि समन्तभद्र के पास वह कौनमा मोहनमंत्र था जिसके कारण वे सदा इस बातके लिये भाग्यशाली रहे है कि विद्वान लोग उनकी वाद-घोषणाओ और उनके तात्त्विक भाषणोको चुपकेसे सुन लेते थे और उन्हें उनका प्रायः कोई विरोध करते नहीं बनता था । वाठका तो नाम ही ऐसा है जिससे चाहे-अनचाहे विरोधकी आग भडकती है लोग अपनी मानरक्षाके लिये, अपने पक्षको निर्बल समझते हुए भी, उसका समर्थन करनेके लिये खडे हो जाते है और दूसरेकी युक्तियुक्त बातको भी मानकर नहीं देते, फिर भी समन्तभद्रके साथमे यह सब प्राय कुछ भी नही होता था, यह क्यो ?-अवश्य ही इसमे कोई खास रहस्य है, जिसके प्रकट होनेकी जरूरत है और जिसको जाननेके लिये पाठक भी उत्सुक होगे।
जहाँ तक मैंने इस विषयकी जॉच की है-इस मामले पर गहरा विचार किया है और मुझे समन्तभद्रके साहित्यादिकपरसे उसका विशेष अनुभव हुआ है उसके आधारपर मुझे इस बातके कहनेमे जरा भी संकोच नहीं होता कि समन्तभद्रकी इस सारी सफलताका रहस्य उनके अन्त करणकी शुद्धता, चरित्र की निर्मलता और उनकी वाणी के महत्व मे संनिहित है, सम्प्रदायोंकी तरफसे किसी भी विरोधका सामना करना नहीं पडा (He met with no opposition from other sects wherever he went)।
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युक्त्यनुशासन
अथवा यों कहिये कि यह सब अन्त:करणकी पवित्रता तथा चरित्र की शुद्धताको लिये हुए उनके वचनोका ही महात्म्य है जो वे दूसरो पर अपना इस प्रकार सिक्का जमासके है। समन्तभद्र की जो कुछ भी वचन-प्रवृत्ति होती थी वह सब प्रायः दूसरोकी हितकामनाको ही साथमे लिये हुए होती थी। उसमे उनके लौकिक स्वार्थकी अथवा अपने अहकारको पुष्ट करने और दूसरोको नीचा दिखाने रूप कुत्सित भावनाकी गन्ध तक भी नही रहती थी। वे स्वयं सन्मार्गपर आरूढ थे और चाहते थे कि दूसरे लोग भी सन्मार्गको पहिचाने और उसपर चलना आरम्भ करे । साथ ही, उन्हें दूसरोको कुमार्गमे फंसा हुआ देखकर बडा ही खेद तथा कष्ट होता था । और इमलिये उनका वाकप्रयत्न सदा उनकी इच्छा के अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा ऐसे लोगोके उद्धारका अपनी शक्तिभर प्रयत्न किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्म-हित-साधनके बाद दूसरोका हित
१ अापके इस खेदादिको प्रकट करने वाले तीन पय, नमूने के तौर पर इस प्रकार हैमद्याङ्गवद्भूतसमागमे ज्ञ शक्त्यन्तरव्यक्तिरदेवसृष्टिः। इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टितुष्टै निहींभय हा मृदवः प्रलब्धा. ॥३५॥ दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्वमेषाम् । स्वभावत. किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा प्रपात ॥३६॥ स्वच्छन्दवृत्तेजगत स्वभावादुच्चैरनाचारपथेष्वदोषम । निघुष्य दीक्षासममक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्या बत विभ्रमन्ति ।३७
-युक्त्यनुशासन इन पद्यो का आशय उस अनुवादादिक परसे जानना चाहिये जो ग्रन्थमे आठ पृष्ठो पर दिया है।
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समन्तभद्र-परिचय
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साधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी योग्यताके साथ उनका सम्पादन करते थे। उनकी वाकपरिणति सदा क्रोधसे शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे और न दूसरोके अपशब्दोसे उनकी शान्ति भंग होती थी। उनकी ऑखोमे कभी सुखी नहीं आती थी, वे हमेशा हँसमुख तथा प्रसन्नवदन रहते थे। बुरी भावनासे प्रेरित होकर दूसरोके व्यक्तित्वपर कटाक्ष करना उन्हे नही आता था और मधुर भाषण तो उनकी प्रकृति मे ही दाखिल था। यही वजह थी कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके सामने आकर मृदुभाषी बन जाते थे, अपशब्द-मदान्धोको भी उनके आगे बोल तक नही आता था और उनके 'वज्रपात' तथा वजाकुश' की उपमाको लिये हुए वचन भी लोगोको अप्रिय मालूम नही होते थे।
समन्तभद्रके वचनोमे एक खास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वाद-न्यायकी तुलामे तुले हुए होते थे और इसलिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नही पाता था। ममन्तभद्र स्वय परीक्षा-प्रधानी थे, वे कदाग्रह को बिल्कुल पसन्द नही करते थे, उन्होने सर्वज्ञवीतराग भगवान महावीर तककी परीक्षा की है और तभी उन्हें 'आप्त' रूपमे स्वीकार किया है। वे दूसरीको भी परीक्षाप्रधानी होनेका उपदेश देते थे-सदैव उनकी यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व अथवा सिद्धान्तको विना परीक्षा किये केवल दूसरोके कहनेपर ही न मान लेना चाहिये बल्कि ममर्थ-युक्तियोके द्वारा उसकी अच्छी तरहसे जॉच करनी चाहिये-उसके गुण-दोषोका पता लगाना चाहिये और तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये। ऐसी हालतमे वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दूसगेके गले उतारने अथवा उनके सिर मॅढनेका कभी यत्न नहीं करते थे। वे विद्वानो
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युक्त्यनुशासन को, निष्पक्षदृष्टिसे, स्व-पर-सिद्धान्तोपर खुला विचार करनेका पूरा अवसर देते थे। उनकी सदैव यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलूसे-एक ही ओरसे-मत देखा, उसे सब ओरसे और सब पहलुओसे देखना चाहिये, तभी उसका यथार्थज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमे अनेक धर्म अथवा अङ्ग होते है-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी एक धर्म या अङ्गको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना 'एकान्त' है और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है । स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध करता है-सर्वथा सत्-असत्-एक अनेक-नित्य-अनित्यादि संम्पूर्ण एकान्तोसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विषय है। ___ अपनी घोषणाके अनुसार, समन्तभद्र प्रत्येक विषयके गुण दोषोको स्याद्वाद-न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोके सामने रखते थे, वे उन्हे बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमे अमुक अमुक एकान्तपक्षोके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोष आते है और वे दोष स्याद्वाद न्यायको स्वीकर करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावसे किस प्रकार दूर हो जाते है और किस तरहपर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य ठीक बैठ जाता है। उनके समझानेमे दूसरोके प्रति तिरस्कार का कोई भाव नहीं होता था। वे एक मार्ग भूले हुए को मार्ग दिखानेकी तरह प्रेमके साथ उन्हे उनकी त्रुटियोका बोध
१ सर्वथासदसदेकानेक-नित्यादि सकलैकान -प्रत्यनीकाऽनेकान्त-तत्वविषयः स्याद्वादः । -देवागमबृत्तिः ।
२ इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये समन्तभद्रका 'देवागम' ग्रन्य देखना चाहिये जिसे आत्ममीमासा' भी कहते है।
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समन्तभद्र-परिचय
कराते थे, और इससे उनके भाषणादिकका दूसरोपर अच्छा ही प्रभाव पडता था-उनके पास उसके विरोधका कुछ भी कारण नही रहता था। यही वजह थी और यही सब वह मोहन-मंत्र था जिससे समन्तभद्र को दूसरे सम्प्रदायोकी ओरसे किसी खास विरोधका सामना प्रायः नही करना पंडा और उन्हें अपने उदेश्यमे भारी सफलताकी प्राप्ति हुई।
समन्तभद्रकी इस सफलताका एक समुच्चय उल्लेख श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ (६७) मे जिसे 'मल्लिषणप्रशस्ति' भी कहते है, और जो शक सवत् १०५० मे उत्कीर्ण हुआ है उसमे निम्न प्रकारसे पाया जाता है और उससे यह मालूम होता है कि 'मुनिसंघके नायक आचार्य समन्तभद्रके द्वारा सर्वहितकारी जैनमार्ग इस कलिकालमे पुनः सब ओरसे भद्ररूप हुआ हैउसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त होनेसे वह सबका हितकरनेवाला और सबका प्रेमपात्र बना है :
वन्द्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद-स्वमन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्र-गरणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वत्म समन्तभद्र मभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ इस पद्यक पूर्वाधमे समन्तभद्रके जीवनकी कुछ खास घटनाओका उल्लेख है और वे है- घोर तपस्या करते समय शरीरमे भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति, २ उस व्याधिको बडी बुद्धिमत्ताके साथ शान्ति, ३ पद्मावती नामकी दिव्यशक्तिके द्वारा समन्तभद्रको उदात्त (ऊँचे) पदकी प्राप्ति और ४ अपने मन्त्ररूप वचनबलसे अथवा योग-सामर्थ्यसे चन्द्रप्रभ-बिम्बकी आकृष्टि ।
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युक्त्यनुशासन ये सब घटनाएँ बडी ही हृदयद्रावक है, उनके प्रदर्शन और विवेचनका इस संक्षिप्त परिचयमे अवसर नहीं है और इसलिये उन्हे समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल' नामक उस निबन्धसे जानना चाहिये जो 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहासमे ४२ पृष्ठो पर इन पक्तियोके लेखक-द्वारा लिखा गया है।
समन्तभद्रकी सफलताका दूसरा समुच्चय उल्लख बेलूरतालुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १७ (E.C V) मे पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमे उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक संवत् १०५६ दिया है। इस शिलालेखमे ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रतकेवलियो तथा और भी कुछ आचार्यों के बाद समन्तभद्र स्वामी श्रीवर्धमान महावीरस्वामीके तीर्थकीजैनमार्गकी-सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए है
"श्रीवर्द्धमानस्वामिगलु तीर्थदोलु केवलिगलु ऋद्धिप्राप्तरु श्रुतकेव लिगलु पलरु सिद्धसाध्यर् तत् '(ती) स्थ्यम सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्दर।"
वीरजिनेन्द्रके तीर्थकी अपने कलियुगी समयमे हजारगुणी वृद्धि करनेमे समर्थ होना यह कोई साधाण बात नही है । इससे समन्तभद्रकी असाधारण सफलता और उसके लिये उनकी अद्वितीय योग्यता, भारी विद्वत्ता एवं बेजोड क्षमताका पता चलता है। साथ ही, उनका महान व्यक्तित्व मूर्तिमान होकर सामने आजाता है। यही वजह है कि अकलकदेव-जैसे महान् प्रभावक आचार्यने 'तीर्थ प्राभावि काले कलौ' जैसे शब्दो-द्वारा, कलिकालमे समन्तभद्रकी इस तीर्थ-प्रभावनाका उल्लेख बड़े
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समन्तभद्र-परिचय गौरवके साथ किया है, यही कारण है कि श्रीजिनसेनाचार्य समन्तभद्रके वचनोको वीरभगवानके वचनोके समान प्रकाशमान (प्रभावादिसे युक्त) बतला रहे है । और शिवकोटि
आचार्यने रत्नमालामे, 'जिनराजोधच्छासनाम्बुधिचन्द्रमा' पदके द्वारा समंतभद्रको भगवान महावीरके ऊँचे उठते हुए शासन-समुद्रको बढाने वाला चन्द्रमा लिखा है अर्थातू यह प्रकट किया है कि समन्तभद्रके उदयका निमित्त पाकर वीरभगवानका तीर्थसमुद्र खूब वृद्धिको प्राप्त हुआ है और उसका प्रभाव सर्वत्र फैला है। इसके सिवाय, अकलङ्कदेवसे भी पूर्ववर्ती महान विद्वानाचार्य श्रीसिद्धसेनने, 'स्वयम्भूस्तुति' नामकी प्रथम द्वात्रिशिकामे, अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवा. .स्थिता'-जैसे वाक्यके द्वारा समन्तभद्रका 'सर्वज्ञपरिक्षणक्षम' (सर्वज्ञ प्राप्तकी परीक्षा करनेमे समर्थ पुरुष) के रूपमे उल्लेख करते हुए और उन्हे बडे प्रसन्नचित्तसे वीरभगवानमे स्थित हुआ बतलाते हुए, अगले एक पद्यमे वीरके उस यशकी मात्राका बड़े ही गौरवके साथ उल्लेख किया है जो उन 'अलब्धनिष्ठ' और 'प्रसमिद्धचेता' विशेषणोके पात्र समन्तभद्र जैसे प्रशिष्योके द्वारा प्रथित किया गया है।
अब मैं, संक्षेपमे ही इतना और बतला देना चाहता हूँ कि १ 'वच. समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ।'-हरिवशपुराण २ अनब्धनिष्ठा' प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्या प्रथयन्ति यद्यशः। न तावदायेकसमूह-सहता प्रकाशयेयुः परवाटिपार्थिवाः ॥ १५ ॥
सिद्धसेन-द्वारा समन्तभद्रके इस उल्लेखका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये देखो, 'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामे प्रकाशित 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामका वृहत् निबन्ध पृ० १५४ ।
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युक्त्यनुशासन
स्वामी समन्तभद्र एक क्षत्रिय-वंशोद्भव राजपुत्र थे, उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत 'उरगपुर' के राजा थे। वे जहा क्षत्रियोचित तेजसे प्रदीप्त थे वहाँ आत्महित-साधना और लोकहितकी भावनासे भी ओत-प्रोत थे, और इसलिये घर-गृहस्थोमे अधिक समय तक अटके नही रहे थे। वे राज्य-वैभवके मोहमे न फंसकर घरसे निकल गये थे, और कांची (दक्षिणकाशी) मे जाकर 'नग्नाटक' (नग्न ) दिगम्बर साधु बन गये थे । उन्होने एक परिचयपद्यमे अपनेको कॉचीका 'नग्नाटक' प्रकट किया है और साथ ही 'निर्ग्रन्थजैनवादी' भी लिखा है-भले ही कुछ परिस्थितियोके वश वे कतिपय स्थानोपर दो एक दूसरे साधु-वेष भी धारण करनेके लिये बाध्य हुए हैं, जिनका पद्यमे उल्लेख है, परन्तु वे सब अस्थायी थे और उनसे उनके मूलरूपमे, कर्दमाक्त-मणिके समान, कोई अन्तर नही पडा था-वे अपनी श्रद्धा और संयमभावनामे बराबर अडोल रहे है। वह पद्य इस प्रकार हैकांच्यां नग्नाटकोऽह मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुण्डोड़े शाक्यभिक्षुः२ दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी राजन् यस्याऽस्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिग्रन्थवादी ॥
१ 'जैसा कि उनकी 'प्राप्तमीमांसा' कृतिकी एक प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके निम्न 'पुष्पिका-वाक्यसे जाना जाता है, जो श्रवणबेलगोलके श्रींदौबलिजिनदास शास्त्रीके शास्त्रभण्डार मे सुरक्षित है___'इति श्रीफणिमण्डलालकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुने कृतौ प्राप्तमीमासायाम् ।'
२ यह पद अग्रोल्लेखित जीणं गुटकेके अनुसार 'शाकभक्षी' हैं ।
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समन्तभद्र-परिचय
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यह पद्यभी 'पूर्व' पाटलिपुत्र मध्यनगरे भेरी मया ताडिता' नामके परिचय-पद्यकी तरह किसी राजसभामे ही अपना परिचय देते हुए कहा गया है और इसमे भी वादके लिये विद्वानोको ललकारा गया है और कहा गया है कि 'हे राजन् | मैं तो वास्तवमे जैननिर्ग्रन्थ वादी हूँ, जिस किसीकी भी मुझसे वाद करनेकी शक्ति हो वह सामने आकर वाद करे ।'
पहले से समन्तभद्रके उक्त दो ही पद्य आत्मपरिचयको लिये हुए मिल रहे थे, परन्तु कुछ समय हुआ, 'स्वयम्भू स्तोत्र' की प्राचीन प्रतियोको खोजते हुए, देहली - पंचायतीमन्दिरके एक अति जीर्ण-शीर्ण गुटके परसे मुझे एक तीसरा पद्य भी उपलब्ध हुआ है, जो स्वयम्भू स्तोत्र के अन्तमे उक्त दोनो पद्योके अनन्तर संग्रहीत है और जिसमे स्वामीजीके परिचय - विषयक दस विशेषण उपलब्ध होते हैं और वे हैं -१ आचार्य, २ कवि, वादिराट् ४ पण्डित ( गमक ), ५ दैवज्ञ ( ज्योतिर्विद् ) ६ भिषक (वैद्य), ७ मान्त्रिक ( मन्त्रविशेषज्ञ ), ८ तान्त्रिक ( तन्त्रविशेषज्ञ ), ( आज्ञासिद्ध और १० सिद्धसारस्वत । वह पद्य इस प्रकार है :
"
आचार्यो कविरहमहं वादिराट् पणिडतोहं दैवज्ञोहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिको ।
जलधिवलयामेखलायामिलाया
राजन्नस्यां माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहं ||३||
यह पद्य बड़े ही महत्वका है । इसमे वर्णित प्रथम तीन विशेषण - आचार्य कवि और वादिराट - तो पहले से परिज्ञात हैं- अनेक पूर्वाचार्योके ग्रन्थो तथा शिलालेखोंमें इनका उल्लेख
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युक्त्यनुशासन मिलता है । चौथा ‘पण्डित' विशेषण आजकलके व्यवहारमे 'कवि' विशेषणकी तरह भले ही कुछ साधारण समझा जाता हो परन्तु उस समय कविके मूल्य की तरह उसका भी बडा मूल्य था और वह प्राय. 'गमक' (शास्त्रोके मर्म एवं रहस्यको समझने और दूसरोको समझानेमे निपुण ) जैसे विद्वानोके लिये प्रयुक्त होता था। अतः यहां गमकत्व-जैसे गुणविशेषका ही वह द्योतक है। शेष सब विशेषण इस पद्यके द्वारा प्रायः नये ही प्रकाशमे आए है और उनसे ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोमे भी समन्तभद्रकी निपुणताका पता चलता है। रत्नकरण्डनावकाचारमे अगहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमे असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरनेमे न्यूनाक्षरमंत्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखो तथा ग्रन्थोमे 'स्वमन्त्रवचन-व्याहत-चन्द्रप्रमः'-जसे विशेषणोंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी आपके मन्त्र-विशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होनेका सूचक है। अथवा यो कहिये कि आपके 'मान्त्रिक' विशेषणसे अब उन सब कथनोकी यथार्थताको अच्छा पोषण मिलता है। इधर हवी शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचार्यने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थमे 'अष्टाङ्गमप्यखिलमत्र समन्तभद्रेः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैविशेषात्' इत्यादि पद्य(२०-८६) के द्वारा समन्तभद्रकी अष्टागवद्यक-विषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमे 'भिषक' विशेषण अच्छा सहायक जान पडता है।
अन्तके दो विशेषण 'आज्ञासिद्ध' और 'सिद्धसारस्वत तो बहुत ही महत्वपूर्ण है और उनसे स्वामी समन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आजाता है । इन विशेषणोको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते
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समन्तभद्र - परिचय
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हुए कहते है कि - 'हे राजन् । मै इस समुद्र - वलया पृथ्वी पर 'आज्ञासिद्ध' हू – जो आदेश दूँ वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय मै 'सिद्ध सारस्वत' हूँ – सरस्वती मुझे सिद्ध है । इस सरस्वतीकी सिद्धि अथवा वचनसिद्धिमं ही समन्तभद्रकी उस सफलताका सारा रहस्य सनिहित है जो स्थान स्थान पर वादघोषणाएँ करने पर उन्हे प्राप्त हुई थी और जिसका कुछ विवेचन ऊपर किया जा चुका है।
समन्तभद्र की वह सरस्वती ( वाग्देवी ) जिनवाणी माता थी, जिसकी अनेकान्तदृष्टि-द्वारा अनन्य - आराधना करके उन्होने अपनी वाणी मे वह अतिशय प्राप्त किया था जिसके आगे सभी नतमस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय - विद्वानोको उनकी आकर्षित किये हुए है ।
समन्तभद्र, श्रद्धा और गुणज्ञता दोनोको साथमं लिये हुए, बहुत बड़े अद्भक्त थे, अर्हद्गुणोकी प्रतिपादक सुन्दर सुन्दर स्तुतिया रचनकी ओर उनकी बडी रुचि थी और उन्होने स्तुतिविद्यामे 'सुस्तुत्यां व्यसन' वाक्यके द्वारा अपनेको वैसी स्तुतिया रचनेका व्यसन बतलाया है। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंमे अधिकांश ग्रन्थ स्तोत्रोके ही रूपको लिये हुए है और उनसे उनकी अद्वितीय अति प्रकट होती है । 'स्तुतिविद्या' को छोडकर स्वयम्भूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन तो आपके खास स्तुतिग्रन्थ हैं। इनमे जिस स्तोत्र - प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिन से कठिन तात्विक विवेचनोको योग्य स्थान दिया गया है वह समन्तभद्र से पहलेके ग्रन्थोमे प्रायः नही पाई जाती । समन्तभद्रने अपने स्तुतिग्रन्थोके द्वारा स्तुतिविद्याका खास तौर से उद्धार, सस्कार और विकास किया है, और इसी लिये वे 'स्तुतिकार'
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युक्त्यनुशासन
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कहलाते थे | उन्हे 'आद्यस्तुतिकार' होने का भी गौरव प्राप्त था ' । अपनी इस अद्भक्ति और लोकहितसाधनकी उत्कट भावनाओके कारण वे को इस भारतवर्ष मे 'तीर्थङ्कर' होनेवाले है, ऐसे भी कितने ही उल्लेख अनेक ग्रन्थोमे पाये जाते है । साथ ही ऐसे भी उल्लेख मिलत है जो उनके 'पर्दाद्धक' अथवा 'चाररणऋद्धि' से सम्पन्न होने के सूचक है ।
श्रीसमन्तभद्र 'स्वामी' पदसे खास तौरपर अभिभूषित थे और यह पद उनके नामका एक अंग ही बन गया था । इसीसे विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे कितने ही श्राचार्यों तथा पं० आशाधरजी जैसे विद्वानोने अनेक स्थानोपर केवल स्वामी' पदके प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है । निःसन्देह यह पद उस समयकी दृष्टिसे आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है। आप सचमुच ही विद्वानोके स्वामी थे, त्यागियो के स्वामी थे, तपस्वियोके स्वामी थे, योगियोके स्वामी थे, ऋषि-मुनियोके स्वामी थे, सद्गुणियोके स्वामी थे, सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियो के स्वामी थे। आपने अपने अवतारसे इस भारतभूमिको विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी में पवित्र किया है। आपके अवतार भारतका गौरव बढ़ा है और इसलिये श्री शुभचन्द्रासे चार्यने पाण्डवपुराणमे, आपको जो 'भारतभूषण' लिखा है वह सब तरह यथार्थ ही है ।
देहली
जुगलकिशोर मुख्तार
ता० ४-७-१६५१
१३ देखो, स्वामी समन्तभद्र पृ० ६६, ६२, ६१ ( फुटनोट )
४ आजकल तो 'कवि' और 'पण्डित' पदोकी तरह 'स्वामी' पदका
भी दुरुपयोग होने लगा है।
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विषय-सूची क्रमांक
विषय १ विशीर्ण-दोषाशय-पाश-बन्धादि विशेषण-विशिष्ट वीर___ जिनको अपना स्तुति-विषय बनानेकी कामना। १ २ लौकिक स्तुतिका स्वरूप और वैसी स्तुति करनेमे अपनी
सकारण असमर्थता, तब कैसे स्तुति करे यह विकल्प। २ ३ भक्तिवश धृष्टता धारण करके शक्तिके अनुरूप वाक्योको
लिए हुए स्तोता बननेकी अभिव्यक्ति और उसका कारण। ... ... ४ वीर-जिन अतुलित शान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिके उदयकी पराकाष्टाको प्राप्त हुए है, इसीसे ब्रह्मपथके नेता
और महान है, इतना बतलाने और सिद्ध करनेको अपनेमे सामर्थ्यकी घोषणा। .. .. ५ वीर-शासनमे एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका स्वामी होनेकी
शक्ति और उस शक्तिके अपवादका अन्तबाह्य कारण। ४ ६ वीर-शासनका दया-दम-त्यागादिरूप स्वरूप और उसके ।
अद्वितीयत्वकी विज्ञापना। ... ७ वीर-शासनका वस्तुतत्त्व परस्पर तन्त्रताको लिए हुए
अभेद-भेदात्मक है। अभेद और भेद दोनोको स्वतन्त्र माननेपर प्रत्येक आकाशके पुष्प-समान अवस्तु हो
जाता है। . ८ अन्य शासनानुसार समवायवृत्ति जब स्वयं अवृत्तिमती है तो उससे ससर्गकी हानि होती है-किसी भी पदार्थका सम्बन्ध एक दुसरेके साथ नही बनता-और ऐसा होनेसे
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युक्त्यनुशासन सकलार्थकी हानि ठहरती है-किसी भी पदार्थको तब
सत्ता अथवा व्यवस्था बन नही सकती। . ७ ६ पदार्थोंके सर्वथा नित्य मानने पर विकार नही बनता, विकारके न बननेसे कारक-व्यापार. कार्य, कार्ययुक्ति, बन्ध भोग और विमोक्ष कुछ भी नहीं बनते और इस
तरह अन्य शासन सब प्रकारसे दोषरूप ठहरता है। १० स्वभावसे विकारके माननपर क्रिया कारकके विभ्रमादि
रूप दोषापत्ति वादान्तरका प्रसंग और उसका न बन
सकना। .. ५१ अात्माके देहसे सर्वथा अभिन्न या भिन्नकी कल्पनाओमे
दोष देखकर जिन्होने आत्माको अज्ञेय माना है उनके
बन्ध और मोक्षकी कोई भी स्थिति नही बन सकती। १२ १२ बौद्धोका जो क्षणिकात्मवाद है उसका ज्ञापक कोई भी
दृष्ट या अदृष्ट हेतु नहीं बनता और सन्तानके सर्वथा
भिन्न होने पर वासना भी नहीं बन सकती। १३ सन्तान-भिन्न चित्तोमे कारण-कार्यभाव भी नहीं बन सकता। .
.. १४ १४ जो चित्तक्षण क्षण-विनश्वर निरन्वय माने गये है उन्हे किसके साथ समान कहकर कारण-कार्यभावकी कल्पना
की जा सकती है ? किसीके भी साथ वह नही बनती। १४ ५५ हेत्वपक्षी स्वभावके साथ समानरूप माननेपर भी
कारण-कार्यभाव घटित नही हो सकता, क्योकि कार्यचित्त सत् या असत् किसी भी रूपमे हेत्वपेक्ष नही बन
सकता। . १६ क्षणिकात्मवादमे सत् या असत्रूप कोई हेतु बनता ही
नहीं, वैसा माननेमे दोषापत्ति । नाश और उदयकी एकक्षणता भी सदोष है।
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विषय-सूची १७ पदार्थको प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक माननेपर कृत
कमके व्यर्थ नाशका तथा अकृतकमके फलभोगका प्रसंग
आएगा, कर्म भी अविचारित ठहरेगा, न कोई मार्ग युक्त रहेगा और न कोई ववक ही कहा जा सकेगा। १७ १८ क्षणिक एकचित्त-सस्थित बध-मोक्षकी व्यवस्था भी तत्र ।
नही बन सकेगी। .. १६ पूर्वोत्तर चित्तोमे एकत्वका आरोप करनेवाली सवृत्ति
यदि मृषा-स्वभावा है तो वह उक्त व्यवस्था करनेमे असमर्थ है और गौण-विधिरूपा है तो मुख्यके बिना गौणविधि बनती नहीं। अतः वीर-शासनकी दृष्टिसे भिन्न
बौद्ध-दृष्टि विभ्रान्तदृष्टि है। २० क्षण-क्षणमे पदार्थोंको निरन्वय-विनाशवान माननेपर
मातृघाती, स्वपति, स्वस्त्री, दिये हुए धनादिकको वापिसी, अधिगतकी स्मृति, "क्त्वा' प्रत्ययका अर्थ, कुल और
जाति, इनमे से किसीकी भी व्यवस्था नहीं बनती। १६ २१ शास्ता और शिष्यादिकी भी तब कोई विधि-व्यवस्था । नही बनती।
.. ..
२१ २२ यदि मातृघातीसे शिष्यादि-पर्यन्त इस सब विधि-व्यव
स्थाको विकल्पबुद्धि कहा जाय और सारी विकल्पबुद्धिको मिथ्या माना जाय तो यह सब व्यवस्था मी मिथ्या ठरतीहै। इसके सिवाय जो लोग अतत्त्व-तत्त्वके विकल्पमोहमे डूबे हुए है उन बौद्धोके यहां निर्विकल्प-बुद्धि बनती कौनसी है ? कोई भी नहीं। और विकल्पका आश्रय
लेनेसे सब कुछ मिथ्या ठहरता है। .. २१ २३ विज्ञानमात्र तत्त्वकी हेतुसे सिद्धि नही बनती। साध्य
साधन-बुद्धिको ही यदि विज्ञानमात्रता माना जाय तो उस बुद्धिके अनर्थिका और अर्थवती ऐसे दो विकल्प
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युक्त्यनुशासन
होनेसे दोनो के ही द्वारा उस तत्त्वकी प्रसिद्धि नही हो
सकती ।
२२
२४ नि. साधना सिद्धिका आश्रय लेकर विज्ञानमात्र' अथवा 'संवेदनाद्वैत' तत्त्वको योगिगम्य कहने से कोई काम नही चलता, उससे परवादियोको उस तत्त्वका प्रत्यय (बोध) नही कराया जा सकता ।
२३
२४
२५ जो (विज्ञानाद्वैत तत्त्व सकल - विकल्पोसे शून्य है वह 'स्वसंवेद्य' नही होता और जो सम्पूर्ण कथन - प्रकारोकी श्रयता से रहित है वह 'निगद्य' नही होता। ऐसा कथन अनेकान्तात्मक स्याद्वादकी उक्ति से बाह्य है और सुषुप्तिharat प्राप्त है । २६ जो लोग गूगेके स्वसंवेदनादिकी तरह उक्त तत्त्वको आत्मवेद्य, अभिलाप्य, अनंगसंज्ञ और परके द्वारा वेद्य बतलाते हैं वे अपने अवाच्य तत्त्वको स्वयं वाच्य बना रहे हैं ।
..
२७ 'शास्ता (बुद्ध) ने अनवद्य वचनोकी शिक्षा दी परन्तु उन वचनोसे उनके वे शिष्य शिक्षित नही हुए' यह कथन (बौद्धोका) दूसरा दुर्गतम अन्धकार है । वीर जिन जैसे शास्ताके बिना नि.श्रेयसका न बन सकना । २८ संवेदनाद्वैतकी प्रत्यक्षा तथा लैगिकी आदि कोई भी गति न होने से उसकी प्रतिपत्ति नही बनती ।
२६
२७
संवृति से सवेदनाद्वैतकी प्रतिपत्ति माननेमे बाधा । एकान्त सब परमार्थ
२७
शून्य है
२६ 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट विद्याको जन्म देनेमे दोषापत्ति ।
1
..
विद्या भाव्यमान हुई निश्चयसे समर्थ है' इस बौद्ध-मान्यतामे
२८
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विषय-सूची
३० सर्वथा शून्यवादी बौद्धोका विचित्र तथा असंगत
कथन और उसका कदर्थन । ३१ सर्वथा सामान्य-विशेष-भावसे रहित जो तत्त्व है वह
संपूर्ण अभिलापो तथा अर्थ-विकल्पोसे शून्य होने के
कारण आकाश-कुसुमके समान अवस्तु है। ३१ ३२ शून्य-स्वभावको अभावरूप सत्स्वभाव-तत्त्व मानकर
बन्ध-मोक्षकी उपायसे गति बतलाने आदिमे दोषापत्तिवैसा तत्त्व बनता ही नहीं।
३२ ३३ जो वाच्य यथार्थ होता है वह दूषणरूप नही होता। ३२ ३४ अनेकान्त-युक्तिसे द्वेष रखने वालोकी इस मान्यतापर
कि 'संपूर्ण तत्त्व अवाच्य है' उपेयतत्त्वकी तरह उपाय
तत्त्व भी सर्वथा अवाच्य हो जाता है। ३४ ३५ सर्वथा अवाच्यकी मान्यता होनेपर 'तत्त्व अवाच्य ही है। ऐसा कहना भी प्रतिज्ञाके विरुद्ध है, क्योकि इस
अवाच्य' पदमे ही वाच्यका भाव है, इत्यादि दोष। ३४ ३६ सत्याऽसत्यरूप वचन-व्यवस्था स्याद्वादके विना नहीं बन
सकती। ३७ विषयका अल्प-भूरि-भेद होनेपर असत्य भेदवान होता __ है-आत्मभेदसे नही इत्यादि तत्व-विवेचन। ३८ तत्त्व न तो सन्मात्र है और न असन्मात्र, तब कैसा
है ? उसका प्रतिपादन। .. .. ३७ ३६ प्रत्यक्षके निर्विकल्पक होनेसे प्रत्यक्ष-द्वारा निर्देशको प्राप्त
होनेवाला तत्त्व असिद्ध है, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है, उसका लक्षणार्थ भी नही बनता। . ३८ । पदार्थके अपरिणामी रूपसे अवस्थित रहनेपर कर्ता
और कार्य दोनो नही बनते, अतः अनेकान्तसे द्वेष रखने
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५४
युक्त्यनुशासन
वालोके यहां स्वर्गापवर्गादिककी प्राप्ति के लिये किया गया यम-नियमादिरूप सारा श्रम व्यर्थ है ।
३६
४१ चार्वाको सिद्धान्तका प्रदर्शन और उनकी प्रवृत्ति पर भारी खेदकी अभिव्यक्ति ।
४०
४२ जब चैतन्यको उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका हेतु अविशिष्ट देखा जाता है तब चार्वाको के प्राणी- प्राणीके प्रति कोई विशेषता नहीं बन सकती । विशेषताकी सिद्धि स्वभावसे माननेमे दोषापत्ति ।
४५
४३ ' जगतकी स्वभावसे स्वछन्दवृत्ति है, इस लिये हिसादिक महापापोमे भी कोई दोष नही है' ऐसी घोषणा करके जो लोग 'दीक्षासममुक्तिमान' बने हुए है वे विभ्रममे
४७
है । हुए ४४ प्रवृत्तिरक्त और शम-तुष्टि - रिक्तोके द्वारा हिंसाको जो अभ्युदयका अङ्ग मान लिया गया है वह बहुत बड़ा अज्ञानभाव है ।
४६
४५ जीवात्मा के लिये दुखके निमित्तभूत जो सिरकी बलि चढ़ाना आदिरूप कृत्य है उनके द्वारा देवोकी अराधना करके वे ही लोग सिद्ध बनते हैं जो सिद्धिके लिये आत्मदोष को दूर करनेकी अपेक्षा नहीं रखते सुखाभिगृद्ध है और जिनके वीरजिन ऋषि नही है । ४६ जो विविध विशेष हैं वे सब सामान्यनिष्ठ है । वर्णसमूरूप पद विशेषान्तरका पक्षपाती होता है और वह एक विशेषको मुख्यरूप से तो दूसरेको गौणरूप से प्राप्त कराता है । साथ ही, विशेशान्तरोके अन्तर्गत उसकी वृत्ति होनेसे दूसरे ( जात्यात्मक ) विशेषको सामान्यरूपमे भी प्राप्त कराता है ।
५२
...
...
...
४६
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विषय-सूची ४७ जो पद एवकारसे विशिष्ट है वह अस्मार्थसे स्वार्थको
जैसे अलग करता है वैसे सब स्वार्थपर्यायो-सामान्यो तथा स्वार्थ विशेषोको भी अलग करता है और इससे विरोधी की तरह प्रकृत पदार्थकी भी हानि ठहरती है। ५३ ४८ जो पद एवकारसे युक्त नहीं वह अनुक्ततुल्य है, व्यावृत्ति
का अभावादि उसके कारण और उनका स्पष्टीकरण । ५४ ४६ जो प्रतियोगीसे रहित है वह आत्महीन होता है
अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। ५४ ५० यदि अद्वैतवादियो और शून्यवादियोकी मान्यतानुसार
पदको अपने प्रतियोगी पदके साथ सर्वथा अभेदी कहा जाय तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उक्त पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी हो
जाता है। ५१ विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' शब्द है, जो गौणरूपसे
उसका द्योतन करता है और विपक्षभूत धर्मकी सन्धिरूप होता है, दोनो धर्मो मे अङ्गपना है और स्यात्पद उन्हे
जोड़नेवाला है। ... ५२ सर्वथा अवाच्यता प्रायस ( मोक्ष ) अथवा आत्महितके
लोपकी कारण है। ५३ शास्त्रमे और लोकमे जो स्यात्पदका अप्रयोग है उसका
कारण उस प्रकारका प्रतिज्ञाशय है अथवा स्याद्वादियोके
यहा प्रतिषेधकी युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित हो जाती है। ५८ ५४ वीरजिनकी अनेकान्तदृष्टि एकान्तवाढियोके द्वारा बाधि
त न होनेवाली तथा उनके मान्य सिद्धान्तोको बाधा
पहुंचानेवाली है। ५५ विधि, निषेध और अवक्तव्यतादिरूप सात विकल्प
(सप्तभङ्ग) संपूर्ण जीवादितत्त्वार्थ-पर्यायोमे घटित होते
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युक्त्यनुशासन
हैं और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्दके द्वारा नेतृत्वको प्राप्त है ।
६०
५६ 'स्यात्' शब्द भी नयोके आदेश से गौण और मुख्य-स्वभावोके द्वारा कल्पित किये हुए एकान्तोको लिये रहता है अन्यथा नही, क्योकि वह यथोपाधि - विशेषणानुसार - विशेषका - धर्मान्तरक' - द्योतक होता है ।
६१
५७ तत्व तो अनेकान्तात्मक है, अनेकान्त भी अशेषरूपको लिये हुए अनेकान्तरूप है और वह दो प्रकार से व्यवस्थित है - एक द्रव्यरूप भवार्थवान् होनेसे और दूसरे पर्यायरूप व्यवहारवान् होनेसे ।
६२
५८ सर्वथा द्रव्यकी तथा सर्वथा पर्यायकी कोई व्यवस्था नही बनती और न सर्वथा पृथग्भूत (परस्परनिरपेक्ष ) द्रव्य-पर्यायकी पुगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है।
६२
५६ यदि सर्वथा द्वयात्मक एक तत्त्व माना जाय तो यह सर्वथा द्वयात्मकता एकत्वके साथ विरुद्ध पड़ती है ।
६२
६३
६० वीरजिनके शासनमे ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म ( पर्याय ) दोनो सर्वथारूपसे भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न माने गये है और इसलिये (सर्वथा) विरुद्ध नही है । ६१ प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थ से प्ररूपण है उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते हैं, वही वीरशासन मान्य है ।
६४
६२ अर्थका रूप प्रतिक्षण स्थिति, उदय ( उत्पाद) और व्ययरूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योकि वह सत्रूप है ६४ ६३ वीर - शासन मे जो वस्तु एकरूप है वह अनेकरूपताका और जो अनेकरूप है वह एकरूपताका त्याग नहीं करती, तभी वस्तुरूपसे व्यवस्थित होती है, अन्यथा नही ।
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विषय-सूची और जो वस्तु अनन्तरूप है वह अग-अङ्गीभावके कारण क्रमसे वचन-गोचर है। ६४ वस्तुके जो अंश (धर्म) परस्पर निरपेक्ष हैं वे पुरुषार्थके हेतु नही किन्तु सापेक्ष ही पुरुषार्थके हेतु हो सकते हैं। अंशी (धर्मी) अंशोसे पृथक नही है। • ६६
अश-अशीकी तरह परस्पर-सापेक्ष नय भी पुरुषार्थके हेतु देखे जाते है। .
६७ ६५ जो राग-द्वेषादिक मनकी समताका निराकरण करते हैं
वे एकान्तधर्माभिनिवेशमूलक होते हैं और मोही जीवोके अहकार-ममकारसे उत्पन्न होते हैं। एकान्तकी हानिसे एकान्ताभिनिवेशके अभावरूप जो सम्यग्दर्शन है वह आत्माका स्वाभाविक रूप है, अतः वीर-शासनमे अनेकान्तवादी सम्यग्दृष्टिके मनका समत्व ठीक घटित होता है। उसमे बाधाकी कोई बात नहीं।
६८ ६६ जो प्रतिपक्षदूषी है वह वीर जिनके एकाऽनेकरूपता-जैसे
पटुसिहनादोसे प्रमुक्त ही किया जाता है, क्योकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्तका प्रमोचन है। बन्ध और मोक्ष दोनो ज्ञातात्म-वृत्ति होनेसे वीरके अनेकान्त-शासनसे बाह्म नही है।
७० ६७ आत्मान्तरके अभावरूप जो ममानता अपने आप्रयरूप
भेदोसे हीन है वह वचनगोचर नहीं होती। ६८ सामान्य और विशेष दोनोकी एकरूपता स्वीकार करने
पर एकके निरात्म (अभाव ) होनेपर दूसरा भी निरात्म हो जाता है।
• ७२ ६६ जो अमेय है और अश्लिष्ट है वह सामान्य अप्रमेय
ही है। भेदके माननेपर भी यह सामान्य प्रमेय नही
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युक्त्यनुशासन
होता, क्योकि उन द्रव्यादिको के साथ उसकी वृत्ति मानी
नहीं गई ।
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७० यदि सामान्यकी द्रव्यादि वस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो कृत्स्न ( निरश ) विकल्परूप मानकर बनती है और न अशविकल्परूप | ७१ जो एक अनन्त व्यक्तियोके समाश्रयरूप है उस एक ( सत्ता महा सामान्य) के ग्राहक प्रमाणका अभाव है । ७२ नाना सत्पदार्थो का एक आत्मा ही जिसका समाश्रय है एसा सामान्य यदि ( सामान्यवादियोके द्वारा ) मना जाय और उसे ही प्रमाणका विषय बतलाया जाय तो ऐसी मान्यतावाले सामान्यवादियोसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह सामान्य अपने व्यक्तियोसे अन्य है या अनन्य ? दोनो ही उत्तरोमे दोषापत्ति । ७३ यदि सामान्यको अवस्तु ही इष्ट किया जाय और उसे विकल्पोसे शून्य माना जाय तो उस अवस्तुभूत सामान्यके अप्रमेय होनेपर प्रमाणकी प्रवृत्ति कहा होती है । . उसकी कोई व्यवस्था नही बन सकती । ७४ यदि साध्यको व्यावृत्तिहीन अन्वयसे सिद्ध माना जाय तो वह सिद्ध नहीं होता । यदि अन्वयहीन व्यावृत्ति से साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह भी नही बनता । ७६
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७५ यदि अन्वय और व्यावृत्ति दोनोसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका प्रतिभासन होनेसे सत्ताद्वैतरूप सामान्यकी सिद्धि होती है, ऐसा कहा जाय तो यह कहना भी ठीक नही है ।
७६ यदि द्वयको संवित्तिमात्र के रूप में मानकर असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्य - व्यावृत्तिसे साध्यको
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विषय-सूची
अतद्व्युदासाभिनिवेशवादके रूपमे आश्रित किया जाय तब भी ( बौद्धांके मतमे) पराभ्युयेतार्थके विरोधवादका प्रसग आता है ।
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७७ बौद्धोके अनात्मा ( अवास्तविक ) साधनके द्वारा उसी प्रकार के अनात्मसाध्यकी जो गति - जानकारी है उसकी सर्वथा अयुक्ति है - वह बनती ही नही ।
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७८ यदि वस्तु मे अनात्मसाधनके द्वारा अनात्मसाध्यकी गतिकी युक्तिसे पक्षकी सिद्धि मानी जाय तो अवस्तुमे साधन - साध्य की युक्ति से प्रतिपक्ष - द्वैतकी - भी सिद्धि ठहरती है ।
७६ यदि साधनके बिना स्वतः ही सवेदनाद्वैतरूप साध्यकी सिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नही - तब पुरुषाद्वेतकी भी सिद्धिका प्रसंग आता है।
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८० इस प्रकार जिन वैतसिडकोने कुसृतिका प्रणयन किया है उन वीरशासनकी दृष्टिसे प्रमूढ एवं निर्भेदके भयसे अनभिज्ञ जनाने परघातक कुल्हाडेको अपने ही मस्तकपर मारा है ||
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८१ वीरशासनानुसार अभाव भी वस्तुधर्म होता है। यदि वह अभाव धर्मका न होकर धर्मीका हो तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है । और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाण से जाना जाता है, व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु व्यस्था के रूपमे निर्दिष्ट किया जाता है। जो अभाव ( सर्वशून्यता ) वस्तुव्यवस्थाका नही है वह अमेय ही है- किसी भी प्रमाणके गोचर नही है ।
८२ विशेष और सामान्यको लिये हुए जो भेद हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोका विधायक वाक्य होता है । वीरके
二つ
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युक्त्यनुशासन
स्याद्वाद-शासनमे अभेदबुद्धिसे अविशिष्टता और भेद
बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होता है। ८३ वारका अनेकान्त-शासन ही 'सर्वोदयतीर्थ' है, वह गौण
तथा मुख्यकी कल्पनाको लिये हुए सर्वान्तवान् ( अशेषधर्मोका आश्रय), सर्व आपदाओका अन्त करनेवाला और स्वयं निरन्त है। ना ।
•
८२ ८४ जो शासन-वाक्य धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रति
पादन नही करता वह सब धर्मोसे शून्य होता है। ८३ ८५ वीरके शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला
भी यदि समदृष्टि हुआ उपपत्तिचतुसे वीरके द्वारा प्रतिपादिन इष्ठतत्त्वका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खण्डित हा जाता है
और वह अभद्र होता हुआ भी सब ओरसे भद्र एव
सम्यग्दृष्टि बन जाता है। . . ८६ वीरके प्रति राग और दूसरोके प्रति द्वेष इस सोत्र
की उत्पत्तिका कोई हेतु नही । यह उन लोगोके उद्देश्यसे, वीरजिनकी गुणकथाके साथ, निर्मित हुआ है जो न्यायअन्यायको पहचानना चाहते है और गुण-दोषको जाननेकी जिनकी इच्छा है। उनके लिए यह ग्रन्थ 'हितान्वेषणके उपायस्वरूप' है।
८४ ८७ शक्तिके अनुरूप स्तुत वीरजिनेन्द्रसे अपने प्रतिनिधि
रहित मार्गमे और भी अधिक भक्तिको चरितार्थ करनेकी प्रार्थना अथवा भावनाके साथ ग्रन्थकी समाप्ति ।
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श्रीसमन्तभद्राय नमः •
श्रीमत्स्वामि- समन्तभद्राचार्यवर्य-प्रणीत
( श्री वीरजिन - गुणकथा - सहकृत ) हिताऽन्वेषणोपायभूत
युक्तयनुश सन
हिन्दी अनुवादादि सहित
कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति-गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश- बन्धम् ॥१॥
'हे वोरजिन ' - इस युगके अन्तिम तीर्थप्रवर्त्तक परमदेव - दोषों प्रौर दोषाऽऽशयोंके पाश-बन्धनसे विमुक्त हुए है - श्रपने ज्ञानप्रदर्शन - राग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारों अर्थात् विभावपरिणामरूप
कर्मों और इन दोषात्मक भावकमो के सस्कारक कारणो अर्थात् ज्ञानावरणर्शनावरण- मोहनीय - श्रन्तरायरूप द्रव्यकर्मों के जालको छिन्न-भिन्न कर
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समन्तमद्र-भारती
का०२
स्वतन्त्रता प्राप्त की है-, आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान (प्रवृद्धप्रमाण) हैं-आपका तत्त्वज्ञानरूप प्रमाण (केवलज्ञान) स्याद्वाद-नयसे सस्कृत होनेके कारण प्रवृद्ध है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट एव अबाध्य है-और (इस प्रवृद्धप्रमाणके कारण) आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान है--जीवादितत्त्वाथोका कीर्तन (सम्यग्दर्शन) करनेवाली युक्ति-शास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणीसे साक्षात् समवसरणकी भूमिपर तथा परम्परासे परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बडे, ऊँच-नीच, निकटवर्ती-दूरवर्ती तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर-अपर परीक्षकजनोके मनोका सशयादिके निरसनद्वारा पुष्ट एव व्याप्त करते हुए आप वृद्धि-व्याप्तिको प्राप्त हुए है--सदा सर्वत्र और सबोके लिये 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्' के रूप में अवस्थित है, यह बात परीक्षा-द्वारा सिद्ध हो चुकी है। (अत.) अब-परीक्षाऽवसानके समय अर्थात् ( प्राप्तमीमासाके द्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्त्व हेतुसे परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि आप विशीर्ण-दोषाशय-पाशबन्धत्वादि तीन असाधारण गुणो (कर्मभेत्तृत्व, सर्वजत्व, परमहितोपदेशकत्व) से विशिष्ट है-आपको स्तुतिगोचर मानकर-स्तुतिका विषयभूत प्राप्तपुरुष स्वीकार करके-हम-परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन-आपको अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते हैं-आपकी स्तुति करनेमे प्रवृत्त होना चाहते है।'
याथात्म्यमुल्लंध्य गुणोदयाऽऽख्या लोके स्तुतिभूरि-गुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो
वक्त जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥२॥ _ 'यथार्थताका-यथावस्थित स्वभावका-उल्लघन करके गुणोंकेचौरासी लाख गुणोमेसे किसीके भी-उदय-उत्कर्षकी जो आख्या-कथनी है-बढा चढाकर कहनेकी पद्धति है-उसे लोकमे 'स्तुति' कहते है। परन्तु हे वीरजिन | आप भूरिगुणोदधि है-अनन्तगुणोके समुद्र है-और उस गुणसमुद्रके सूक्ष्मसे सूक्ष्म अ शका भी हम (पूरे
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का०४
युक्तयनुशासन तौरसे ) कथन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं-बढा-चढा कर कहनेकी तो बात ही दूर है। अत. वह स्तुति तो हमसे बन नहीं सकती, तब हम छद्मस्थजन ( कोई भी उपमान न देखते हुए ) किस तरहसे आपकी स्तुति करके स्तोता बने, यह कुछ समझमे नहीं आता।"
तथापि वैय्यात्यमुपेत्य •भक्त्या स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति
किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥ ( यद्यपि हम छद्मस्थजन आपके छोटे-से-छोटे गुणका भी पूरा वर्णन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं ) तो भी मैं भक्तिके वश धृष्टता धारण करके शक्तिके अनुरूप वाक्योंको लिये हुए आपका स्तोता बना हूँआपकी स्तुति करनेमे प्रवृत्त हुआ हूँ। किसी वस्तु के इष्ट होनेपर क्या पुरुषार्थीजन अपनी शक्तिके अनुसार क्रियाओ-प्रयत्नो-द्वारा उसकी प्राप्तिके लिये उत्साहित एव प्रवृत्त नहीं होते ?--होते ही है। तदनुसार ही मेरी यह प्रवृत्ति है-मुझे आपकी स्तुति इष्ट है।'
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुला-व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम् । अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता
महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥ 'हे वीरजिन आप ( अपनी साधनाद्वारा) शुद्धि और शक्तिके उदय-उत्कर्षकी उस काष्ठाको-परमावस्था अथवा चरमसीमाको-प्राप्त हुए है जो उपमा-रहित है और शान्ति-सुख-स्वरूप है-श्रापमे ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप कर्ममलके क्षयसे अनुपमेय निर्मल ज्ञान-दर्शनका तथा अन्तरायकर्मके अभावसे अनन्तवीर्यका आविर्भाव हुआ है, और यह
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समन्तभद्र-भारती
का०६ सब आत्म-विकास मोहनीयकर्मके पूर्णत. विनाश-पूर्वक होनेसे उस विनाशसे उत्पन्न होनेवाले परम शान्तिमय सुखको साथमे लिये हुए है। (इसीसे ) आप ब्रह्मपथके-श्रात्मविकास-पद्धति अथवा मोक्ष-मार्गके-नेता हैंअपने आदर्श एव उपदेशादि-द्वारा दूसरोको उस आत्मविकासके मार्गपर लगानेवाले हैं और महान है-पूज्य परमात्मा है-,इतना कहने अथवा दूसरोंको सिद्ध करके बतलाने के लिये हम समर्थ है।'
कालः कलिर्वा कलुषाऽऽशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाऽनयो वा। त्वच्छासनैकाधिपतित्व-लक्ष्मी
प्रभुत्व-शक्तेरपवाद-हेतुः ॥॥ '( इस तरह आपके महान् होते हुए, हे वोरजिन | )आपके शासनमे-अनेकान्तात्मक मतमे- (नि.श्रेयस और अभ्युदयरूप लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण होनेसे) एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका-सभी अर्थ-क्रियार्थिजनोके द्वारा अवश्य प्राश्रयनीयरूप सम्पत्तिका-स्वामी होनेकी जो शक्ति है-आगमान्विता युक्तिके रूपमे मामर्थ्य है-उसके अपवादकाएकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका कारण ( वर्तमानमे ) एकतो कलिकाल है-जो कि साधारण बाह्य कारण है, दूसरा प्रवक्ताका वचनाsनय है-श्राचार्यादि प्रवक्तवर्गका प्राय. अप्रशस्त-निरपेक्ष नयके साथ वचनव्यवहार है अर्थात् सम्यक्नय-विवक्षाको लिये हुए उपदेशका न देना है-जो कि असाधारण बाह्य कारण है, और तीसरा श्रोताका-श्रावकादि-श्रोतृवर्गका कलुषित आशय है-दर्शनमोहसे प्राय आक्रान्त चित्त है-जोकि अन्तरग कारण है।'
दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् ।
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का० ७
युक्त्यनुशासन
NA
अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवाद
र्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥ 'हे वीरजिन | आपका मत--अनेकान्तात्मक शासन-दया (अहिंसा ), दम ( सयम ), त्याग ( परिग्रह-त्यजन) और समाधि ( प्रशस्तध्यान ) को निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है-पूर्णत. अथवा देशत. प्राणिहिंसासे निवृत्ति तथा परोपकारमे प्रवृत्तिरूप वह दयाव्रत जिसमे असत्यादिसे विरक्तिरूप सत्यव्रतादिका अन्तर्भाव ( समावेश ) है, मनोज्ञ और अमनोज इन्द्रिय-विषयोमे राग-द्वेषकी निवृत्तिरूप सयम, बाह्य और श्राभ्यन्तर परिग्रहोका स्वेच्छासे त्यजन अथवा दान, और धर्म तथा शुक्लध्यानका अनुष्ठान, ये चारो उसके प्रधान लक्ष्य हैं। (साथ ही) नयो तथा प्रमाणोके द्वारा (असम्भवबाधकविषय-स्वरूप ) सम्यक् वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट (सुनिश्चित) करनेवाला है और ( नेकान्तवाटसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंसे अवाध्य है-दर्शनमोहोदयके वशीभूत हुए सर्वथा एकान्तवादियोके द्वारा प्रकल्पित वादोमेसे कोई भी वाद ( स्वभावसे मिथ्यावाद होनेके कारण ) उसके ( सम्यग्वादात्मक ) विषयको बाधित अथवा दूषित करनेके लिये समर्थ नही है---( यही सब उसकी विशेषता है और इसीलिये वह ) अद्वितीय है-अकेला ही सर्वाधिनायक होनेकी क्षमता रखता है।
अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वं तव स्वतन्त्राऽन्यतरत्ख-पुष्पम् । अवृत्तिमत्वात्समवाय-वृत्तेः
संसर्गहानेः सकलाऽर्थ-हानिः ॥७॥ ( हे वीरभगवन् । ) आपका अर्थतत्त्व-आपके द्वारा मान्य-प्रतिपादित अथवा आपके शासनमे वर्णित जीवादि वस्तुतत्त्व-अभेद-भेदा
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समन्तभद्र-भारती
का०७
त्मक है-परस्परतन्त्रता ( अपेक्षा, दृष्टिविशेष) को लिये हुए अभेद
और भेद दोनो रूप है अर्थात् कथञ्चित् द्रव्य पर्यायरूप, कथञ्चित् सामान्यविशेषरूप, कथञ्चित् एकाऽनेकरूप और कथञ्चित् नित्याऽनित्यरूप है, न सर्वथा अभेदरूप (द्रव्य, सामान्य, एक अथवा नित्यरूप ) है, न सर्वथा भेदरूप ( पर्याय, विशेष, अनेक अथवा अनित्यरूप ) है और न सर्वथा उभयरूप ( परस्परनिरपेक्ष द्रव्य-पर्यायमात्र, सामान्य-विशेषमात्र, एकअनेकमात्र अथवा नित्य-अनित्यमात्र) है। अभेदात्मकतत्त्व (द्रव्यादिक)
और भेदात्मकतत्त्व (पर्यायादिक) दोनोको स्वतन्त्र-पारस्परिक तन्त्रतासे रहित सर्वथा निरपेक्ष-स्वीकार करनेपर प्रत्येक-द्रव्य, पर्याय तथा उभय, सामान्य, विशेष तथा उभय, एक, अनेक तथा उभय, और नित्य, अनित्य तथा उभय-आकाशके पुष्प-समान (अवस्तु) हो जाता है-प्रतीयमान (प्रतीतिका विषय ) न हो सकनेसे किसीका भी तब अस्तित्व नहीं बनता।'
(इसपर यदि यह कहा जाय कि स्वतन्त्र एक द्रव्य प्रत्यक्षादिरूपसे उपलन्यमान न होनेके कारण क्षणिकपर्यायकी तरह आकाश-कुसुमके समान अवस्तु है सो तो ठीक, परन्तु उभय तो द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषसामावायरूप सत् तत्त्व है और प्रागभाव-प्रध्वसाभाव-अन्योन्याभाव-अत्यताभावरूप असत् तत्त्वहै, वह उनके स्वतन्त्र रहते हुएभी कैसे आकाशके पुष्पसमान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि-ज्ञानविशेषका विषय सर्वजनोमे सुप्रसिद्ध है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि कारणद्रव्य (अवयव )-कार्यद्रव्य (अवयवी) की, गुण-गुणीकी, कर्म-कर्मवान्की समवाय-समवायवान्की एक दूसरेसे स्वतन्त्र पदार्थके रूपमे एक वार भी प्रतीति नही होती । वस्तुतत्व इससे विलक्षण-जात्यन्तर अथवा विजातीय-है और वह सदा सबोको अवयव-अवयवीरूप, गुण-गुणीरूप, कर्म-कर्मवान्रूप तथा सामान्य-विशेषरूप प्रत्यक्षादि-प्रमाणोसे निर्बाध प्रतिभासित होता है।)
(यदि वैशेषिक-मतानुसार पदाथोको-द्रव्य गुण, कर्म, सामान्य,
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का० ७
युक्तयनुशासन
विशेष और समवाय इन छहों को - सर्वथा स्वतन्त्र मानकर यह कहा जाय कि समवाय- वृत्ति से शेष सब पदार्थ वृत्तिमान् है अर्थात् समवाय नामके स्वतन्त्र पदार्थ-द्वारा वे सब परस्परमे सम्बन्धको प्राप्त है, तो ) समवायवृत्तिके अवृत्तिमती होनेसे - समवाय नामके स्वतन्त्र पदार्थका दूसरे पदार्थोके साथ स्वयका कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण उसे स्वय असम्बन्धवान् माननेसे - ससर्गकी हानि होती है— किसी भी पदार्थका सम्पर्क
१
७
१ समवाय पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योकि सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है— एक सयोग सम्बन्ध, दूसरा समवाय सम्बन्ध और तीसरा विशेषण - विशेष्यभाव-सम्बन्ध | पहला सयोग सम्बन्ध इसलिये नहीं बनता, क्योकि उसकी वृत्ति द्रव्यमें मानी गई है - द्रव्योंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थोंमे वह घटित नहीं होतीऔर समवाय द्रव्य है नहीं, इसलिये सयोगसम्बन्धके साथ उसका योग नहीं भिड़ता । यदि श्रद्रव्यरूप समवाय मे सयोगकी वृत्ति मानी जायगी तो वह गुण नहीं बन सकेगा और वैशेषिक मान्यता के विरुद्ध पडेगा, क्योकि वैशेषिकमतमे संयोगको भी एक गुण माना है और उसको द्रव्याश्रित बतलाया है । दूसरा समवाय- सम्बन्ध इसलिये नहीं बन सकेगा, क्योकि वह समवायान्तरकी अपेक्षा रक्खेगा और एकके अतिरिक्त दूसरा समवाय पदार्थ वैशेषिकोने माना नही है । और तीसरा विशेषण- विशेष्यभाव-सम्बन्ध इसलिये घटित नहीं होता, क्योकि वह स्वतन्त्र पदार्थों का विषय ही नही है । यदि उसे स्वतन्त्र पदार्थों का विषय माना जायगा तो प्रसग दोष आएगा और तब सह्याचल (पश्चिमीघाटका एक भाग) तथा विन्ध्याचल जैसे स्वतन्त्र पर्वतोमें भी विशेषण- विशेष्य-भावका सम्बन्ध घटित करना होगा, जो नही हो सकता । विशेषण विशेष्यभावसम्बन्धी यदि पदार्थान्तरके रूपमें सभावना की जाय तो वह सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा विना नहीं बनता और दूसरे सम्बन्धकी अपेक्षा लेनेपर अनवस्था दोष आता है। इस तरह तीनोमे से कोई भी सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता ।
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समन्तभद्र-भारती
का०८
अथवा सम्बन्ध एक दूसरेके साथ नही बनता । समवाय-समवायिकी तरह असस्पृष्ट पदार्थोंके समवायवृत्तिसे ससर्गकी कल्पना न करके, पदाथोके अन्योऽन्य-ससर्ग ( एक दूसरेके साथ सम्बन्ध ) को स्वभावसिद्ध माननेपर स्याद्वाद शासनका ही आश्रय होजाता है, क्योकि स्वभावसे ही द्रव्यका सभी गुण-कर्म-सामान्य-विशेषोके साथ कथञ्चित् तादात्म्यका अनुभव करने वाले ज्ञानविशेषके वशसे यह द्रव्य है, यह गुण है, यह कर्म है, यह सामान्य है, यह विशेष है और यह उनका अविश्वग्भावरूप (अपृथग्भूत ) समवाय-सम्बन्ध है, इस प्रकार भेद करके सन्नयनिबन्धन (समीचीन नयव्यवस्थाको लिये हुए) व्यवहार प्रवर्तता है और उससे अनेकान्तमत प्रसिद्ध होता है, जो वैशेषिकोको इष्ट नहीं है और इसलिये वैशेषिकोके मतमे स्वभावसिद्ध ससर्गके भी न बन सकनेसे ससर्गकी हानि ही ठहरती है ।
और संसर्गकी हानि होनेसे-पदाथोका परस्परमे स्वत. (स्वभावसे)अथवा परत. (दूसरेके निमित्तसे ) कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण-सपूर्ण पदार्थोकी हानि ठहरती है किसी भी पदार्थकी तब सत्ता अथवा व्यवस्था बन नही सकती।-अत• जो लोग इस हानिको नहीं चाहते उन
आस्तिकोके द्वारा वही वस्तुतत्त्व समर्थनीय है जो अभेद-भेदात्मक है, परस्पर तन्त्र है, प्रतीतिका विषय है तथा अर्थक्रियामें समर्थ है और इसलिये जिसमे विरोधके लिये कोई अवकाश नही है । वह वस्तुतत्त्व हे वीरजिन !
आपके मतमें प्रतिष्ठित है, इसीसे आपका मत अद्वितीय है-नयो तथा प्रमाणोके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला और दूसरे सभी प्रवादो ( सर्वथा एकान्तवादो ) से अबाध्य होनेके कारण सुव्यवस्थित है-दूसरा (सव था एकान्तवादका आश्रय लेनेवाला) कोई भी मत व्यवस्थित न होनेसे उसके जोडका, सानी अथवा समान नहीं है, वह अपना उदाहरण आप है।
भावेषु नित्येषु विकारहानेनं कारक-व्यापृत-कार्य-युक्तिः ।
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का० ६
युक्तयनुशासन
न बन्ध-भोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम् ॥ ८ ॥
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'सत्तात्मक पदार्थोंको - दिक्-काल - श्राकाश - आमाको, - पृथिव्यादि - परमाणु - द्रव्योका, परम - महत्त्वादि गुणोको तथा सामान्य- विशेष - समवायको - ( सर्वथा ) नित्य माननेपर उनमे विकारकी हानि होती हैकोई भी प्रकारकी विक्रिया नही बन सकती — विकारकी हानि से कर्त्तादि कारकोका ( जो क्रियाविशिष्ट द्रव्य प्रसिद्ध है उनका ) व्यापार नही बन सकता, कारक - व्यापार के अभाव मे ( द्रव्य-गुण-कर्मरूप ) कार्य नही बन सकता, और कार्य के अभावमे ( कार्यलिगात्मक श्रनुमानरूप तथा योग-सम्बन्ध-ससर्गरूप ) युक्ति घटित नही हो सकती । युक्तिके अभाव मे बन्ध तथा ( बन्ध - फलानुभवनरूप ) भोग दोनों नहीं बन सकते और न उनका विमोक्ष ही बन सकता है, क्योंकि विमोक्ष बन्धपूर्वक ही होना है, बन्धके प्रभावमे मोक्ष कैसा ? इस तरह पूर्व- पूर्वके अभाव मे उत्तरोत्तरकी व्यवस्था न बन सकनेसे सपूर्ण भावात्मक पदाथोकी हानि ठहरती है— किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती । और जब भावात्मक पदार्थ ही व्यवस्थित नही होते तब प्रागभाव - प्रध्वसाभावादि भावात्मक पदार्थोकी व्यवस्था तो कैसे बन सकती है ? क्योकि वे भावात्मक पदार्थोके विशेषण होते है, स्वतत्ररूप से उनकी कोई सत्ता ही नही है । अतः ( हे वीरजिन ! ) आपके मतसे भिन्न दूसरों का - सर्वथा एकान्तवादी वैशेषिक, नैयायिक मीमासक तथा साख्य श्रादिका - मत ( शासन) सब प्रकार से दोषरूप है— देश, काल और पुरुषविशेष की अपेक्षासे भी प्रत्यक्ष, अनुमान तथा श्रागम गम्य सभी स्थानोमे बाधित है ।"
स्वभाव
अहेतुकत्व प्रथितः स्तस्मिन् क्रिया-कारक - विभ्रमः स्यात् । बाल-सिद्ध विविधार्थ-सिद्धिर्वादान्तरं किं तदसूयतां ते ॥६॥
ε
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समन्तभद्र-भारती
का०६
( यदि यह कहा जाय कि आस्मादि नित्य द्रव्योमे स्वभावसे ही विकार सिद्ध है अत. कारकव्यापार, कार्य और कार्ययुक्ति सब ठीक घटित होते है,
और इस तरह सकल दोष असभव ठहरते हैं-कोई भी दोषापत्ति नही बन सकती, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित ( प्रसिद्ध ) है अथवा आबाल-सिद्धिसे विविधार्थ-सिद्धिके रूपमे प्रथित है ? (उत्तरमे) यदि यह कहा जाय कि नित्य पदार्थोमें विकारी होनेका स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित है तो ऐसी दशामे क्रिया और कारकका विभ्रम ठहरता है-स्वभावसे ही पदाथोका ज्ञान तथा आविर्भाव होनेसे ज्ञप्ति तथा उत्पत्तिरूप जो प्रतीयमान क्रिया है उसके भ्रान्तिरूप होने का प्रमग आता है, अन्यथा स्वभावके निर्हेतुकत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और क्रियाके विभ्रमसे प्रतिभासमान कारक-समूह भी विभ्रमरूप हो जाता है, क्योकि क्रियाविशिष्ट द्रव्यका नाम 'कारका प्रसिद्ध है, क्रियासे कारककी उत्पत्ति नहीं। और स्वभाववादीके द्वारा क्रिया कारकका विभ्रम मान्य नहीं किया जा सकता-विभ्रमकी मान्यतापर वादान्तरका प्रसग आता है-सर्वथा स्वभाववाद स्थिर न रहकर एक नया विभ्रमवाद और खड़ा हो जाता है । परन्तु (हे वीरजिन I ) क्या आपसेआपके स्याद्वाद-शासनसे-द्वेष रखनेवालेके यहाँ यह वादान्तर बनता है ?-नही बनता, क्योकि 'सब कुछ विभ्रम है' ऐसा एकान्तरूप वादान्तर स्वीकार करनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस विभ्रममें अविभ्रमअभ्रान्ति है या वह भी विभ्रम-भ्रान्तिरूप है ? यदि अविभ्रम है तो विभ्रमएकान्त न रहा-अविभ्रम भी कोई पदार्थ ठहरा। और यदि विभ्रममे भी विभ्रम है तो सर्वत्र अभ्रान्तिकी सिद्धि हुई, क्योकि विभ्रममें विभ्रम होनेसे वास्तविक स्वरूपकी प्रतिष्ठा होती है । और ऐसी हालतमे स्वभावके निर्हेतुकत्वकी सिद्धि नहीं हो सकती।'
_ 'यदि यह कहा जाय कि ( विना किसी हेतुके नही किन्तु ) आबालसिद्धिरूप हेतुसे विविधार्थकी-सर्वथा नित्य पदाशीमे विक्रिया तथा कारक-व्यापारादिकी-सिद्धिके रूपमे स्वभाव प्रथित (प्रसिद्ध ) है
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का० १०
युक्तयनुशासन
अर्थात् क्रिया-कारकादिरूप जो विविध अर्थ है उन्हे बालक तक भी स्वीकार करते है इसलिये वे सिद्ध है और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है तो यह वादान्तर हुआ, परन्तु यह वादान्तर भी ( हे वीर भगवन् । ) आपके द्वेषियोके यहाँ बनता कहाँ है ?-क्योकि वह आबाल-सिद्धिसे होनेवाली निर्णीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेनेपर नहीं बन सकती, जिससे सब पदाथा सब कायो और सब कारणोकी सिद्धि होती। कारण यह कि वह निर्णीति अनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नही, इसलिये सर्वथानित्य एकान्तके साथ घटित नही हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकने पर दूसरोके पूछने अथवा दूषणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका अवलम्बन ले लेना युक्त नहीं है,क्योकि इससे अतिप्रसग आता है- प्रकृतसे अन्यत्र विपक्षमे भी यह घटित होता है । सर्वथा अनित्य अथवा क्षणिक एकान्तको सिद्ध करनेके लिये भी स्वभाव-एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है। और यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमागोकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिद्धिरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव-एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है ? , क्योकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है, उसका प्रत्यक्षादि प्रमाणोके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव-एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन | आपके अनेकान्तशासनसे विरोध रखनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर (एकके साथ दूसरा वाद ) बन नहीं सकता-वादान्तर ता सम्यक् एकान्तके रूपमे आपके मित्रो-सपक्षियो अथवा अनेकान्तवा देयोके यहाँ ही घटित होता है ।'
येषामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्त्व देहादनन्यत्व-पृथक्त्व-कलप्तेः । तेषां ज्ञ-नत्त्वेऽनवधार्यतत्त्वे का बन्ध-मोक्ष-स्थितिरप्रमेये ॥१०॥
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१३
समन्तभद्र-भारती
का० १० 'नित्य आत्मा देहसे ( सर्वथा ) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (और अभिन्नत्व तथा भिन्नत्व दोनोमेसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे' ) जिन्होंने आत्मतत्त्वको 'अवक्तव्य'-वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय-माना है उनके मतमे
आत्मतत्त्व अनवधार्य (अजय) तत्त्व हो जाता है-प्रमेय नही रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधार्य (अप्रमेय) होने पर तथा प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय न रहनेपर बन्ध और मोक्षकी कौनसो स्थिति बन सकती है ? बन्ध्या-पुत्रकी तरह कोई भी स्थिति नही बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष। और इसलिये बन्धमोक्षकी सारी चर्चा व्यर्थ ठहरती है।'
१ देहसे प्रात्माको सर्वथा अभिन्न माननेपर ससारके अभावका प्रसग आता है, क्योकि देह रूपादिककी तरह देहात्मक आत्माका भवान्तरगमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमे उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्वके साथ विरोध होनेसे आत्मा नित्य नहीं रहता और चाचोकमतके श्राश्रयका प्रसग पाता है, जो आत्मतत्त्वको भिन्नतत्त्व न मानकर पृथिवी श्रादि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण विरुद्ध है तथा आत्मतत्ववादियोको इष्ट नहीं है। और देहसे श्रात्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकारअपकारसे आत्माके सुख-दु ख नहीं बनते सुख-दुख का अभाव होनपर राग द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभावमे धर्म अधर्म सम्भव नहीं हो सकते । अत 'स्वदेहमे अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उप. कार-प्रपकारके द्वारा आत्माके सुख-दुख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिके उपकार-अपकारसे उत्पन्न होते हैं। यह बात कैसे बन सकती है ? नही बन सकती। इस तरह दोनो ही विकल्प सदोष ठहरते हैं।
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का० ११
युक्तयनुशासन
चाऽप्यदृष्टो
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः । ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये ' सन्तानभिन्नेन हि वासनाऽस्ति ||११||
'न
१३
'प्रथम क्षणमे नष्ट हुआ चित्त - आत्मा दूसरे क्षरणमे विद्यमान रहता' यह जो (बौद्धोका ) क्षणिकात्मवाद है वह ( केवल ) प्रवाद है - प्रमाणशून्य वाद हानेसे प्रलापमात्र है, क्योंकि इसका ज्ञापक – अनुमान करानेवाला - कोई भी दृष्ट या अदृष्ट हेतु नही
बनता ।'
( यदि यह कहा जाय कि 'जो सत् है वह सब स्वभावसे हो क्षणिक हैं, जैसे शब्द और विद्युत आदि, अपना आत्मा भी चूँ कि सत् है त वह भी स्वभावसे क्षणिक है, और यह स्वभावहेतु ही उसका ज्ञापक है, तो इस प्रकार के अनुमानपर- ऐसा कहने अथवा अनुमान लगानेपर - यह प्रश्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वय प्रतिपत्ता ( ज्ञाता ) के द्वारा दृष्ट ( देखा गया ) है या दृष्ट ( नही देखा गया अर्थात् कल्पनारोपित ) है ? दृष्टहेतु सभव नही हो सकता, क्योकि सब कुछ क्षणिक होनेके कारण दर्शन के अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमान कालमे भी उसका भाव होता है । साथही, चित्तविशेषके लिङ्ग-दर्शी उस अनुमाताका भी सभव नही रहता । इसी तरह कल्पनारोपित ( कल्पित ) दृष्ट हेतु भी नही बनता, क्योकि उस कल्पनाका भी तत्क्षण विनाश हो जानेसे अनुमानकालमें सद्भाव नहीं रहता । )
' ( यदि यह कहा जाय कि व्याप्तिके ग्रहणकाल मे लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तत्क्षण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना ( सस्कार ) बनी रहती है अतः अनुमान - कालमें लिङ्ग-दर्शन से प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्थ्य से अनुमान प्रवृत्त होता है, तो ऐसा कहना युक्त नही
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समन्तभद्र-भारती
का० १२
rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
है, क्योकि सन्तानभिन्न (चित्त ) में-हेतु (साधन) और हेतुमद् ( साध्य ) के अविनाभाव-सम्बन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तसे अनुमाताका चित्त ( सन्तानत. भिन्नकी तरह ) भिन्नसन्तान होनेसे उसमे-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता। यदि भिन्न-सन्तानवालेके वासनाका अस्तित्व माना जाय तो भिन्नसन्तान देवदत्त-द्वारा साध्य-साधनकी व्याप्तिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके ( व्याप्तिका ग्रहण न होनेपर भी) साधनको देखने मात्रसे साध्य के अनुमानका प्रसग अाएगा, क्योकि दोनोमे कोई विशेष नहीं है । और यह बात सभव नही हो सकती, क्योकि व्याप्तिके ग्रहण-विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता।'
तथा न तत्कारण-कार्य-भावो निरन्वयाः केन समानरूपाः । असत्खपुष्पं न हि हेत्वपेक्षं
दृष्टं न सिद्धयत्युभयोरसिद्धम् ॥१२॥ (जिस प्रकार सन्तानभिन्न चित्तमे वासना नहीं बन सकती ) उसी प्रकार सतानभिन्न चित्तोंमे कारण-कार्य-भाव भी नहीं बन सकतासन्तानभिन्न चित्तोमे भी कारण-कार्य-भाव मानने पर देवदत्त और जिनदत्तके चित्तोमे भी कारण-कार्य-भावके प्रवर्तित होनेका प्रसग आएगा, जो न तो दृष्ट है और न बौद्धोके द्वारा इष्ट है।' ___(यदि यह कहा जाय कि एक सन्तानवर्ती समानरूप चित्तक्षणोके ही कारण कार्य-भाव होता है, भिन्नसन्तानवर्ती असमानरूप चित्तक्षरोके कारणकार्य-भाव नहीं होता,तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि)जो चित्त-क्षण क्षणविनश्वर निरन्वय ( सन्तान-परम्परासे रहित ) माने गये हैं उन्हे किसके साथ समानरूप कहा जाय ?--किसी भी स्वभावके साथ वे समानरूप नहीं है, और इसलिए उनमे कारण-का भाव घटित नही हो
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का०१२
युक्तयनुशासन rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr सकता । सस्वभाव अथवा चित्स्वभावके साथ समानरूप माननेपर भिन्नसन्तानवती देवदत्त और जिनदत्त के चित्त-क्षण भी सत्स्वभाव और चित्स्वभावकी दृष्टिसे परस्पर में कोई विशेष न रखनेके कारण समानरूप ठहरेगे और उनमे कारण-कार्य-भावकी उक्त आपत्ति बदस्तूर बनी रहेगी।'
( यदि हेत्वपेक्षि-स्वभावके साथ समानरूप माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि जो चित्त उपादान-उपादेय-भावको लिये हुए हैं-पूर्व-पूर्वका चित्त जिनमे उत्तरोत्तरवती चिचका उपादान कारण है-वे ही एकसन्तानवर्ति-चित्त परस्परमे समानरूप है और उन्हीके कारण-कार्य-भाव घटित होता है-सन्तानान्तरवर्ति-चित्तोके नहीं, तो इसमे यह विकल्प उत्पन्न होता है कि उत्तरवती -चित्त उत्पन्न और सत् होकर अपने हेतुकी अपेक्षा करता है या अनुत्पन्न और असत् होकर । प्रथम पक्ष तो बनता नही, क्योकि सत्के सर्वथा निराशसत्व (अवक्तव्यपना) माननेसे उसे हेत्वपेक्षरूपमें नहीं कहा जा सकता। और उत्पन्नके हेत्वपेक्षत्वका विरोध है-जो उत्पन्न हो चुका वह हेतुकी अपेक्षा नहीं रखता । दूसरा पक्ष माननेपर ) जो (कार्यचित्त) असत् है-उत्पत्ति के पूर्वमे जिसका सर्वथा अभाव है-वह आकाशके पुष्प-समान हेत्वपेक्ष नही देखा जाता और न सिद्ध होता है, क्योंकि कोई भी असत्पदार्थ हेत्वपेक्षके रूपमे वादी-प्रतिवादी दोनोंमेसे किसीके भी द्वारा सिद्ध ( मान्य ) नही है, जिससे उत्तरोत्तर चित्तको अनुत्पन्न होनेपर भी तद्धत्वपेक्ष सिद्ध किया जाता । हेतुके अभावमे कैसे कोई एक सन्तानवती चित्तक्षण हेत्वपेक्षत्वके साथ समानरूप सिद्ध किये जा सकते हैं, जिससे उनके उपादान-उपादेयरूपका कारण कार्य-भाव घटित हो सके १ नहीं किये जा सकते । वास्यवासक भावरूप हेतु भी नहीं बनता, क्योकि एकसन्तानवर्ति-क्षणविनश्वरनिरन्वय-चित्तक्षणोमे, भिन्नसन्तानवर्ति-चित्तक्षगोकी तरह, वासनाका सभव नहीं होता।'
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समन्तभद्र-भारतो
का० १३
नैवाऽस्ति हेतुः क्षणिकात्मवादे न सनसन्वा विभवादकस्मात् । नाशोदयकक्षणता च दुष्टा
सन्तान-भिन्न-क्षणयोरभावात् ॥१३॥ (परमार्थसे तो) नणिकात्मवादमे हेतु बनता ही नहीं। क्योंकि हेतुको यदि सतरूप माना जाय-सत्रूप ही पूर्वचित्तक्षण उत्तरचित्तक्षणका हेतु है ऐसा स्वीकार किया जाय तो इससे विभवका प्रसंग
आता है । अर्थात् एक क्षणवती चित्तमे चित्तान्तरकी उत्पत्ति होनेपर उस चित्तान्तरके कार्यकी भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी, और इस तरह सक लचित्त और चैत्तक्षणोके एकक्षणवती हो जानेपर सकल जगत्-व्यापी चित्तप्रकारोकी युगपत् सिद्धि ठहरेगी। और ऐसा होनेसे, जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्वरूप ही है--सर्व व्यापक है-यह कैसे निवारण किया जा सकता है ? नही किया जा सकता। इसके सिवाय, एकक्षणवर्ती सत्चित्त के पूर्व काल तथा उत्तरकालमे जगत् चित्तशून्य ठहरता है और सन्ताननिर्वाण-रूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (विना प्रयत्नके ही) सिद्ध होता है, और इसलिए सत् हेतु नही बनता। (इस दोषसे बचनेके लिये ) यदि हेतुको असत् ही कहा जाय तो अकस्मात्विना किसी कारणके ही-कार्योत्पत्तिका प्रसग आएगा। और इस लिये असत् हेतु भी नहीं बनता।' ___ (यदि अाकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे बचनेके लिये कारणके नाशके अनन्तर दूसरे क्षणमे कार्यका उदय-उत्पाद न मानकर नाश और उत्पादको एक क्षणवर्ती माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि जिसका नाश ही कार्यका उत्पाद है वह उस कार्यक हेतु है तो यह भी नही बनता, क्योकि संतानके भिन्न क्षणोंमे नाश और उदयकी एक-क्षणताका अभाव होनेसे नाशोदयैकक्षणतारूप युक्ति सदोष है-जैसे सुषुप्त सन्तानमे जाग्रत चित्तका जो नाश-क्षण ( विनाश-काल.) है वही प्रबुद्ध चित्तका
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का० १४
युक्तयनुशासन
उदय-क्षण नही है, दोनोमे अनेकक्षणरूप मुहूर्तादि कालका व्यवधान है,
और इसलिये जा त चित्तको प्रबुद्ध चित्तका हेतु नहीं कहा जा सकता। अत. उक्त सदोष युक्तिके आधारपर आकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे नही बचा जा सकता।
कृत-प्रणाशाऽकृत-कर्मभोगौ । स्यातामसञ्चेतित-कर्म च स्यात् ।
आकस्मिकेऽर्थे प्रलय-स्वभावे मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् ॥१४॥ 'यदि पदार्थको प्रलय स्वभावरूप आकस्मिक माना जाययह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध-मान्यतानुसार बिना किसी दूसरे कारणके ही प्रलय (विनाश ) आकस्मिक होता है, पदार्थ प्रलय-स्वभावरूप हैं, उसी प्रकार कार्यका उत्पाद भी बिना कारण के ही आकस्मिक होता है तो इससे कृत-कमके भोगका प्रणाश ठहरेगा-पूर्व चित्तने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया उसके फलका भोगी वह न रहेगा और इससे किये हुए कर्मको करने वालेके लिये निष्फल कहना होगा-और अकृतकर्मके फलको भोगनेका प्रसङ्ग आएगा- जिस उत्तरभावी चित्तने कर्म किया ही नहीं उसे अपने पूर्वचित्त द्वारा किये हुए कर्मका फल भोगना पडेगा-3 क्योकि क्षणिकात्मवादमे कोई भी कर्मका कर्ता चित्त उत्तर-क्षणमे अवस्थित नहीं रहता किन्तु फलकी परम्परा चलती है। साथ ही, कर्म भी असचेतित-अविचारित ठहरेगा-क्योकि जिस चित्तने कर्म करनेका विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जानेसे और विचार न करनेवाले उत्तरवर्ती चित्तके द्वारा उसके सम्पन्न होनेसे उसे उत्तरवर्ती चित्तका अविचारित कार्य ही कहना होगा।' ___(इसी तरह ) पदार्थके प्रलय-स्वभावरूप क्षणिक होनेपर कोई मागे भी युक्त नहीं रहेगा-सकल प्रास्त्रव-निरोधरूप मोक्षका अथवा
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समन्तभद्र-भारती
का० १५
चित्त-सन्ततिके नाशरूप शान्त-निर्वाणका मार्ग ( हेतु ) जो नैरात्म्य-भावनारूप बतलाया जाता है वह भी नही बन सकेगा, क्योकि नाशके निर्हेतुक होनेसे सास्रव-चित्त-सन्ततिका नाश करनेके लिये किसी नाशकका होना विरुद्ध पडता है-स्वभावसे ही नाश मानने पर कोई नाशक नहीं बनता।
और वधक भी कोई नही रहता-क्योकि वह भी प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक है, जिस चित्तने वधका-हिसाका-विचार किया वह उसी क्षण नष्ट हो जाता है और जिसका वध हुआ वह उसके प्रलयस्वभावसे आकस्मिक हुआ, उसके लिये वधका विचार न रखने वाले किसी भी दूसरे चित्तको अपराधी नही ठहराया जा सकता।'
न बन्ध-मोक्षौ क्षणिकैक-संस्थौ न संवृतिः साऽपि मृषा-स्वभावा । मुख्याहते गौण-विधिर्न दृष्टो विभ्रान्त-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥१॥
( पदार्थक प्रलय स्वभावरूप अाकस्मिक होनेपर ) क्षणिक-एकचित्तमे सस्थित बन्ध और मोक्ष भी नहीं बनते-क्योकि जिस चित्त का बन्ध है उसका निरन्वयविनाश हो जानेसे उत्तर-चित्त जो अबद्ध है उसीके मोक्षका प्रसग आएगा, और एक चित्त-सस्थित बन्ध मोक्ष उसे कहते है कि जिस चित्तका बन्ध हो उसीका मोक्ष होवे ।'
( यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर-चित्तोमे एकत्वके आरोपका वि कल्प करनेवाली 'सवृति' से क्षणिक एकचित्त-सस्थित बन्ध और मोक्ष बनते हैं, तो प्रश्न पैदा होता है कि वह सवृति मृषास्वभावा है या गौणविधिरूपा है ?) मृषास्वभावा सवृति क्षणिक एक चित्तमे बन्धमोक्षकी व्यवस्था करनेमे समर्थ नहीं है-उससे बन्ध और मोक्ष भो मिथ्या ठहरते है। और गौणविधि मुख्यके बिना देखी नही जाती ( पुरुषसिहकी तरह )-जिस प्रकार सी पुरुषको मुख्य सिहके अभावमे
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का० १६
युक्तयनुशासन
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Comp
'पुरुषसिंह' कहना नही बनता उसी प्रकार किसी चित्त मे मुख्यरूपसे बन्धमाक्षका मन्तिष्ठमान बतलाये बिना बन्ध - मोक्षकी गौरविधि नहीं बनती, इससे मुख्यविविके प्रभाव मे गौणविधिरूप संवृति भी किमी एक क्षणिक चित्तमे बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था करनेमे असमर्थ है ( त हे वीरजिन 1 ) आपकी ( स्याद्वादरूपिणी अनेकान्त ) दृष्टिसे भिन्न जो दूसरी (क्षणिकात्मवादियोकी सर्वथा एकान्त ) दृष्टि है वह विभ्रान्त दृष्टि है - सब आरसे दोषरूप होने के कारण वस्तुतत्त्वको यथार्थ रूप से प्रतिपादन करने मे समर्थ नही है ।
प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वा - नाव - घाती स्व- पतिः स्व-जाया । दत्त - ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिर्न
न क्त्वार्थ- सत्यं न कुलं न जाति: ॥ १६ ॥
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'क्षण-क्षणमे पदार्थो को भगवान् — निरन्वय विनाशवान - माननेपर उनके पृथक्पनकी वजह से - सर्वथा भिन्न होने के कारण - कोई मातृघाती नहीं बनता - क्योकि तब पुत्रोत्पत्तिके क्षणमे ही माताका स्वय नाश हो जाता है, उत्तरक्षणमे पुत्रका भी प्रलय हो जाता है और पुत्र का ही उत्पाद होता है, न कोई किसी ( कुलस्त्री ) का स्वपति बनता है, क्योकि उसके विवाहित पतिका उसी क्षण विनाश हो जाता है, अन्य विवाहितका उत्पाद होता है, और न कोई किसीकी स्वपत्नी ( विवाहिता स्त्री ) ठहरती है— क्योकि उसकी विवाहिता स्त्रीका उसी क्षण विनाश हो जाता है, अन्य विवाहिताका ही उत्पाद होता है, और इससे परस्त्रीसेवनका भी प्रसङ्ग श्राता है । '
' ( इसी तरह ) दिये हुए धनादिकका ( ऋणी श्रादिके पाससे) पुन ग्रहण ( वापिस लेना ) नही बनता - क्योकि बौद्ध मान्यतानुसार जो ऋण देता है उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जाता है, उत्तर
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समन्तमद्र-भारतो
का० १७
क्षणमे लेनेवालेका भी विनाश हा जाता है तथा अन्यका ही उत्पाद होता है और साक्षी - लेखादि भी कोई स्थिर नही रहता, सब उसी क्षण ध्वस्त हो जाते है । अधिगत किये हुए ( शास्त्र ) अर्थकी स्मृति भी 1 तब नही बनती - और इससे शास्त्राभ्यास निष्फल ठहरता है । 'क्त्वा' प्रत्ययका जो अर्थ- सत्य है - प्रमाणरूप से स्वीकृत है - वह भी नही बनता - क्योकि पूर्व और उत्तर - क्रियाका एक ही कर्ता होनेपर पूर्वकालकी क्रियाको 'क्या' ( करके ) प्रत्ययके द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसे 'रामो भुक्त्वा गतः ' - राम खाकरके गया । यहाँ खाना और जाना इन दोनो क्रियाका कर्ता एक ही राम है तभी उसकी पहली खानेकी क्रियाको 'करके' शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है, रामके क्षणभंगुर होनेपर वह दोनो क्रियाका कर्ता नही बनता और दोनो क्रियाओके कर्ता भिन्नभिन्न व्यक्ति होनेपर ऐसा वाक्य प्रयोग नही बनता '
' ( इसी प्रकार ) न कोई कुल बनता है और न कोई जाति ही बनती है - क्योकि सूर्यवशादिक जिस कुलमे किसी क्षत्रियका जन्म हुआ उस कुलका निरन्वय विनाश हो जानेसे उस जन्ममे उसका कोई कुल न रहा, तब उसके लिये कुलका व्यवहार कैसे बन सकता है ? क्षत्रियादि कोई जाति भी उस जाति के व्यक्तियोके विना असम्भव है । और अनेक व्यक्तियो मेसे तद्व्यावृत्तिके ग्राहक एक चित्तका असम्भव होनेसे अन्यापोहलक्षणा ( अन्यसे भावरूप, क्षत्रिय व्यावृत्तिरूप ) जाति भी घटित नही हो सकती । "
न शास्त्र - शिष्यादि - विधि-व्यवस्था विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिला चेत् । तत्त्व-तत्वादि - विकल्प-मोहे
निमज्जतां वीत - विकल्प- धीः का ? ॥ १७ ॥
" ( चित्तोके प्रतिक्षण भगुर अथवा निरन्वय-विनष्ट होनेपर ) शास्ता
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का० १७
युक्तयनुशासन
और शिष्यादिके स्वभाव - स्वरूपकी (भी) कोई व्यवस्था नही बनतीक्योकि तब तत्त्वदर्शन, परानुग्रहको लेकर तत्त्व - प्रतिपादनकी इच्छा और तत्त्वप्रतिपादन, इन सब कालोमे रहनेवाले किसी एक शासक ( उपदेष्टा ) का अस्तित्व नही बन सकता । और न ऐसे किसी एक शिष्यका ही अस्तित्त्व घटित हो सकता है जो कि शासन श्रवण ( उपदेश सुनने ) की इच्छा और शासन के श्रवण, ग्रहण, धारण तथा अभ्यसनादि कालो में व्यापक हो । 'यह शास्ता है और मै शिष्य हूँ' ऐसी प्रतिपत्ति भी किसी के नही बन सकती । और इसलिये बुद्ध - सुगतको जो शास्ता माना गया है और उनके शिष्योकी जो व्यवस्था की गई है वह स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह ( ' श्रादि' शब्द से ) स्वामी सेवक, पिता-पुत्र और पौत्र - पितामह श्रादिकी भी कोई विधि व्यवस्था नही बैठ सकती, सारा लोक व्यवहार लुप्त हो जाता अथवा मिथ्या ठहरता है ।'
1
२१
'( यदि बौद्धोकी ओर से यह कहा जाय कि बाह्य तथा श्राभ्यन्तररूपसे प्रतिक्षण स्वलक्षणों स्वपरमाणुओ) के विनश्वर होनेपर परमार्थसे तो मातृघाती आदि तथा शास्ता - शिष्नादिकी विधि-व्यवस्थाका व्यवहार सम्भव नही हो सकता, तब १ ) यह सब विकल्प बुद्धि है ( जो अनादि-वासनासे समुद्भूत होकर मातृघाती श्रादि तथा शास्ता शिष्यादिरूप विधि व्यवस्थाकी हेतु बनी हुई है) और विकल्प बुद्धि सारी मिथ्या होती है, ऐसा कहने वालों (बौद्ध) के यहा, जो ( स्वय) तत्त्व तत्त्वादिके विकल्प - मोहमे डूबे हुए है, निर्विकल्प बुद्धि बनती कौन-सी है ?काई भी सार्थिका और सच्ची निर्विकल्प बुद्धि नही बनती, क्योकि मातृघाती आदि सब विकल्प तत्त्वरूप है और उनसे जा कुछ अन्य हैं वे तत्त्वरूप हैं यह व्यवस्थिति भी विकल्पवासना के बलपर ही उत्पन्न होती है । इसी तरह 'सवृति' (व्यवहार) से 'तत्त्व' की और परमार्थसे 'तत्त्व' की व्यवस्था भी विकल्प - शिल्पीके द्वारा ही घटित की जा सकती है— वस्तुबल से नही । इस प्रकार विकल्प-मोह बौद्धोके लिये महासमुद्र की तरह दुष्पार ठहरता है । इस यदि यह कहा जाय कि बुद्धोकी धर्म देशना ही दो सत्योको लेकर हुई है
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समन्तभद्र- भारता
का० १८
एक 'लोकसवृति सत्य' और दूसरा 'परमार्थ सत्य'' तो यह विभाग भी विकल्पमात्र होनेसे तात्त्विक नहीं बनता । सम्पूर्ण विकल्पोसे रहित स्वलक्षणमात्र विषया बुद्धिको जो तात्त्विकी कहा जाता है वह भी सम्भव नही हो सकतो, क्योकि उसके इन्द्रियप्रत्यक्ष-लक्षणा, मानसप्रत्यक्षलक्षणा, स्वसवेदनप्रत्यक्ष लक्षणा और योगिप्रत्यक्ष लक्षणा ऐसे चार भेद माने गये है, जिनकी परमार्थसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । प्रत्यक्ष - सामान्य और प्रत्यक्ष-विशेपका लक्षण भी विकल्पमात्र होनेसे वास्तविक ठहरता है । और वास्तविक लक्षण वस्तुभूत लक्ष्यको लक्षित करनेके लिये समर्थ नही
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है । क्योकि इससे 'अतिप्रसङ्ग' दोष आता है, तब किसको किससे लक्षित किया जायगा ? किसीको भी किसी से लक्षित नही किया जा सकता ।' श्रनर्थिका साधन - साध्य धीश्चेद्विज्ञानमात्रस्य न हेतु - सिद्धिः । अथाऽर्थवत्वं व्यभिचार - दोषो
न योगि- गम्यं परवादि - सिद्धम् ॥ १८ ॥
' (यदि यह कहा जाय कि ऐसी कोई बुद्धि नही है जो बाह्य स्वलक्षणके श्रालम्बनमे कल्पना से रहित हो, क्योकि स्वप्नबुद्धिकी तरह समस्त बुद्धिसमूह के त्रालम्बनमे भ्रान्तपना होनेसे कल्पना करनी पडती है, अत अपने
शमात्ररूप तक सीमित विषय होनेसे विज्ञान - मात्र तत्त्वकी ही प्रसिद्धि होती है उसीको मानना चाहिये । इसपर यह प्रश्न पैदा होता है कि विज्ञानमात्रकी सिद्धि ससाधना है या निःसाधना ? यदि ससाधना है तो साध्य - साधनकी बुद्धि सिद्ध हुई, विज्ञान - मात्रता न रही। और यदि साध्यसाधनकी बुद्धिका नाम ही विज्ञान मात्रता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता बुद्धि का है या अर्थवती १) यदि साध्य साधनकी बुद्धि अनर्थका है - उसका कोई अर्थ नही - तो विज्ञानमात्र तत्त्व१ " हे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धाना धर्म देशना | लोकसवृतिसत्य च सत्य च परमार्थत ॥"
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का० १८
युक्तयनुशासन को सिद्ध करने के लिये जो (प्रतिभासमानत्व) हेतु दिया जाता है उसकी (स्वप्नोपलम्भ-साधनकी तरह) सिद्धि नहीं बनती और जब हेतु ही सिद्ध नहीं तब उससे ( असिद्ध-साधनसे) विज्ञप्तिमात्ररूप साध्यकी सिद्धि भी नहीं बन सकती।
यदि साध्य-साधनकी बुद्धि अर्थवतो है--अर्थावलम्बनको लिये हुए है-तो इसीसे प्रस्तुत हेतुके 'व्यभिचार' दोष आता है-- 'सर्वज्ञान निरालम्बन है ज्ञान हानेसे' ऐसा दूसरोके प्रति कहना तब युक्त नही ठहरता, वह महान् दोष है, जिसका निवारण नही किया जा सकता; क्योकि जैसे यह अनुमान-जान स्वसाध्यरूप पालम्बनके साथ सालम्बन है वैसे विवादापन्न (विज्ञानमात्र) ज्ञान भी सालम्बन क्यो नही ? ऐसा संशय उत्पन्न होता है। जब भी सर्ववस्तुसमूहको प्रतिभासमानत्व-हेतुसे विज्ञानमात्र सिद्ध किया जाता है तब भी यह अनुमान परार्थप्रतिभासमान होते हुए भी वचनात्मक है-विज्ञानमात्रसे अन्य होनेके कारण विज्ञानमात्र नही है-अत. प्रकृत हेतुके व्यभिचार दोष सुघटित एव अनिवार्य ही है।'
'यदि (नि साधना सिद्धिका आश्रय लेकर) विज्ञानमात्रतत्त्वको योगिगम्य कहा जाय-यह बतलाया जाय कि साध्यके विज्ञानमात्रात्मकपना हानेपर साधनका साध्यतत्त्वके साथ अनुषङ्ग है-वह भी साध्यकी ही कोटिम स्थित है - इसलिये समाधि-अवस्थामे योगीको प्रतिभासमान होने वाला जो सवेदनाद्वैत है वही तत्त्व है, क्योकि स्वरूपकी स्वत• गति (ज्ञप्ति) होती है-उसे अपने आपसे ही जाना जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि यह बात परवादियोंको सिद्ध अथवा उनके द्वारा मान्य नहीं है--जो किसी योगीके गम्य हो वह परवादियोके द्वारा मान्य ही हो ऐसी कोई बात भी नहीं है, यह तो अपनी घरेलू मान्यता ठहरा। अत नि.माधना सिद्धिका आश्रय लेनेपर परवादियोको विज्ञानमात्र अथवा सवेदनाद्वैत तत्वका प्रत्यय (बोध) नहीं कराया जासकता।'
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समन्तभद्र- भारती
तत्त्वं विशुद्ध सकलैर्विकल्पैविश्वाऽभिलापाऽऽस्पदतामतीतम् । न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगद्यं सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्ति- बाह्यम् ॥१६॥
'जो (विज्ञानाद्वैत तत्त्व सकल विकल्पोंसे विशुद्ध (शून्य) हैकार्य-कारण, ग्राह्य-ग्राहक, वास्य वासक, साध्य-साधन, बाध्य बाधक, वाच्यवाचक भाव आदि कोई भी प्रकारका विकल्प जिसमे नहीं है - वह स्वसवेद्य नही होसकता, क्योकि सवेदनावस्थामे योगी के अन्य सब विकल्पोके दूर होनेपर भी ग्राह्य ग्राहकके श्राकार विकल्पात्मक सवेदनका प्रतिभासन होता है, बिना इसके वह बनता ही नहीं, और जब विकल्पात्मक सवेदन हुआ तो सकल विकल्पोंसे शून्य विज्ञानाद्वैत तत्त्व न रहा ।
का० १६
' (इसी तरह) जो विज्ञानाद्वैत तत्त्व सम्पूर्ण अभिलापों (कथन प्रकारो की आस्पदता ( श्राश्रयता) से रहित है – जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया और यदृच्छा ( स केत) की कल्पनाओसे शून्य होने के कारण उस प्रकार के किसी भी विकल्पात्मक शब्दका उसके लिये प्रयोग नही किया जा सकता वह निगद्य (कथन के योग्य) भो नहीं हो सकता — दूसरोको उसका प्रतिपादन नहीं किया जासकता । '
( अतः हे वीरजिन 1) आपकी उक्ति से अनेकान्तात्मक स्याद्वादसे— जो बाह्य है वह सर्वथा एकान्तरूप विज्ञानाद्वैत तत्त्व (सर्वथा विकल्प और अभिलापसे शून्य होनेके कारण ) सुषुप्ति की अवस्थाको प्राप्त हैसुषुतिमे सवेदनकी जो अवस्था होती है वही उसकी अवस्था है । और इससे यह भी फलित होता है कि स्याद्वादका श्राश्रय लेकर ऋजुसूत्र नयावलम्बियोके द्वारा जो यह माना जाता है कि विज्ञानका अर्थातत्त्व विज्ञानके
पर्यायके आदेश से ही सकल - विकल्पो तथा अभिलापोसे रहित है और व्यवहारनयावलम्बियोके द्वारा जो उसे विकल्पों तथा अभिलापोका श्राश्रय
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का० २१
युक्त्यनुशासन
स्थान बतलाया जाता है वह सब अापकी उक्तिसे बाह्य नहीं है-आपके सर्वथा नियम-त्यागी स्याद्वादमतके अनुरूप है।'
मूकात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्यं तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् । अनङ्ग संज्ञ तदवेधमन्यैः
स्यात् त्वद्विषां वाच्यमवाच्य-तत्त्वम् ॥२०॥ 'गूङ्ग का स्वसवेदन जिस प्रकार आत्मवेद्य है-अपने आपके द्वारा ही जाना जाता है-उसी प्रकार विज्ञानाद्वततत्त्व भी आत्मवेद्य है-स्वयके द्वारा ही जाना जाता है। आत्मवेद्य अथवा 'स्वसवेद्य' जैसे शब्दोके द्वारा भी उसका अभिलाप (कथन) नहीं बनता-उसका कथन गूग की अस्पष्ट भाषाके समान प्रलाप-मात्र होनेसे निरर्थक है-- वह अभिलापरूप नहीं है । साथ ही, वह अनङ्गसज्ञ है-अभिलाप्य न होनेसे किसी भी अगस जाके द्वारा उसका सक्त नहीं किया जासकता। और जब वह अनभिलाप्य तथा अनङ्गस है तब दूसरोंके द्वारा अवेद्य (अजय) है-दूसरोके प्रति उसका प्रतिपादन नही किया जा सकता। ऐसा (हे वीरजिन ! ) आपसे-आपके स्याद्वादमतसे-द्वेष रखनेवाले जिन (सवेदनाद्वैतवादि बौद्धो) का कहना है उनका सर्वथा अवाच्य-तत्व इससे वाच्य होजाता है | जो इतना भी नही समझते और यही कहते हैं कि वाच्य नही होता उनसे क्या बात की जाय १-- उनके साथ तो मौनावलम्बन ही श्रेष्ठ है ।'
अशासदांसि वचांसि शास्ता शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तैः ।
अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत् त्वया विना श्रायसमार्य ! किं तत् ॥२१॥
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समन्तभद्र भारती
का २२
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'शास्ता-बुद्वदेवने ही ( यथार्थ दर्शनादि गुणोसे युक्त होने के कारण) अनवद्य वचनोकी शिक्षा दी, परन्तु उन वचोंके द्वारा उनके वे शिष्य शिक्षित नहीं हुए , यह कथन (बौद्धोका) अहो दूसरा दुर्गतम अन्धकार है-अतीव दुष्पार महामोह है ||-क्योकि गुणवान शास्ताके होनेपर प्रत्तिपत्तियोग्य प्रतिपाद्यो-शिष्योके लिये सत्यवचनोके द्वारा ही तत्त्वानुशासनका होना प्रसिद्ध है। बौद्धोके यहाँ बुद्धदेवके शास्ता प्रसिद्ध होनेपर भी, बुद्धदेवके वचनोको सत्यरूपमे स्वीकार करनेपर भी और (बुद्ध-प्रवचन सुननेके लिये) प्रणिहितमन (दत्तावधान) शिष्योके मौजूद होते हुए भी वे शिष्य उन वचनोसे शिक्षित नहीं हुए, यह कथन बौद्धोका कैसे अमोह कहा जासकता है ?-नही कहा जासकता, और इस लिये बौद्धोका यह दर्शन (सिद्धान्त) परीक्षावानोके लिये उपहासास्पद जान पडता है।
(यदि यह कहा जाय कि इस शासनमे सवृतिसे-व्यवहारसेशास्ता, शिष्य, शासन तथा शासनके उपायभूत वचनोका सद्भाव स्वीकार किया जानेसे और परमार्थसे सवेदनाद्वैतके नि.श्रेयस-लक्षणकी-निर्वाण- । रूपकी-प्रसिद्धि होनेसे यह दर्शन उपहासास्पद नही है, तो यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योकि) हे आर्य-वीरजिन | आपके विना-श्राप जैसे स्याद्वादनायक शास्ताके अभावमे-नि श्रेयस ( कल्याण अथवा निर्वाण। बनता कौन-सा है, जिससे मवेदनाद्वैतको नि श्रेयसरूप कहा जाय ? सर्वथा एकान्त-वादका आश्रय लेनेवाले शास्ताके द्वारा कुछ भी सम्भव नही है, ऐसा प्रमाणसे परीक्षा किये जानेपर जाना जाता है । सर्वथा एकान्तवादमे सवृति और परमार्थ ऐसे दो रूपसे कथन ही नही बनता और दा रूपसे कथनमे सर्वथा एकान्तवाद अथवा स्याद्वादमत का विरोध स्थिर नहीं रहता।'
प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्ग-गम्यं न तदर्थ-लिङ्गम् । वाचो न वा तद्विषयेण योगः का तद्गतिः ? कष्टमशृण्वतां ते ॥२२॥
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का० २३
युक्त्यनुशासन
"जिस (सवेदनाद्वैत) तत्त्वमे प्रत्यक्षबुद्धि प्रवृत्त नही होतीप्रत्यक्षत. किसीके जिसका तद्प निश्चय नहीं बनता-उसे यदि (स्वर्ग प्रापणशक्ति श्रादिकी तरह) लिङ्गगम्य माना जाय तो उसमे अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नही हो सकता क्योंकि वह स्वभावलिङ्ग उस तत्त्वकी तरह प्रत्यक्ष-बुद्धिसे अतिक्रान्त है, उसे, लिङ्गान्तरसे गम्य माननेपर अनवस्था दोष आता है. तथा कार्यलिङ्गका सभव माननेपर द्वैतताका प्रसङ्ग
आता है-और (परार्थानुमानरूप) वचनका उसके सवेदनाद्वैतरूप विषयके साथ योग नही बैठता-परम्परासे भी सम्बन्ध नही बनता, उस स वेदनाद्वैत तत्त्वकी क्या गति है ?--प्रत्यक्षा, लैङ्गिकी और शाब्दिकी कोई भी गति न होनेसे उसकी प्रतिपत्ति (बोधगम्यता) नही बनती, वह किमीके द्वारा जाना नही जासकता। अत (हे वीरजिन ।)
आपको न सुननेवालोंका-आपके स्याद्वाद-शासनपर ध्यान न देनेवाले बौद्धोका-संवेदनाद्वैत दर्शन कष्टरूप है ।'
रागाद्यविद्याऽनल-दीपन च विमोक्ष-विद्याऽमृत शासनं च । न भिधते संकृति-वादि-वाक्यं
भवत्प्रतीपं परमार्थ-शू-यम् ॥२३॥ (यदि सवृतिसे सवेदनाऽद्वैत तत्त्वकी प्रतिपत्ति मानकर बौद्ध दर्शनकी कष्टरूपताका निषेध किया जाय तो वह भी ठीक नहीं बैठता, क्योकि सवृति वादियोंका रागादि-अविद्याऽनल-दीपन वाक्य और विमोक्ष-विद्याऽ मृत-शासन-वाक्य परमार्थ-शून्य-विषयमे परस्पर भेदको लिये हुए नही बनता अर्थात् जिस प्रकार सवृति-वादियोके यहाँ 'अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम.' इत्यादि रागादि-अविद्याऽनलके दीपक वाक्य-समूहको परमार्थशून्य बतलाया जाता है उसी प्रकार उनका 'सम्यग्ज्ञान-वैतृष्ण-भावनातो निःश्रेयसम्' इत्यादि विमोक्षविद्याऽमृतका शसनात्मक-वाक्य-समूह भी
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समन्तभद्र-भारती
का० २४
परमार्थ-शून्य ठहरता है, दोनोमें परमार्थ - शून्यता-विषयक कोई भेद नही है, क्योकि ( हे वीर जिन 1 ) उनमेसे प्रत्येक वाक्य भवत्प्रतीप हैआपके अनेकान्त शासन के प्रतिकूल सर्वथा एकान्त-विषयरूपसे ही अङ्गीकृत है - और ( इस लिये ) परमार्थं शून्य है । ( फलत.) श्रापके अनेकान्तशासन का कोई भी वाक्य सर्वथा परमार्थ- शून्य नही है -- मोक्ष विद्यामृतके शासनको लिये हुए वाक्य जिस प्रकार मोक्षकारणरूप परमार्थसे • शून्य नही है उसी प्रकार रागाद्यविद्यानलका दीपक वाक्य भी बन्धकारणरूप परमार्थ से वास्तविकतासे --शून्य नही है ।
२८
-
विद्या प्रसूत्यै किल शील्यमाना भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा । त्वदीयोक्त्यनभिज्ञ- मोहो यञ्जन्मने यत्तदजन्मने तत् ॥ २४ ॥
' ( हे वीर जिन ) आपकी उक्ति मे — स्याद्वादात्मक कथन - शैलीसे-अनभिज्ञका -- बौद्धोके एक सम्प्रदायका - यह कैसा मोह है-- विपरीताभिनिवेश है—-जो यह प्रतिपादन करता है कि 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट
विद्या भाव्यमान हुई निश्चयसे विद्याको जन्म देनेमे समर्थ होती है " ( क्योकि ) इससे जो अविद्या अविद्यान्तरके जन्मका कारण सुप्रसिद्ध है वही उसके अजन्मका भी कारण होजाती है || और यह स्पष्ट विपरीताभिनिवेश है जो दर्शनमोहके उदयाऽभाव मे नही बन सकता । जो मदिरापान मदजन्मके लिये प्रसिद्ध है वही मदकी अनुत्पत्तिका हेतु होनेके योग्य नहीं होता ।'
यदि कोई कहे कि 'जिस प्रकार विषभक्षण विषविकारका कारण प्रसिद्ध होते हुए भी किंचित् विषयविकार के जन्मका - उसे उत्पन्न न होने देनेका - हेतु देखा जाता है, उसी प्रकार कोई श्रविद्या भी भाव्यमान (विशिष्ट भावना को प्राप्त ) हुई स्वय अविद्या - जन्म के प्रभावकी हेतु होगी, इसमे
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ANNA-
NAM
का०२५
युक्तयनुशासन विरोधकी कोई बात नहीं' तो उसका यह कथन अपर्यालोचित है, क्योकि भ्रम-दाह-मूर्खादि विकारको जन्म देने वाला जङ्गमविष अन्य है और उसे जन्म न देने वाला—प्रत्युत उस विकारको दूर कर देने वाला-- स्थावरविष अन्य ही है, जो कि उस विषका प्रतिपक्षभूत है, और इस लिये अमृत-कोटिमे स्थित है, इसीसे विषका 'अमृत' नाम भी प्रसिद्ध है । विष सर्वथा विष नही होता, उसे सर्वथा विष माननेपर वह विषान्तरका प्रतिपक्षभूत नही बन सकता । अतः विषका यह उदाहरण विषम है। उसे यह कह कर साम्य उदाहरण नहीं बतलाया जासकता कि अविद्या भी जो ससारकी हेतु है वह अनादि-वासनासे उत्पन्न हुई अन्य ही है और अविद्याके अनुकूल है, किन्तु मोक्षकी हेतुभूत अविद्या दूसरी है, जो अनादि-अविद्याके जन्मकी निवृत्ति करने वाली तथा विद्याके अनुकूल है, और इसलिये ससारकी हेतु अविद्याके प्रतिपक्षभूत है । क्योकि जो सर्वदा अविद्याके प्रतिपक्षभूत है उससे अविद्याका जन्म नहीं हो सकता, उसके लिये तो विद्यात्वका प्रसङ्ग उपस्थित होता है । यदि अनादि-अविद्याके प्रतिपक्षत्वके कारण उस अविद्याको कथञ्चित् विद्या कहा जायगा तो उससे सवृतिवादियोके मतका विरोध होकर स्याद्वादि-मतकै आश्रयका प्रसग पाएगा। क्योकि स्याद्वादियोंके यहाँ केवलज्ञानरूप परमा विद्याकी अपेक्षा मतिज्ञानादिरूप क्षायोपशमिकी अपकृष्ट विद्या भी अविद्या मानी गई है--न कि अनादि-मिथ्याज्ञान-दर्शनरूप अविद्याकी अपेक्षा, क्योकि उसके प्रतिपक्षभूत होनेसे मतिज्ञानादिके विद्यापना सिद्ध है। अत. सर्वथा अविद्यात्मक भावना गुरुके द्वारा उपदिष्ट होती हुई भी विद्याको जन्म देनेमे समर्थ नहीं है । ऐसी अविद्याके उपदेशक गुरुको भी अगुरुत्वका प्रसग आता है, क्याकि विद्याका उपदेशी ही गुरु प्रसिद्ध है। और इस लये पुरुषाद्वैतकी तरह सवेदनाद्वैत तत्त्व भी अनुपाय ही है--किसी भी उपाय अथवा प्रमाणसे वह जाना नही जा सकता।)
अभावमात्रं परमाथवृत्तेः सा संवृतिः सर्व-विशेष-शून्या ।
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३०
समन्तभद्र भारतो
तस्या विशेषौ किल बन्ध-मोचौ हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ||२५||
का० २५
'परमार्थवृत्ति से तत्त्व अभावमात्र है - न तो बाह्याभ्यन्तर निरन्वय क्षणिक परमाणुमात्र तत्त्व है, सौत्रान्तिक मतका निराकरण हो जानेसे, और न अन्तः सविसरमा मात्र या सवेदनाद्वैतमात्र तत्त्व है, योगाचारमतका निरसन हो जानेसे, किंतु माध्यमिक मतकी मान्यतानुरूप शून्यतत्त्व ही तत्त्व है और वह परमार्थवृत्ति स वृतिरूप है - तात्त्विकी नहीं, क्योकि शून्यमवित्ति तात्त्विकी होनेपर सर्वथा शून्य तत्त्व नही रहता, उसका प्रतिषेध हो जाता है - और सवृति सर्वविशेषोंसे शून्य है - पदार्थसद्भाववादियो के द्वारा जो तात्त्विक विशेष माने गये है उन सबसे रहित है -- तथा उस अविद्यात्मिका एवं सकलतात्त्विक - विशेष - शून्या स वृतिके भी जो बध और मोक्ष विशेष है वे हेत्वात्मक हैं--सावृतरूप हेतुस्वभाव द्वारा विधीयमान है अर्थात् आत्मीयाभिनिवेश के द्वारा बधका और नैरात्म्य - भावनाके अभ्यास द्वारा मोक्षका विधान है, दोनो में से कोई भी तात्त्विक नहीं है । और इस लिये दोनो विशेष विरुद्ध नही पड़ते ।' इस प्रकार ( हे वीर जिन ।) यह उनका वाक्य है - उन सर्वथाश न्यवादिबौद्धोका कथन है--जिनके आप (अनेकान्तवादी) नाथ नही हैं । ( फलतः ) जिनके श्राप नाथ है उन अनेकान्तवादियोका वाक्य ऐसा नही है किन्तु इस प्रकार है कि - स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा से सत्रूप पदार्थ ही पररूषादि चतुष्टयकी अपेक्षासे प्रभाव (शून्य) रूप है । अभावमात्र के स्वरूपसे ही सत् होनेपर उसमे परमार्थिकत्व नही बनता, तब परमार्थवृत्तिसे भावमात्र कहना ही असंगत है ।'
1
व्यतीत - सामान्य- विशेष - भावाद्
विश्वाऽभिलापाऽर्थ-विकल्प- शून्यम् ।
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का० २६
युक्तयनुशासन
रव- पुष्पवत्स्यादसदेव तत्त्वं प्रबुद्ध-तत्त्वाद्भवतः परेषाम् ||२६||
'हे प्रबुद्ध-तत्त्व वीरजिन । आप अनेकान्तवादीसे भिन्न दूसरोका — अन्य एकान्तावदियोका - जो सर्वथा सामान्यभाव से रहित, सर्वथा विशेषभाव से रहित तथा ( परस्पर सापेक्षरूप ) सामान्यविशेषभाव दोनोसे रहित जो तत्व है वह ( प्रकटरूप मे शून्य तत्त्व न होते हुए भी ) सपूर्ण अभिलाणें तथा अर्थविकल्पोसे शून्य होनेके कारण आकाश- कुसुमके समान अवस्तु ही है ।'
३१
व्याख्या – सामान्य और विशेषका परस्पर श्रविनाभाव सम्बन्ध है - सामान्य विना विशेषका और विशेष के विना सामान्यका अस्तिव बन नही सकता । और इस लिये जो भेदवादी बौद्ध सामान्यको न मानकर सर्वतः व्यावृतरूप विशेष पदार्थोंको ही मानते है उनके वे विशेष पदार्थ भी नही बन सकते - सामान्य से विशेष के सर्वथा भिन्न न होनेके कारण सामान्य के प्रभावमे विशेष पदाथोके भी प्रभावका प्रसंग आता है और तत्त्व सर्वथा निरूपाख्य ठहरता है । और जो अभेदवादी साख्य सामान्यको ही एक प्रधान मानते है और कहते है कि महत् श्रहङ्कारादि विशेष चू कि सामान्यके विना नही होते इस लिये वे अपना कोई अलग ( पृथक् ) व्यक्तित्व ( अस्तित्व ) नही रखते - अव्यक्त सामान्य के ही व्यक्तरूप है - उनके सकल विशेषका अभाव होनेपर विशेषोके साथ अविनाभावी सामान्य के भीभावका प्रगाता है और व्यक्ताऽव्यक्तात्मक भोग्यके प्रभाव होनेपर भोक्ता श्रात्माका भी सभव ठहरता है । और इस तरह उन साख्योके, न चाहते हुए भी, सर्वशन्यस्वकी सिद्धि घटित होती है । व्यक्त और श्रव्यकमे कथञ्चित् भेद माननेपर स्या दि-न्याय के अनुसरण का प्रसंग ाता है और तब वह वाक्य (वचन) उनका नहीं रहता जिनके श्राप वीरजिनेन्द्र नायक नही है । इसी तरह परस्पर निरपेक्ष रूप से सामान्य विशेष भावको माननेवाले जो योग हैं- नैयायिक तथा वैशेषिक है - वे कथात् रूपसे
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समन्तभद्र-भारतो
का०२७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm www.mmmmmmmmmmmmmmmmmx ( परस्पर सापेक्ष ) सामान्य-विशेषका न माननेके कारण व्यतीत-सामान्यविशेष-भाववादी प्रसिद्ध ही हैं और वीरशासनसे बाह्य है, उनका भी तत्त्व वास्तवमे विश्वामिलाप और अर्थ विकल्पसे शन्य होनेके कारण गगनकुसुमकी तरह उसी प्रकार अवस्तु ठहरता है जिस प्रकार कि ब्यतीतसामान्य-भाववादियोंका, व्यतीत-विशेष-भाववादियोका अथवा सर्वथा शन्यवादियोका तत्व अवस्तु ठहरता है।'
अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायागतिर्भवेत्तौ वचनीय-गम्यौ। सम्बन्धिनौ चेन्न विरोधि दृष्टं
वाच्यं यथार्थ न च दूषणं तत् ॥२७॥ 'यदि कोई कहे कि शून्यस्वभावके अभावरूप सत्स्वभाव तत्त्वके माननेपर भी इन (बन्ध और मोक्ष ) दोनोकी उपायसे गति होतीहै-उपाय-द्वारा बन्ध और मोक्ष दोनो जाने जाते है-, दोनों वचनीय है और गम्य है-जब परार्थरूप वचन बन्ध-मोक्षकी गति का { जानकारी का ) उपाय होता है तब ये दोनों 'वचनीय' होते है और जब स्वार्थरूप प्रत्यक्ष या अनुमान बन्ध-मोक्षकी गतिका उपाय होता है तब ये दोनो 'गम्य होते है । साथ ही, दोनों सम्बन्धी हैं-परस्पर अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए है, बन्धके विना मोक्षकी और मोक्षके विना बन्धकी सम्भावना नहीं, क्योकि मोक्ष बन्ध-पूर्वक होता है। और मोक्षके अभावमे बन्धको माननपर जो पहलेसे अबद्ध है उसके पीछेसे बन्ध मानना पडेगा अथवा शाश्वतिक बन्धका प्रसग पाएगा। अनादि बन्ध-सन्तानकी अपेक्षासे बन्धके बन्ध-पूर्वक होते हुए भी बन्धविशेषकी अपेक्षासे बन्धके अबन्ध-पूर्वकत्वकी सिद्धि होती है, प्राक् अबद्धके ही एकदेश मोक्षरूपता हानेसे बन्ध मोक्षके साथ अविनाभावी है और इस तरह दोनो अविनाभावसम्बन्धसे सम्बन्धित है-तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस
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३३
का००८
युक्त्यनुशासन • rrrrrrrammar प्रकार सत्स्वभावरूप तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता, विरोध नजर आता है-सर्वथा क्षणिक (अनित्य) और सर्वथा अक्षणिक (नित्य ) श्रादिरूप मान्यताएँ विरोधको लिये हुए है । स्याद्वाद-शासनसे भिन्न परमतमे सत्तत्त्व बनता ही नहीं-सर्वथा क्षणिक और सर्वथा अक्षणिककी मान्यतामें दूसरी जातिके ( परस्पर निरपेक्ष ) अनेकान्तका दर्शन होता है, जो सदोष है अथवा वस्तुत. अनेकान्त नही हैं । सत्तत्त्व सर्वथा एकान्तात्मक है ही नही, क्योकि प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे उसकी उपलब्धि नही होती।'
"(इसपर यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे भले ही सत्तत्त्वकी उपलब्धि ( दर्शन-प्राप्ति ) न होती हो, परन्तु परपक्षके दूषणसे तो उसकी सिद्धि होती ही है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ) जो यथार्थ वाच्य होता है वह दूषणरूप नही होता-जिसको क्षणिक-एकान्तवादी परपक्षमे स्वय दूषण बतलाता है उसमें यथा वाच्यता होनेसे अथवा परपक्षकी तरह स्वपक्षमे भी उसका सद्भाव होनेसे उसे दूषणरूप नही कह सकते, वह दूषणाभास है। और जो दूषण परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी निगकरण करता हो वह यथार्थ वाच्य नहीं हो सकता। वास्तवमे दोनो सर्वथा एकान्तोसे, विरोधके कारण, अनेकान्तकी निवृत्ति होती है, अनेकातकी निवृत्तिसे क्रम और अक्रम निवृत्त होजाते हैं, क्रम-अक्रमकी निवृत्तिसे अर्थक्रियाकी निवृत्ति हो जाती है—क्रम अक्रमके विना कही भी अर्थ-क्रियाकी उपलब्धि नहीं होती-और अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति होनेपर वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बनती क्योकि वस्तुतत्त्वकी अर्थ-क्रियाके साथ व्याप्ति है। और इसलिये सर्वथा एकान्तमे सत्तत्त्व की प्रतिष्ठा ही नहीं हो सकती।'
उपेय-तत्वाऽनमिलाप्यता-बद्उपाय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् । अशेष-तत्त्वाऽनभिलाप्यतायां द्विषां भवद्यक्तयभिलाप्यतायाः ॥२८॥
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समन्तभद्र-भारतो
का००६ wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
( हे वीर जिन 1 ) आपकी युक्तिकी-स्याद्वादनीतिकी-अभिलाप्यताके जो द्वषी हैं-सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व स्वरूपादि-चतुष्टयकी (स्वद्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी ) अपेक्षा कथञ्चित् सत्रूप ही है, पररूपादि-चतुटयकी ( परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी ) अपेक्षा कथञ्चित् असत्रूप ही है इत्यादि कथनीके साथ दुषभाव रस्वते है-उन द्वेषियोंकी इस मान्यतापर कि 'सम्पूर्ण तत्स्व अनमिलाप्य ( अवाच्य ) है' उपेयतत्त्वकी अवाच्यताके समान उपायतत्त्व भी सवेथा अगच्य ( अवक्तव्य ) हो जाता है-जिस प्रकार निःश्रेयस ( निवाण-मोक्ष ) तत्त्वका कथन सर्वथा नही किया जा सकता उसी प्रकार उसकी प्राप्ति के उपायभूत निर्वाणमार्गका कथन भी सर्वथा नही किया जा सकता, क्योकि दोनोमे परस्पर तत्त्व-विषयक काई विशेषता नही है।'
अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् । स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि
स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥२९॥ (अशेष तत्त्व सर्वथा अवाच्य है ऐसी एकान्त मान्यता होने पर) तत्व अवाच्य ही है ऐसा कहना अयथाप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञाके विरुद्धहोजाता है। क्योंकि 'अवाच्या इस पदमे ही वाच्यका भाव हैवह किसी बातको बतलाता है, तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा। यदि यह कहा जाय कि तत्त्व स्वरूपसे अवाच्य ही है तो 'सर्व वचन स्वरूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध पडता है। और यदि यह कहा जाय कि पररूपसे तत्त्व अवाच्य ही है तो 'सर्ववचन पररूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध ठहरता है।'
[इस तरह तत्त्व न तो भावमात्र है, न अभावमात्र है, न उभयमात्र है और न सर्वथा अवाच्य है । इन चारो मिथ्याप्रवादीका यहा तक निरसन
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का० ३०
युक्त्यनुशासन
३५
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किया गया है । इसी निरसन के सामर्थ्य से सदवाच्यादि शेष मिथ्याप्रवादों का भा निरसन हो जाता है । अथात् न्यायकी समानतासे यह फलित होता है कि न तो सर्वथा सदवाच्य तत्त्व है, न असदवाच्य, न उभयाऽवाच्य और न अनुभयाऽवाच्य । ]
मत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृत बाstrस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन । युक्तं प्रतिद्वन्द्यनुबन्धि- मिश्र न वस्तु ता त्वद्यते जिनेहक् ||३०||
'कोई वचन सत्यानृत ही है, जो प्रतिद्वन्द्वी से मिश्र है - जैसे शाखापर चन्द्रमाको देखो, इस वाक्यमे 'चन्द्रमाका देखो' तो सत्य है और 'शाखा' यह वचन विसवादी होनेसे असत्य है । दूसरा कोई वचन अनृताऽनृत हो है, जो अनुबन्धिसे मिश्र है - जैसे पर्वतपर चन्द्रयुगलको देखो, इसमें 'चन्द्रयुगल' वचन जिस तरह सत्य है उसी तरह 'पर्वतपर ' यह वचन भी विसवादि - ज्ञानपूर्वक होनेसे असत्य है । इस प्रकार हे वीर जिन । आप स्याद्वादीके विना वस्तु के अतिशायन से सर्वथा प्रकारसे श्रभिधेयके निर्देश-द्वारा- प्रवर्तमान जो वचन है वह क्या युक्त है ? - युक्त नही है । (क्योंकि) स्याद्वाद से शून्य उस प्रकारका अनेकान्त वास्तविक नही है - वह सर्वथा एकान्त है और सर्वथा एकान्त वस्तु होता है । '
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सह-क्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरिभेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् । आत्मान्तरं स्याद्भिदुरं समं च स्याच्चाऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥ ३१ ॥
'विषय (अभिधेय ) का अल्प भूरि भेद - श्रल्पानरूप विकल्प —
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समन्तभद्र-भारती
का०३२
होनेपर अन्त (अप्सत्य) भेदवान होता है-जैसे जिस वचनमें अभिधेय अल्प असत्य और अधिक सत्य हो उसे 'सत्याऽनत' कहते हैं, इसमे सत्य विशेषणसे अनतको भेदवान् प्रतिपादित किया जाता है। और जिस वचनका अभिधेय अल्प सत्य और अधिक असत्य हो उसे 'अनृताऽनृत' कहते हैं, इममें अनृत विशेषणसे अनृतको भेदरूप प्रतिपादित किया जाता है । आत्मभेदसें अनत भेदवान नहीं होता क्योकि सामान्य अनृतात्माके द्वारा भेद घटित नही होता । अनतका जो आत्मान्तरश्रात्मविशेष लक्षण है वह भेद-स्वभावको लिये हुए है-विशेषणके भेदसे, और सम (अभेद) स्वभावको लिये हुए है-विशेषणभेद के अभावसे । साथ ही ('च' शब्दसे) उभयस्वभावको लिये हुए हैहेतुद्वयके अर्पणाक्रमकी अपेक्षा । (इसके सिवाय) अनृतात्मा अनभिलाप्यता (श्रवक्तव्यता) को प्राप्त है-एक साथ दोनो धोका कहा जाना शक्य न होने के कारण, और (द्वितीय 'च' शब्दके प्रयोगम) भेदि अनभिलाप्य, अभेदि-अनभिलाप्य और उभय (भेदाऽदि) अनभिलाप्यरूप भी वह है-अपने अपने हेतुकी अपेक्षा । इसतरह अनतात्मा अनेकान्तदृष्टिसे भेदाऽभेदकी सप्तभंगीको लिये हुए है।'
न मच्च नाऽमच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व-निषेध-गम्यम् । दृष्ट विमिथ तदुपाधि-भेदात्
स्वप्नेऽपि नैतत्वषः परेषाम् ॥३२॥ 'तत्त्व न तो सन्मात्र-सत्ताद्वैतरूप - है और न असन्मात्रसर्वथा अभावरूप-है, क्योंकि परस्पर निरक्षेप सत्तत्व और असत्तत्त्व दिखाई नही पडता-किसी भी प्रमाणसे उपलब्ध न होनेके कारण उसका होना असम्भव है। इसी तरह (सत् असत्, एक, अने. कादि) सर्वधर्मोके निषेधका विषयभूत कोई एक आत्मान्तर--
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का० ३३
युक्तयनुशासन
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परमब्रह्म-तत्व भी नहीं देखा जाता - - उसका भी होना सम्भव है । हॉ, सत्वाऽसत्व से विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्त्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधिके स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावरूप तथा परद्रव्यक्षेत्र - काल - भावरूप विशेषणोके - भेदसे है अर्थात् सम्पूर्णतत्त्व स्यात् सत्रूप ही है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा, स्यात् श्रसत्रूप ही है, पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा, स्यात् उभयरूप ही है, स्व-पर-रूपादिचतुष्टय-द्वयके क्रमार्पणाकी अपेक्षा, स्यात् श्रवाच्यरूप ही है, स्व-पर-रूपादि-चतुष्टयद्वय सहार्पणकी अपेक्षा, स्यात्सदवाच्यरूप ही है, स्वरूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा तथा युगपत्स्व-पर-रूपादिचतुष्टयोके कथन की शक्तिकी अपेक्षा, स्यात् असदवाच्य रूप ही है, पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा तथा स्वपर रूपादि चतुष्टयोके युगपत् कहनेकी शक्तिकी अपेक्षा और स्यात् सदसदवाच्यरूप है, क्रमार्पित स्व-पर-रूपादिचतुष्टय-द्वयकी पेक्षा तथा सहापित उक्त चतुष्टयद्वयकी अपेक्षा । इस तरह तत्त्व सत् सत् आदिरूप विमिश्रित देखा जाता है और इसलिये हे वीर जिन । वस्तुके श्रतिशायनसे ( सर्वथा निर्देशद्वारा ) किञ्चित् सत्यानृतरूप बचन श्रापके ही युक्त हैं। आप ऋषिराजसे भिन्न जो दूसरे सर्वथा सत् आदि रूप एकान्तोंके बादी है उनके यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व स्वममे भी सम्भव नही है।'
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प्रत्यक्ष- निर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितुं विना च सिद्धर्न च लक्षणार्थो
शक्यम् ।
न तावक - द्वेषिणि वीर ! सत्यम् ||३३||
' (यदि यह कहाजाय कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष निरश वस्तुका प्रतिभासी ही है, धर्म-धर्मात्मकरूप जो साश वस्तु है उसका प्रतिभासी नही - उसका प्रतिभासी वह सविकल्पक ज्ञान है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर
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समन्तभद्र-भारतो
का० ३३
उत्पन्न होता है, क्योकि उसीसे यह धर्मों है यह धर्म है ऐसे धर्मि- धर्म - व्यवहारकी प्रवृत्ति पाई जाती है। त सकन कल्पनाओ से रहित प्रत्यक्ष के द्वारा निरश स्वलक्षणका जो प्रदशन बतलाया जाता है वह सिद्ध है, तब ऐमे अमिद्ध प्रदर्शन साधनसे उस निरश वस्तुका प्रभाव कैसे सिद्ध किया जासकता है ? ता इस बोद्ध प्रश्नका उत्तर यह है कि )
'जो प्रत्यक्षके द्वारा निर्देशको प्राप्त ( निर्दिष्ट हानेवाला ) हो प्रत्यक्ष ज्ञानसे देखकर 'यह नीलादिक है' इस प्रकार के वचन- विना ही
1
गुली से जिसका प्रदर्शन किया जाता हो - ऐसा तत्त्व भी असिद्ध है, क्योकि जो प्रत्यक्ष कल्पक है - सभी कल्पनास रहित निर्विकल्पक है - वह दूसरो को ( सशयित - विनेयो अथवा सदिग्ध व्यक्तियोका) तत्व के बतलाने-दिखलाने मे किसी तरह भी समय नही होता है । ( इसके सिवाय) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है, क्योंकि ( किसी भी प्रमाणके द्वारा) उसका ज्ञापन अशक्य है । प्रत्यक्षप्रमाणसे तो वह इसलिये ज्ञापित नहीं किया जा सकता क्योकि वह परप्रत्यक्ष के द्वारा सवेद्य है । और अनुमान प्रमाणके द्वारा भी उसका ज्ञापन नहीं बनता, क्योकि उस प्रत्यक्षके साथ अविनाभावी लिङ्ग ( साधन ) का ज्ञान असभव है - दूमरे लाग जिन्हे लिङ्ग - लिङ्गी के सम्बन्धका ग्रहण नही हुम्रा उन्हे अनुमान के द्वारा उसे कैसे बतलाया जा सकता है ? नहीं बतलाया जा सकता। और जा स्वय प्रतिपन्न है - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तथा उसके अविनाभावी लिङ्गको जानता है - उसके निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ज्ञापन करानेके लिये अनुमान निरर्थक है । समारोपादिकी-भ्रमात्पत्ति र अनुमानके द्वारा उसके व्यवच्छेदक — बात कहकर उसे सार्थक सिद्ध नही किया जा सकता, क्योकि साध्य - साधनके सम्बन्धसे जो स्वय श्रभिज्ञ है उसके तो समारोपका होना ही भव है और जो अभिज्ञ नही है उसके साध्य-साधन-सम्बन्धका ग्रहण ही सम्भव नही है, और इसलिये गृहीतकी विस्मृति जैसी कोई बात नही बन सकती । इस तरह कल्पक प्रत्यक्षमा कोई ज्ञापक न हानेसे उसकी व्यवस्था नही बनती, तब उसकी सिद्धि कैसे हा सकती है ? और
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का०३४
युक्तयनुशासन
जब उसकी ही सिद्धि नही तब उसके द्वारा निर्दिष्ट होनेवाले निरश वस्तुतत्यकी सिद्धि कैसे बन सकती है १ नहीं बन सकती। अतः दोनो ही असिद्ध ठहरते है। ___ 'प्रत्यक्षकी सिद्धिके विना उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता'जो ज्ञान कल्पनासे रहित है वह प्रत्यक्ष है' ('प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' 'कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षम्' ) ऐसा बौद्धोके द्वारा निर्दिष्ट प्रत्यक्ष-लक्षण-का जो अर्थ प्रत्यक्षका बोध कराना है वह भी घटित नही हो सकता। अत. हे वोर भगवन् । आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनका जो द्वेषी है- सर्वथा सत् प्रादिरूप एकान्तवाद है-उसमे सत्य घटित नहीं होता-एकान्तत. सस्यको सिद्ध नही किया जा सकता।'
कालान्तरस्थे क्षणिके ध्रु वे वाऽपृथक्पृथक्त्वाऽवचनीयतायाम् । विकारहाने न च कर्तृ कार्ये
वृथा श्रमोऽयं जिन ! विद्विषां ते ॥३४॥ ‘पदार्थके कालान्तरस्थायी होने पर-जन्मकालसे अन्यकालमे ज्योका त्यो अपरिणामी रूपसे अवस्थित रहने पर-, चाहे वह अभिन्न हो भिन्न हो या अनिर्वचनीय हो, कर्ता और कार्य दोनों भी उसी प्रकार नही बन सकते जिस प्रकार कि पदार्थके सर्वथा क्षणिक (अनित्य) अथवा ध्रुव (नित्य) होने पर नही बनते', क्योंकि तब विकारकी निवृत्ति होती है--विकार परिणामको कहते है, जो स्वय अवस्थित द्रव्यके पूर्वाकारके परित्याग, स्वरूपके अत्याग और उत्तरोत्तराकारके उत्पादरूप होता है । विकारकी निवृत्ति क्रम और अक्रमको निवृत्त करती है, क्योकि क्रम-अक्रमकी विकारके साथ व्याप्ति ( अविनाभाव
१. देखो, इसी प्रन्थकी कारिका ८, १२ श्रादि तथा देवागमकी कारिका ३७, ४१ श्रादि ।
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का० ३५ wwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सम्बन्धकी प्राप्ति) है। क्रम-अक्रमकी निवृत्ति क्रियाको निवृत्त करती है, क्योकि क्रियाके साथ उनकी व्याप्ति है। क्रियाका अभाव होने पर कोई की नही बनता, क्योकि क्रियाधिष्ठ स्वतत्र द्रव्यके ही कर्तृत्वकी सिद्धि होती है। और कर्ताके अभावमे कार्य नही बन सकता-स्वय समीहित स्वर्गाऽपपर्गादिरूप किमी भी कार्यकी सिद्धि नही हो सकती। (अत.) हे वीर जिन । आपके द्वषियोंका-आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनसे द्वेष रखनेवाले (बौद्ध, वैशेषिक, नैय्यायिक, साख्य आदि) सर्वथा एकान्तवादियोंका-यह श्रम-स्वर्गाऽपवर्गादिकी प्राप्तिके लिये किया गया यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि अादिरूप सपूर्ण दृश्यमान तपोलक्षण प्रयास-व्यर्थ है-उससे सिद्धान्ततः कुछ भी साध्यकी सिद्धि नही बन सकती।'
[यहा तकके इस सब कथन-द्वारा प्राचार्य महोदय स्वामी समन्तभद्रने अन्य सब प्रधान प्रधान मतोको सदोष सिद्ध करके 'समन्तदाष मतमन्यदी यम्' इस आठवी कारिकागत अपने वाक्यको समर्थित किया है, साथ ही, 'त्वदीय मतमद्वितीयम्' (श्रापका मत-शासन-अद्वितीय है) इस छठी कारिकागत अपने मन्तव्यको प्रकाशित किया है । और इन दोनोके द्वारा 'त्वमेव महान् इतीयत्प्रतिवक्तुमीशाः वयम्' ('आप ही महान है! इतना बतलानेके लिये हम समर्थ हैं) इस चतुर्थ कारिकागत अपनी प्रतिज्ञाको सिद्ध किया है।]
मद्याङ्गवद्भत समागमे ज्ञः शक्त्यन्तर-व्यक्तिरदैव-सृष्टिः। इत्यात्म-शिश्नोदर-पुष्टि-तुष्ट -
निह.भयो ! मृदवः प्रलब्धाः ॥३॥ 'जिस प्रकार मद्यागोंके-मद्यके अगभूत पिष्ठोदक, गुड, धातकी श्रादिके-समागम (समुदाय) पर मदशक्तिकी उत्पत्ति अथवा आवि
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भूति होती है उमो तरह भूतोंके - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तत्त्वोके - समागमपर चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है - वह कोई जुदा तत्त्व नही है, उन्हीका सुख-दुःख हर्ष-विषाद-विवर्त्तात्मक स्वाभाविक परिणाम वशेष है । और यह सब शक्तिविशेषकी व्यक्ति है, कोई दैवसृष्टि नही है । इस प्रकार यह जिनका कार्यवादी विद्धकर्णादि तथा अभिव्यक्तिवादी पुरन्दरादि चार्वाकोका - सिद्धात है उन अपने शिश्न (लिङ्ग) तथा उदरकी पुष्टिमे ही सन्तुष्ट रहनेवाले निर्लज्जों तथा निर्भयों के द्वारा हा ' कोमलबुद्धि-भोले मनुष्य - ठगे गये हैं ।"
व्याख्या - यहा स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्रने उन चार्वाकोकी प्रवृत्ति पर भारी खेद व्यक्त किया है जो अपने लिङ्ग तथा उदरकी पुष्टमे ही सन्तुष्ट रहते है— उसीको सब कुछ समझते है, 'खाओ, पीश्रा, मौज उडाम्रो' यह जिनका प्रमुख सिद्धात है, जो मास खाने, मदिरा पीने तथा चाहे जिससे - माता, बहिन पुत्रीसे भी - कामसेवन (भोग) करनेमे कोई दोष नही देखते, जिनकी दृष्टिमे पुण्य-पाप और उनके कारण शुभ-अशुभ कर्म कोई चीज नही, जो परलोकको नहीं मानते, जीवको भी नही मानते और परिपक्वबुद्ध भोले जीवोको यह कह कर ठगते है कि -- ' जानने वाला जीव काई जुदा पदार्थ नही है, पृथ्वी जल अग्नि र वायु ये चार मूल तत्त्व अथवा भूत पदार्थ है, इनके सयाग से शरीर - इन्द्रिय तथा विषय सज्ञाकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति हाती है और इन शरीर-इन्द्रिय-विषयसज्ञासे चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है । इस तरह चारो भूत चैतन्य के परम्परा कारण है और शरीर इन्द्रिय तथा विषयसज्ञा ये तीनो एक साथ उसके साक्षात् कारण हैं । यह चैतन्य गर्भसे मरण - पर्यन्त रहता है और उन पृथ्वी आदि चारो भूतोका उसी प्रकार शक्तिविशेष है जिस प्रकार कि मयके अगरूप पदार्थोंका आटा मिला जल, गुड और घातकी श्रादिका) शक्तिविशेष मद (नशा) है। श्रोर जिस प्रकार मदको उत्पन्न करनेवाले शक्तिविशेषकी व्यक्ति कोई दैवकृत-सृष्टि नही देखी जाती बल्कि मद्य के अंगभूत साधारण और साधारण पदार्थोंका समागम होने पर स्वभावसे
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ही वह होती है उसी प्रकार ज्ञानके हेतुभूत शक्तिविशेषकी व्यक्ति भी किसी दैवसृष्टिका परिणाम नहीं है बल्कि जानके कारण जा असाधारण और साधा रण भूत (पदार्थ) हैं उनके समागमपर स्वभावसे ही वह होती है । अथवा हरीतकी (हरड) आदि में जिस प्रकार विरेचन (जुलाब) की शक्ति स्वाभा विकी है -- किसी देवताको प्राप्त होकर हरीतकी विरेचन नही करती है— उसी प्रकार इन चारों भूतोमे भी चैतन्यशक्ति स्वाभाविकी है । हरीतकी यदि कभी और किसी विरेचन नहीं करती है तो उसका कारण या तो हरीतकी आदि योगके पुराना हो जानेके कारण उसकी शक्तिका जीर्ण-शीर्ण हो जाना होता है और या उपयोग करनेवालेको शक्तिविशेषकी प्रतीति उसका कारण होती है । यही बात चारो भूतोका समागम होनेपर भी कभी और कही चैतन्यशक्तिकी अभिव्यक्ति न होनेके विषय मे समझना चाहिये । इस तरह जब चैतन्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नही और चारो भूतोकी शक्तिविशेषके रूपमे जिस चैतन्यकी अभिव्यक्ति हाती है वह मरणपर्यन्त ही रहता है - शरीर के साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है— तब परलोकमें जानेवाला कोई नही बनता । परलोकीके अभाव मे परलोकका भी अभाव ठहरता है, जिसके विषय मे नरकादिका भय दिखलाया जाता तथा स्वर्गादिकका प्रलोभन दिया जाता है । और दैव (भाग्य) का प्रभाव हानेसे पुण्य - I पाप कर्म तथा उनके साधन शुभ-अशुभ अनुष्ठान कोई चीज नही रहते - सब व्यर्थ ठहरते है । और इस लिये लोक-परलोकके भय तथा लज्जाको छोड़1 कर यथेष्ट रूपमे प्रवर्तना चाहिये - जो जीमे श्रावे वह करना तथा खानापीना चाहिये । साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि 'तपश्चरण तो नाना प्रकारकी कोरी यातनाएँ है, सयम भोगोंका वचक है और अग्निहोत्र तथा पूजादिक कर्म बच्चो के खेल है", इन सबमे कुछ भी नही धरा है ।' इस प्रकार के ठगवचनो द्वारा जो लोग भोले जीवोको ठगते हैं-पाप
१ " तपासि यातनाश्चित्राः सयमो भोगवचक. । श्रग्निहोत्रादिक कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ||"
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और पर लाकके भयका हृदयोसे निकालकर तथा लोक-लाजको भी उठाकर उनकी पापमे निरकुश प्रवृत्ति कराते है, ऐमे लागोका आचार्यमहादयने जो 'निर्भय' और 'निर्लज्ज' कहा है वह ठीक ही है। ऐसे लोग विवेक-शून्य होकर स्वय विषयोमे अन्धे हुए दूसरोका भी उन पापोमे फँसाते हैं, उनका अध.-पतन करते है और उसमें श्रानन्द मनाते है, जा कि एक बहुत ही निकृष्ट प्रवृत्ति है।
यहा भोले जीवोके ठगाये जानेकी बात कहकर आचार्य-महोदयने प्रकारान्तरसे यह भी सूचित किया है कि जो प्रोढ बुद्धिके धारक विचारवान् मनुष्य है वे ऐसे ठग वचनोके द्वारा कभी ठगाये नही जा सकते । वे जानते है कि परमार्थसे जो अनादि-निधन उपयोग-लक्षण चैतन्यस्वरूप आत्मा है वह प्रमाणसे प्रसिद्ध है और पृथिव्यादि भूतोके समागमपर चैतन्यका सर्वथा उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होना व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता । क्योंकि शरीराकार-परिणत पृथिव्यादि भूतोके सगत, अविकल और अनुपहतवीर्य होनेपर भी जिस चैतन्यशक्तिके वे अभिव्यञ्जक कहे जाते हैं उसे या तो पहलेसे सत् कहना होगा या असत् अथवा उभयरूप । इन तीन विकल्पोके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है। यदि अभिव्यक्त होनेवाली चैतन्यशक्तिको पहलेसे सत्रूप (विद्यमान) माना जायगा ता सर्वदा सत्रूप शक्तिकी ही अभिव्यक्ति सिद्ध होनेसे चैतन्यशक्तिके अनादित्व और अनन्तत्वकी सिद्धि ठहरेगी। और उसके लिये यह अनुमान सुघटित होगा कि--'चैतन्यशक्ति कथचित् नित्य है, क्योकि वह सत्रूप ओर अकारण है 'जैसे कि पृथिवी आदि भूतसामान्य ।' इस अनुमानमे सदकारणत्व' हेतु व्यभिचारादि दोषोसे रहित होनेके कारण समीचीन है
और इसलिये चैतन्यशक्तिका अनादि-अनन्त अथवा कञ्चित् नित्य सिद्ध करनेमे समर्थ है। __ यदि यह कहा जाय कि पिष्टोदकादि मयागोसे अभिव्यक्त होनेवाली मदशक्ति पहलेसे सत्रूप होते हुए भी नित्य नही मानी जाती और इस
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लिये उस सत् तथा अकारणरूप मदशक्ति के साथ हेतुका विरोध है, तो यह कहना ठीक नही, क्योकि वह मदशक्ति भी कथञ्चिन्नित्य है और उसका कारण यह है कि चेतनद्रव्यके ही मदशक्तिका स्वभावपना है, सवथा अचे. तनद्रव्योंमे मदशक्तिका होना असम्भव है, इसीसे द्रव्यमन तथा द्रव्येन्द्रियोके, जो कि अचेतन है, मदशक्ति नहीं बन सकती--भावमन और भावेन्द्रियोके ही, जो कि चेतनात्मक हैं, मदशक्तिकी सम्भावना है। यदि अचेतन द्रव्य भी मदशक्तिको प्राप्त होवे तो मद्यके भाजनों अथवा शराबकी बोतलोको भी मद अर्थात् नशा होना चाहिये और उनकी भी चेष्टा शराबियो जैसी होनी चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुतः चेतनद्रव्यमे मदशक्तिकी अभिव्यक्तिका बाह्य कारण मद्यादिक
और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मका उदय है-मोहनीयकर्मके उदयविना बाह्यमें मद्यादिका सयोग होते हुए भी मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हा सकती। चुनाँचे मुक्तात्माश्रोमे दानों कारणोंका अभाव होनेसे मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नही बनती। और इसलिये मदशक्तिके द्वारा उक्त सद्कारणत्व, हेतुमें व्यभिचार दोष घटित नहीं हो सकता, वह चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध करनेमे समर्थ है। चौतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध होनेपर परलाकी और परलोकादि सब सुघटित होते है। जो लोग परलोकीको नही मानते उन्हे यह नहीं कहना चाहिए कि 'पहलेसे सत्रूपमे विद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है।' ____ यदि यह कहा जाय कि अविद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है तो यह प्रतीतिके विरुद्ध है, क्योकि जो सर्वथा असत् हो ऐसी किसी भी चोजकी अभिव्यक्ति नहीं देखी जाती। और यदि यह कहा जाय कि कथञ्चित् सतरूप तथा कथचित् असत्रूप शक्ति ही अभिव्यक्त हाती है तो इससे परमतकी-स्यावाद शासनकी-सिद्धि होती है, क्योकि स्याद्वादियोको उस चैतन्यशक्तिकी कायाकार-परिणत-पुद्गलोके द्वारा अभिव्यक्ति अभीष्ट है जो द्रव्यदृष्टि से सतरूप हाते हुए भी पर्यायदृष्टिसे असत् बनी हुई है। और इसलिये सर्वथा चैतन्यकी अभिव्यक्ति प्रमाण-बाधित है, जो
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४५ उसका जैसे तैसे वचक वचनोके रूपमे प्रतिपादन करते है उन चार्वाकोके द्वारा सुकुमारबुद्धि मनुष्य निःसन्देह ठगाये जाते है। ___ इसके सिवाय, जिन चार्वाकोने चैतन्यशक्तिको भूतसमागमका कार्य माना है उनके यहा सर्व चैतन्य शक्तियोमें अविशेषका प्रसङ्ग उपस्थित होता है-किसी प्रकारका विशेष न रहनेसे प्रत्येक प्राणीमे बुद्धि प्राादका कोई विशेष (भेद) नही बनता । और विशेष पाया जाता है अत. उनकी उक्त मान्यता सदोष एव मिथ्या है। इसी बातको अगली कारिकामे व्यक्त किया गया है।
दृष्टेऽविशिष्टे जननादि-हेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धि
रतावकानामपि हा! प्रपातः ॥३६॥ 'जब जननादि हेतु-चैतन्यकी उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका कारण पृथिवी श्रादि भूतोका समुदाय-अविशिष्ट देखा जाता है-उसमे काई विशेषता नही पाई जाती और दैवसृष्टि (भाग्यनिर्माणादि) को अस्वीकार किया जाता है-तब इन (चार्वाकों) के प्राणि प्राणिके प्रति क्या विशेषता बन सकती है ?-कारणमे विशिष्टताके न हानेसे भूतसमागमकी और तज्जन्य अथवा तदभिव्यक्त चैतन्यकी कोई भी विशिष्टता नहीं बन सकती, तब इस दृश्यमान बुद्धयादि चैतन्यके विशेषको किस अाधारपर सिद्ध किया जायगा १ कोई भी प्राधार उसके लिये नही बनता।' ___(इसपर) यदि उस विशिष्टताकी सिद्वि स्वभावसे ही मानो जाय तो फिर चारों भूतोंसे भिन्न पाँचवें आत्मतत्त्वकी सिद्धि स्वभावले क्यों नहीं मानी जाय ?-उसमें क्या बाधा आती है और इसे न मान कर 'भूतोका कार्य चैतन्य' माननेसे क्या नतीजा, जो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योकि यदि कायाकार-परिणत भूतोका
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कार्य होनेसे चैतन्यकी स्वभावसे सिद्धि है तो यह प्रश्न पैदा हाता है कि पृथ्वी श्रादि भूत उस चैतन्यके उपादान कारण है या सहकारी कारण ? यदि उन्हे उपादान कारण माना जाय तो चैतन्यके भूतान्वित होनेका प्रसग आता है -अर्थात् जिस प्रकार सुवर्णके उपादान होनेपर मुकट, कु डलादिक पर्यायोमें सुवर्ण का अन्वय (वश) चलता है तथा पृथ्वी
आदिके उपादान होनेपर शरीर में पृथ्वी आदिका अन्वय चलता है उसी प्रकार भूतचतुष्टयके उपादान हाने पर चैतन्यमे भूतचतुष्टयका अन्वय चलना चाहिये-उन भूतोका लक्षण उसमे पायाजाना चाहिये । क्योकि उपादान द्रव्य वही कहलाता है जो स्यकाऽत्यक्त-आत्मरूप हो, पूर्वाऽपूर्वके साथ वर्तमान हो और त्रिकालवर्ती जिसका विषय हो ' । परन्तु भूतसमुदाय ऐसा नही देखा जाता कि जा अपने पहले अचेतनाकारका त्याग करके चोतनाकारको ग्रहण करता हुआ भूतोके धारण-ईरण-द्रव-उष्णता-लक्षण स्वभावसे अन्वित (युक्त) हो । क्योकि चरैतन्य धारणादि भूतस्वभावसे रहित जाननेमे आता है और कोई भी पदार्थ अत्यन्त विजातीय कार्य करता हुत्रा प्रतीत नहीं होता। भतोका धारणादि-स्वभाव और चैतन्य ( जीव ) का ज्ञान-दर्शनापयोग-लक्षण दानो एक दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण एव विजातीय हैं। अतः अचेत
नात्मक भूतचतुष्टय अत्यन्त विजातीय चैतन्यका उपादान कारण नहीं बन सकता-दोनोमे उपादानोपादेयभाव सभव ही नहीं। और यदि भूतचतुष्टयको चतन्यकी उत्पत्तिमे सहकारी कारण माना जाय ता फिर उपादान कारण काई ओर बतलाना हागा, क्योकि विना उपादानके कोई भी कार्य सभव नहीं। जब दूसरा काई उपादान कारण नही और उपादान तथा सहकारी कारणसे भिन्न तीसरा भी कोई कारण ऐसा नहीं जिससे भूत चतुष्टयको चैतन्यका जनक स्वीकार किया जा सके, तब चैतन्यकी स्वभावसे ही भूतविशेषकी तरह तत्वान्तरके रूपमे सिद्धि होती है। इस तत्त्वा
१ " त्यक्ताऽत्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वाऽपूर्वेण वर्तते ।
कालत्रयेऽपि तद्व्यमुपादानमिति स्मृतम् ।।'
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युक्त्यनुशासन
न्तर - सिद्धिको न माननेवाले जो अतावक है - दर्शन मोहके उदयसे श्राकुलित चित्त हुए श्राप वीर जिनेन्द्रके मतसे बाह्य हैं - उन (जीविकामात्र तन्त्र-विचारकों) का भी हाय । यह कैसा प्रपतन हुआ है, जो उन्हें ससार समुद्रके आवर्त मे गिराने वाला है || '
४७
स्वच्छन्दवृत्तेर्जगतः स्वभावा . दुच्चैरनाचार-पथेष्वदोषम् । निर्घुष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वद्दष्टि - बाह्या बत ! विभ्रमन्ते ||३७||
'स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द -वृत्ति - यथेच्छ प्रवृत्ति है, इस लिये जगत् के ऊंचे दर्जेके अनाचारमार्गो मे -- हिसा, झूठ, चोरी, कुशील (ब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके — उनके अनुष्ठान-जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर - जो लोग दीक्षा के समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं - सहजग्राह्य - हृदय मे मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने (मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने) का जिन्हे अभिमान है— अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे ( दीक्षानुष्ठानका निवारण करनेके लिये ) मुक्तिको जो ( मीमासक ) अमान्य कर रहे है और मासभक्षण, मदिराणन तथा मैथुन सेवन -जैसे अनाचार के मार्गों के विषयमें स्वभावसे ही जगत् की स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमे कोई दोष नहीं है ' वे सब ( हे वीर जिन 1 ) आपकी दृष्टिसे - बन्ध, मोक्ष और तत्कारण- निश्चयके निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाददर्शन से - बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होनेसे) केवल विभ्रममे पडे हुए है-तत्त्वके निश्चयको प्राप्त नही होते - यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है |15
१ "न मासभक्षणे दोषा न मद्ये न च मैथुने "
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समन्तभद्र-भारती
का०३७
व्याख्या-- इस कारिकामे 'दीक्षासममुक्तिमाना.' पद दो अथोमे प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थमे उन मान्त्रिकीका ( मन्त्रवादियोका ) ग्रहण किया गया है जो मन्त्र-दीक्षाके समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षाको यम-नियम रहित होते हुए भी अनाचारकी क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिये बडसे-बडे अनाचार-हिंसादिक घोर पाप-करते हुए भी उसमे कोई दोष नही देखते-कहते है 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होनेके कारण बडेसे-बडे अनाचारके मार्ग भी दोपके कारण नहीं होते और इसलिये उन्हे उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दूसरे अर्थमे उन मीमासकोका ग्रहण किया गया है जो कमाके क्षयसे उत्पन्न अनन्तनानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते, यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभावसे ही जगतके भूतो ( प्राणियो ) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मासभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुनसेवनजैसे अनाचारोमे कोई दोष नही देखते। साथ ही, वेद-विहित पशुवधादि ऊँचे दर्जे के अनाचार मागोको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोष ही घोषित करते है। ऐसे सब लोग वीर जिनेन्द्रकी दृष्टि अथवा उनके बतलाये हुए सन्मार्गसे बाह्य हैं, ठीक तत्त्वके निश्चयको प्राप्त न होनेके कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममे पडे हुए है और इसी लिये प्राचार्यमहोदयने उनकी इन दूषित प्रवृत्तियोपर खेद व्यक्त किया है और साथ ही यह सूचित किया है कि हिंसादिक महा अनाचारोके जो मार्ग हैं वे सब सदोष हैं-उन्हे निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी भागमविहित हो या अनागमविहित हो ।
१ "दोक्षया समासमकाला दीक्षासमा सा चासौ मुक्तिश्च सा दीहासमा मुक्तिस्तस्यामानोऽभिमानो येषा ते दीक्षासममुक्तिमाना. । अथवा दीक्षाऽसं मया भवत्येवममुक्ति मन्यमाना मीमासका ।" -इति विद्यानन्द
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युक्त्यनुशासन प्रवृत्ति-रक्तः शम-तुष्टि-रिक्त - रुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्ग-निष्ठा । प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं
तमः परेषां तव सुप्रभातम् ॥३८॥ 'जो लोग शम और तुष्टिसे रिक्त है-क्रोधादिककी शान्ति और सन्तोष जिनके पास नहीं फटकते-(और इस लिये) प्रवृत्ति-रक्त हैंहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहमे कोई प्रकारका नियम अथवा मर्यादा न रखकर उनमे प्रकर्षरूपसे प्रवृत्त अथवा आसक्त है-उन (यज्ञवादी मीमासको) के द्वारा, प्रवृत्तिको स्वयं अपनाकर, 'हिसा अभ्युदय (स्वर्गादिकप्राप्ति) के हेतुकी आधारभूत है। ऐसी जो मान्यता प्रचलित की गई है वह उनका बहुत बड़ा अन्धकार है-अज्ञानभाव है। इसी तरह (वेदविहित पशुवधादिरूप) प्रवृत्तिसे शान्ति होती है ऐसी जो मान्यताहै वह भी (स्याद्वादमतसे बाह्य) दूसरोंका घोर अन्धकार है क्योकि प्रवृत्ति रागादिकके उद्रेकरूप अशान्तिकी जननी है न कि अरागादिरूप शान्तिकी । (अतः हे वीरजिन ) आपका मत ही (सकलअज्ञान-अन्धकारको दूर करनेमे समर्थ होनेसे ) सुप्रभातरूप है, ऐसा सिद्ध होता है।'
शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैदेवान् किलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धाः । सिद्धयन्ति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा
युक्त च तेषां त्वमृषिने येषाम् ।।३।। ‘जीवात्माके लिये दुःखके निमित्तभूत जो शीर्षोपहारादिक हैअपने तथा बकरे आदिके सिरकी बलि चढाना, गुग्गुल धारण करना, मकरको भोजन कराना, पर्वतपरसे गिरना जैसे कृत्य हैं-उनके द्वारा (यक्षमहेश्वरादि) देवोंकी आराधना करके ठीक वे ही लोग सिद्ध होते हैं
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समन्तभद्र-भारतो
का०३६ ammmmmmmmmmmm अपनेको सिद्ध समझते तथा घोषित करते है-जो दोषोंके अपचय (विनाश) को अपेक्षा नही रखते-सिद्व होनेके लिये राग-द्वेपादि-विकारोको दूर करनेकी जिन्हें पर्वाह नहीं है और सुखाभिगृद्ध हैं--काम-सुखादिके लोलुपी हैं ।। और यह (सिद्धिकी मान्यतारूप प्ररूढ अन्धकार) उन्हीके युक्त है जिनके हे वीरजिन | आप ऋषि-गुरु नहीं है ।। -अर्थात् इस प्रकारकी घोर अजानताको लिये हुए अन्वेरगर्दी उन्ही मिथ्यादृष्टियोके यहा चलती है जो आप जैसे वीतदोष-सर्वज्ञ-स्वामीके उपासक नहीं है । (फलत:) जो शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए आप जैसे देवके उपासक है--आपको अपना गुरु-नेता मानते है-(और इसलिये ) जो हिसादिकमे विरक्तचित्त है, दया-दम-त्याग-समाधिकी तत्परताको लिये हुए आपके अद्वितीय शासन (मत) को प्राप्त है और नय-प्रमाण द्वारा विनिश्चित परमार्थकी एव यथावस्थित जीवादि-तत्त्वार्थोंकी प्रतिपत्तिमे कुशलमना हैं, उन सम्यग्दृष्टियोके इस प्रकारकी मिथ्या मान्यतारूप अन्धेरगर्दी (प्ररूढतमता) नहीं बनती, क्योकि प्रमादसे अथवा अशक्तिके कारण कही हिंसादिकका आचरण करते हुए भी उसमें उनके मिथ्या-अभिनिवेशरूप पाशके लिये अवकाश नही होता-वे उससे अपनी सिद्धि अथवा आत्मभलाईका होना नही मानते ।
यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासन स्तोत्रमे शुद्धि और शकिकी परकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रके अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके श्राग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोका समूह है उस सबका सक्षपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये '] 1. १ स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषत संप्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीतं मतमद्वितीय-ममल सक्षेपतोऽपाकृतं तबाह्य वितथं मत च सकलं सद्धीधनबुध्यताम् ।। इति विद्यानन्द
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युक्तयनुशासन
सामान्य निष्ठा विविधा विशेषाः पदं विशेषान्तर- पक्षपाति । अन्तर्विशेषान्त-वृत्तितोऽन्यत्समानभावं नयते विशेषम् ||४०||
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' (७ वीं कारिकामे 'अभेद भेदात्मकमर्थतत्त्व' इस वाक्यके द्वारा यह बतलाया गया है कि वीरशासन मे वस्तुतत्त्वको सामान्य विशेषात्मक माना गया है, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि जो विशेष है वे सामान्यमे निष्ठ ( परिसमास ) है या सामान्य विशेषोमे निष्ठ है अथवा सामान्य और विशेष दोनो परस्पर में निष्ठ है ? इसका उत्तर इतना ही है कि ) जो विविध विशेष हैं वे सब सामान्यनिष्ठ है - अर्थात् एक द्रव्यमे रहने वाले क्रम भावी और सहभावीके भेद-प्रभेटको लिये हुए जो परिस्पन्द और परिस्पन्दरूप नाना प्रकार के पर्याय' हैं वे सब एक द्रव्यनिष्ठ होने से ऊर्ध्वता - सामान्य मे परिसमाप्त है । और इसलिये विशेषो में निष्ठ सामान्य नहीं है, क्योकि तब किसी विशेष (पर्याय) के प्रभाव होनेपर सामान्य (द्रव्य) के भी प्रभाव का प्रसंग आयेगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है - किसी भी विशेषके नष्ट होनेपर
१. क्रमभावी पर्यायें परिस्पन्दरूप हैं, जैसे उत्क्षेपणादिक । सहभावी पर्यायें परिस्पन्दात्मक हैं और वे साधारण, साधारणाऽसाधारण और असाधारण भेदसे तीन प्रकार हैं । सत्व प्रमेयत्वादिक साधारण धर्मं हैं, द्रव्यत्व- जीवत्वादिक साधारणाऽसाधारण धर्म हैं और वे श्रर्थ पर्यायें साधारण है जो द्रव्य - द्रव्यके प्रति प्रभिद्यमान और प्रतिनियत हैं।
२ सामान्य दो प्रकारका होता है - एक ऊर्ध्वतासामान्य दूसरा तिर्थकसामान्य । क्रमभावी पर्यायोंमे एकत्वान्वयज्ञानके द्वारा ग्राह्म जो द्रव्य है वह ऊर्ध्ववासामान्य है और नाना द्रव्यों तथा पर्यायोंमें सादृश्यज्ञानके द्वाप्राह्य जो सद्दशपरिणाम है वह तिर्यक सामान्य है ।
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का० ४०
सामान्यका अभाव नहीं होता, उसकी दूसरे विशेषो-पर्यायोमे उपलब्धि देखी जाती है और इससे सामान्यका सर्व-विशेषोमे निष्ठ होना भी बाधित पडता है। फलत: दोनोको निरपेक्षरूपसे परस्परनिष्ठ मानना भी बाधित है, उसमे दोनोका ही अभाव ठहरता है और वस्तु अाकाशकुसुमके समान अवस्तु हो जाती है ।
___(यदि विशेष सामान्यनिष्ठ हैं तो फिर यह शंका उत्पन्न होती है कि वर्णसमूहरूप पद किसे प्राप्त करता है-विशेषको, सामान्यको, उभयको या अनुभयको, अर्थात् इनमेसे किसका बोधक या प्रकाशक होता है ? इसका समाधान यह है कि ) पद जो कि विशेषान्तरका पक्षपाती होता हैद्रव्य, गुण, कर्म इन तीन प्रकारके विशेषोमेंसे किसी एकमे प्रवर्तमान हुआ दूसरे विशेषोको भी स्वीकार करता है, अस्वीकार करनेपर किसी एक विशेष मे भी उसकी प्रवृत्ति नहीं बनती-वह विशेषको प्राप्त कराता है अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्ममेसे एक को प्रधानरूपसे प्राप्त कराता है तो दूसरेको गौणरूपसे । साथ ही विशेषान्तरोंके अन्तर्गत उसकी वृत्ति होनेसे दूसरे (जात्यात्मक) विशेषको सामान्यरूपमें भी प्राप्त कराता है-यह सामान्य तिर्यक्सामान्य होता है। इस तरह पद सामान्य और विशेष दोनोको प्राप्त कराता है-एक को प्रधानरूपसे प्रकाशित करता है तो दूसरेको गौणरूपसे । विशेषकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल सामान्य और सामान्यकी अपेक्षा न रखता हुश्रा केवल विशेष दोनो अप्रतीयमान होनेसे अवस्तु है, उन्हे पद प्रकाशित नहीं करता। फलत. परस्पर निरपेक्ष उभयको और अवस्तुभूत अनुभयको भी पद प्रकाशित नहीं करता । किन्तु इन सर्वथा सामान्य, सर्वथा विशेष, सर्वथा उभय और सर्वथा अनुभयसे विलक्षण सामान्यविशेषरूप वस्तुको पद प्रधान और गौणभावसे प्रकाशित करता हुआ यथार्थताको प्राप्त होता है, क्योकि ज्ञाताकी उस पदसे उसी प्रकारकी वस्तु में प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है, प्रत्यक्षादि प्रमाणोकी तरह।'
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का० ४१
युक्त्यनुशासन यदेवकारोपहितं पदं तद्अस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्व
पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥४१॥ 'जो पद एवकारसे उपहित है-अवधारणार्थक 'एव' नामके निपातसे विशिष्ट है, जैसे 'जीव एवं' (जीव ही)-वह अस्वार्थसे स्वार्थको (अजीवत्वसे जीवत्वको) [ जैसे ] अलग करता है-अस्वार्थ ( अजीवत्व ) का व्यवच्छेदक है-[वैसे ] सब स्वार्थपर्यायो (सुखज्ञानादिक), सब स्वार्थसामान्यो (द्रव्यत्व-चेतनत्वादि) और सब स्वार्थविशेषों (अभिधानाऽविषयभूत अनन्त अर्थपर्यायो) सभीको अलग करता है-उन सबका भी व्यच्छेदक है, अन्यथा उस एक पदसे ही उनका भी बोध होना चाहिये, उनके लिये अलग-अलग पदोका प्रयोग (जैसे मै सुखी हूँ, ज्ञानी हूँ, द्रव्य हू, चेतन हूँ, इत्यादि ) व्यर्थ ठहरता है और इससे (उन क्रमभावी धो-पर्यायों, सहभावी धर्मोंसामान्यो तथा अनभिधेय धर्मो-अनन्त अर्थ-पर्यायोका व्यवच्छेद-अभावहोनेपर ) पदार्थकी (जीवपदके अभिधेयरूप जीवत्वकी) भी हानि उसी प्रकार ठहरती है जिस प्रकार कि विरोधी (अजीवस्व) की हानि होती है क्योकि स्वपर्यायो आदिके अभावमे जीवादि कोई भी अलग वस्तु सभव नही हो सकती।'
(यदि यह कहा जाय कि एवकारसे विशिष्ट 'जीव' पद अपने प्रतियोगी 'अजीव' पदका ही व्यवच्छेदक होता है-अप्रतियोगी स्वपर्यायो, सामान्यो तथा विशेषोका नहीं, क्योकि वे अप्रस्तुत-अविवक्षित होते है, तो ऐसा कहना एकान्तवादियोके लिये ठीक नहीं है क्योकि इससे स्याद्वाद (अनेकान्तवाद ) के अनुप्रवेशका प्रसग अाता है, और उससे उनके एकान्त सिद्धान्तकी हानि ठहरती है।)
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समन्तभद्र-भारती
का०४२
अनुक्त-तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावानियम-द्वयेऽपि । पर्याय-भावेऽन्यतरप्रयोग
स्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म-हीनम् ॥४२॥ 'जो पद एवकारसे रहित है वह अनुक्ततुल्य है-न कहे हुएके समान है क्योंकि उससे (कतृ-क्रिया विषयक ) नियम-द्वयके इष्ट होनेपर भी व्यावृत्तिका अभाव होता है-निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे जानेसे प्रतिपक्षकी निवृत्ति नहीं बन सकती-तथा (व्यावृत्तिका अभाव होने अथवा प्रतिपक्षकी निवृत्ति न हो सकनेसे) पदोंमें परस्पर पर्यायभाव ठहरता है, पर्यायभावके होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोंमेसे भी चाहे जिस पदका कोई प्रयोग कर सकता है और चाहे जिस पदका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभिधेयभूत वस्तुजात अन्यसे च्युत-प्रतियोगीसे रहित- होजाता है और जो प्रतियोगीसे रहित होता है वह आत्महीन होता है-अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नही हो सकता। इस तरह भी पदार्थकी हानि ठहरती है।"
व्याख्या-उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीव.' इस वाक्यमे 'अस्ति' और 'जीव.' ये दोनो पद एवकारसे रहित है । 'अस्ति' पदके साथ अवधारणार्थक 'एव' शब्दके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नही बनता और नास्तित्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'अस्ति' पदके द्वारा नास्तित्वका भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'अस्ति' पदके प्रयोगमे कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है। इसी तरह 'जीव' पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीवत्वका व्यवच्छेद नही बनता और अजीवत्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'जीव' पदके द्वारा अजीवत्वका भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'जीव' पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है। और इस तरह 'अस्ति' पदके द्वारा
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का० ५३
युक्तयनुशासन
५हूं
wwwwVAKAMV
स्तित्वका भी और 'नास्ति' पदके द्वारा अस्तित्वका भी प्रतिपादन होनेसे तथा 'जीव' पदके द्वारा जीव अर्थका भी और 'जीव' पदके द्वारा जीव अर्थका भी प्रतिपादन होनेसे ग्रस्ति नास्ति पदोमे तथा जीव प्रजीव पदोमे घटकुट (कुम्भ) शब्दोकी तरह परस्पर पर्यायभाव ठहरता है। पर्यायभाव होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोमे भी सभी मानवोके द्वारा, घट-कुट शब्दोकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर सपूर्ण अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य से ( प्रतियोगी से ) च्युत ( रहित ) हो जाता है - अर्थात् अस्तित्व नास्तित्व से सर्वथा रहित होजाता है और इससे सत्ताऽद्वैतका प्रसङ्ग आता है । नास्तित्त्वका सर्वथा अभाव होनेपर सत्ताऽद्वैत श्रात्महीन ठहरता है, क्योकि पररूपके त्यागके अभाव मे स्वरूप ग्रहणकी उपपत्ति नही बन सकती घटमे घटरूपके त्याग विना अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा नही बन सकती। इसी तरह नास्तित्वके सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रसङ्ग आता है और भाव भावके विना बन नही सकता, इससे शून्य भी श्रात्महीन ही होजाता है । शून्यका स्वरूपसे भी अभाव होनेपर उसके पररूपका त्याग असभव है - जैसे पटके स्वरूप ग्रहण के अभाव मे शाश्वत अपरूपके त्यागका असभव है । क्योकि वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूनके त्यागकी व्यवस्थापर ही निर्भर है । वस्तु ही पर द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षा श्रवस्तु होजाती है'। सकल स्वरूपसे शून्य जुदी कोई वस्तु सभव ही नहीं है । अतः कोई भी वस्तु जा अपनी प्रतिपक्षभूत वस्तुसे वर्जित है वह अपने आत्मस्वरूपको प्राप्त नही होती।
विरोधि चाऽभेद्यविशेष- भावात्तद्द्योतनः स्याद्गुणतो निपातः । विपाद्य- सन्धिश्च तथाऽङ्गभावादवाच्यता श्रायस - लोप हेतुः ॥४३॥
१ " वस्स्वेवाऽवस्तुता याति प्रक्रियाया विपर्ययात् । " — देवागम ४८
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का० ४३
समन्तभद्र - भारती
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'यदि (सत्ताद्वैतवादियो अथवा सर्वथा शून्यवादियोकी मान्यतानुसार सर्वथा अभेदका अवलम्बन लेकर ) यह कहा जाय कि पद - श्रस्ति या नास्ति - ( पने प्रतियागो पदके साथ सर्वथा) अभेदी है और इसलिये एक पदका श्रभिधेय अपने प्रतियोगी पदके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह आत्महीन नही है - तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नही, किन्तु विरोधी भी होजाता है, क्योकि किसी भी विशेषका - भेदका - तब अस्तित्व बनता ही नही ।'
५६
व्याख्या - उदाहरण के तोरपर, जो सत्ताऽद्वैत ( भावैकान्त) वादी यह कहता है कि 'अस्ति' पदका श्रभिधेय अस्तित्व 'नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे सर्वथा अभेदी (अभिन्न ) है उसके मतमे पदो तथा अभिधेयोका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है, क्योकि सत्ताऽद्वैत मतमे सम्पूर्ण विशेषो - भेदोका अभाव होनेसे अभिधान और अभिधेयका विरोध हैदोनो घटित नही हासकते, दोनोका स्वीकार करनेपर श्रद्वतता नष्ट होती है और उससे सिद्धान्त-विरोध घटित होता है । इसपर यदि यह कहा जाय कि 'अनादि विद्या वशसे भेदका सद्भाव है इससे दोष नहीं' तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योकि विद्या विद्या भेद भी तब बनते नहीं । उन्हे यदि माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उससे सत्ताऽद्वैत सिद्धान्तकी हानि होगी - वह नहीं बन सकेगा । अथवा अस्तित्वसे नास्तिस्व श्रभेदी है यह कथन केवल श्रात्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी है ( ऐसा 'च' शब्द के प्रयोग से जाना जाता है), क्योकि जब भेदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और नास्तित्व भेदोका भी प्रभाव है। जो मनुष्य कहता है कि 'यह इससे अभेदी है' उसने उन दोनोका कथचित् भेद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन नही सकता, क्योकि कथचित् ( किसी प्रकार से ) भी भेदीके न होनेपर भेदीका प्रतिषेध- प्रभेदी कहना - विरुद्ध पड़ता है कोई भेदी ही नही तो अभेदी ( न भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन
सकता है ? नही बन सकता ।
यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पभेदके कारण भेदी होने
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का०४३
युक्तयनुशासन
वालोका जो प्रतिषेध है वह उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दो
और विकल्पोके भेदको स्वय न चाहते हुए भी सजीके भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिससे द्वैतापत्ति होती है ? क्योकि सज्ञीका प्रतिषेध प्रति
थ-सजीके अस्तित्व विना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमे यदि यह कहा जाय कि दूसरे मानते है इसीसे शब्द और विकल्पके भेदको इष्ट किया गया है, इसमे कोई दोष नही,' तो यह कथन भी नहीं बनता, क्योकि अवतावस्थामे स्व-परका (अपने और परायेका) भेद ही जब इष्ट नहीं तब दूसरे मानते है यह हेतु भी सिद्ध नहीं होता, और असिद्ध-हेतु द्वारा साध्यकी सिद्धि बन नही सकती । इसपर यदि यह कहा जाय कि 'विचारसे पूर्व तो स्व परका भद प्रसिद्ध ही है तो यह बात भी नहीं बनती, क्योकि अब तावस्थामे पूर्वकाल और अपरकालका भेद भी सिद्ध नहीं होता। अत. सत्तावैतकी मान्यतानुसार सर्वथा भेदका अभाव माननेपर 'अभेदी' वचन विरोधी ठहरता है, यह सिद्ध हुआ। इसी तरह सर्वथा शून्यवादियांका नास्तित्वसे अस्तित्वको सर्वथा अभेदी बतलाना भी विरोधदोषसे दूषित है, ऐसा जानना चाहिये ।
(अब प्रश्न यह पैदा हाता है कि अस्तित्वका विरोधी होनेसे नास्तित्व धर्म वस्तुमे स्याद्वादियो- द्वारा कैसे विहित किया जाता है ? क्योकि 'अस्ति' पदके साथ 'एव' लगानेसे तो 'नास्तित्व' का व्यवच्छेद (अभाव) होजाता है और 'एवके साथमे न लगानेसे उसका कहना ही अशक्य ठहरता है-वह पद तब अनुक्ततुल्य होता है । इससे तो दूसरा कोई प्रकार न बन सकनेसे अवाच्यता-प्रवक्तव्यता ही फलित होती है । तब क्या वही युक्त है ? इस सब शङ्काका समाधान इस प्रकार हैं-)
'उस विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' नामका निपात (शब्द) हैजो (स्याद्वादियोके द्वारा सप्रयुक्त किया जाता है और) गौणरूपसे उस धर्मका द्योतन करता है-इसीसे दोनो विरोधी-अविरोधी (नास्तित्वअस्तित्व-जैसे) धमोका प्रकाशन-प्रतिपादन होते हुए भी जो विधिका अर्थी
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समन्तभद्र भारती
का० ४४
है उसकी प्रतिष धमे प्रवृत्ति नहीं होती। साथ ही, वह 'स्यात्' पद विपक्षभूत धर्मकी सन्धि-सयोजनास्वरूप होता है-उसके रहते दोनो धमोमे विरोध नहीं रहता, क्योंकि दोनोमें अङ्गपना है और स्यात्पद उन दोनों अङ्गोंको जोडने वाला है।' ।
'सर्वथा अवक्तव्यता ( युक्त नही हैं, क्योकि वह ) श्रायस-मोक्ष अथवा आत्महितके लोपकी कारण है क्योकि उपेय और उपायके वचन-विना उनका उपदेश नही बनता, उपदेशके विना श्रायसके उपाय का-मोक्षमार्गका अनुष्ठान नहीं बन सकता और उपाय (मार्ग) का अनुष्ठान न बन सकनेपर उपेयरूप श्रायस (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती। इस तरह अवक्तव्यता श्रायसके लोपकी हेतु ठहरती है। अत. स्यात्कारलाछित एवकारसे युक्त पद ही अर्थवान् है ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए, यही तात्पर्यात्मक अर्थ है।'
(इसतरह तो 'स्यात्' शब्दके सर्वत्र प्रयोगका प्रसङ्ग आता है, तब उसका पद-पदके प्रति अप्रयोग शास्त्रमे और लोकमे किस कारणसे प्रतीत होता है । इस शङ्काका समाधान इस प्रकार है-)
तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोगः सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । इति त्वदीया जिननाग ! दृष्टिः
पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ॥४४॥ '(शास्त्रमे और लोकमें 'स्यात्' निपातका) जो अप्रयोग है हरएक पदके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता-उसका कारण उस प्रकारका-स्यात्पदात्मक - प्रयोग - प्रकारका-प्रतिज्ञाशय है-प्रतिज्ञामे प्रतिपादन करनेवालेका अभिप्राय सन्निहित है। -जैसे शास्त्रमे 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग.' इत्यादि वाक्योमे कहीपर भी 'स्यात्' या 'एव'
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का०४५
युक्तयनुशासन
शब्दका प्रयोग नही है परन्तु शास्त्रकारोके द्वारा अप्रयुक्त होते हुए भी वह जाना जाता है, क्योकि उनके वैसे प्रतिजाशयका सद्भाव है। अथवा (स्याद्वादियोके) प्रतिषेधकी- सर्वथा एकान्तके व्यवच्छेदकी-युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित होजाती है क्योकि 'स्यात्' पदका आश्रय लिये विना कोई भी स्याद्वादी नही बनता और न स्यात्कारके प्रयोग विना अनेकान्तकी सिद्धि ही घटित होती है, जैसे कि एवकारके प्रयोग विना सम्यक् एकान्तकी सिद्धि नहीं होती । अतः स्याद्वादो होना ही इस बातको सूचित करता है कि उसका प्राशय प्रतिपदके साथ 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका है, भले ही उसके द्वारा प्रयुक्त हुए प्रतिपदके साथमे 'स्यात्' शब्द लगा हुआ न हो, यही उसके पद-प्रयोगकी सामर्थ्य है।'
(इसके सिवाय, “सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" इस प्रकारके वाक्यमे 'स्यात्' पदका अप्रयोग है, ऐसा नही समझना चाहिये, क्योकि 'स्वरूपादि चतुष्टयात्' इस वचनसे स्यात्कारके अर्थकी उसी प्रकार प्रतिपत्ति होती है जिस प्रकार कि 'कथञ्चित्त सदेवेष्ट' इस वाक्यमें 'कथञ्चित्' वचनसे स्यात्पदका प्रयोग जाना जाता है। इसी प्रकार लोकमे 'घट आनय' (घडा लाश्रो) इत्यादि वाक्यो मे जो 'स्यात' शब्दका अप्रयोग है वह उसी प्रतिज्ञाशयको लेकर सिद्ध है।)
'इस तरह हे जिन-नाग -जिनोमे श्रेष्ठ श्रीवीर भगवन् । आपकी ( नागदृष्टिसम अनेकान्त ) दृष्टि दूसरोके-सर्वथा एकान्तवादियोके द्वारा अप्रधृष्य है-अबाधितविषया है और साथ ही परधर्षिणी भी है-दूसरे भावैकान्तादि-वादियोंकी दृष्टिकी धर्षणा (तिरस्कृति) करनेवाली है-उनके सर्वथा एकान्तरूपसे मान्य सिद्धान्तोको बाधा पहुंचानेवाली है।'
विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिर्दिश एक एव । त्रयो विकल्पास्तव सप्तधाऽमी स्याच्छब्द-नेयाः सकलेऽर्थभेदे ॥४॥
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समन्तभद्र भारतो
का० ४६
A
'विधि, निषेध और अनभिलाप्यता- स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्वादवक्तव्यमेव-ये एक-एक करके ( पदके ) तीन मूल विकल्प हैं । इनके विपक्षभूत धर्मकी सधि-सयोजनारूपसे द्विसयोगज विकल्प तीन - स्यादस्ति - नास्त्येव, स्यादस्त्यवक्तव्यमेव, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेवहोते है और त्रिसंयोगज विकल्प एक - स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमेव— ही होता है । इस तरह से ये सात विकल्प हे वीर जिन | सम्पूर्ण अर्थभेद - शेष जीवादितत्त्वार्थ- पर्यायोमे, न कि किसी एक पर्यायमे - आपके यहाँ ( आपके शासन मे ) घटित होते है, दूसरो के यहाँ नही—क्योकि “प्रतिपर्याय सप्तभङ्गी" यह आपके शासनका वचन है, दूसरे सर्वथा एकान्तवादियो के शासन मे वह बनता ही नही। और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्द के द्वारा नेय हैं—नेतृत्वको प्राप्त है - अर्थात् एक विकल्प के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग होनेसे शेष छहो विकल्प उसके द्वारा गृहीत होते हैं, उनके पुन प्रयोगकी जरूरत नही रहती, क्योकि स्यात्पदके साथ मे रहने से उनके अर्थविषय मे विवादका प्रभाव होता है । जहाँ कही विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः प्रयोगमे भी कोई दोष नही है, क्योकि एक प्रतिपाद्यके भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोका सद्भाव होता है – उतने ही सशय उत्पन्न होते है, उतनी ही जिज्ञासाकी उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्नवचनो ( सवालो ) की प्रवृत्ति होती है । और 'प्रश्नके वश से एक वस्तु मे विरोधरूपसे विधि-निषेधकी जो कल्पना है उसीका नाम सप्तभङ्गी है' । त. नाना प्रतिपाद्यजनोकी तरह एक प्रतिपाद्यजनके लिये भी प्रतिपादन करनेवालोका सप्त - विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नही ठहरता है ।'
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स्यादित्यपि स्याद्गुण-मुख्य- कल्पैकान्तो यथोपाधि - विशेष - वीदयः ।
तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं द्विधा भवार्थ - व्यवहारवत्त्वात् ॥ ४६ ॥
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का०४६
युक्तयनुशासन 'स्यात्' (शब्द) भी गुण और मुख्य स्वभावोंके द्वारा कल्पित किये हुए एकान्तोंको लिये हुए होता है-नयोके आदेशसे । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानतासे अस्तित्व एकान्त मुख्य है, शेष नास्तिस्वादि-एकान्त गौण हैं, क्योकि प्रधानभावसे वे विवक्षित नहीं होते और न उनका निराकरण ही किया जाता है। इसके सिवाय, ऐसा अस्तित्व गधेके सीगकी तरह असम्भव है जो नास्तित्वादि धर्मोंकी अपेक्षा नही रखना। 'स्यात्' शब्द प्रधान तथा गौणरूपसे ही उनका द्योतन करता है-जिस पद अथवा धर्मके साथ वह प्रयुक्त होता है उसे प्रधान और शेष पदान्तरो अथवा धर्मोको गौण बतलाता है, यह उसकी शक्ति है। व्यवहार नयके आदेश (प्राधान्य ) से नास्तित्वादि-एकान्त मुख्य हैं और अस्तित्वएकान्त गौण है, क्योकि प्रधानरूपसे वह तब विवक्षित नहीं होता
और न उसका निराकरण ही किया जाता है, अस्तित्वका सर्वथा निराकरण करनेपर नास्तित्वादि धर्म बनते भी नही, जैसे कछवेके रोम | नास्तित्वादि धर्मों के द्वारा अपेक्षमान जो वस्तुका अस्तित्व धर्म है वह 'स्यात्' शब्दके द्वारा द्योतन किया जाता है। इस तरह 'स्यात्' नामका निपात प्रधान और गौणरूपसे जो कल्पना करता है वह शुद्ध (सापेक्ष) नयके आदेशरूप सम्यक् एकान्तसे करता है, अन्यथा नहीं क्योंकि वह यथोपाधि-विशेषणानुसार-विशेषका-धर्म-भेद अथवा धर्मान्तरका-द्योतक होता है, जिसका वस्तुमे सद्भाव पाया जाता है।'
(यहाँपर किसीको यह शङ्का नही करनी चाहिये कि जीवादि तत्त्व भी तब प्रधान गौणरूप एकान्तको प्राप्त होजाता है, क्योकि) तत्त्व तो अनेकान्त है-अनेकान्तात्मक है-और वह अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है, एकान्तरूप नही, एकान्त तो उसे नयकी अपेक्षासे कहा जाता है, प्रमाणकी अपेक्षासे नही, क्योकि प्रमाण सकलरूप होता है-विकलरूप नही, विकलरूप तत्त्वका एकदेश कहलाता है जो कि नयका विषय है और
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समन्तभद्र-भारती
का०४७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इसीसे सकलरूप तत्त्व प्रमाणका विषय है। कहा भी है--'सकलादेशः प्रमाणाधीन , विकलादेशो नयाधीन.।' ___और वह तत्त्व दो प्रकारसे व्यवस्थित है-एक भवार्थवान् होनेसे द्रव्यरूप, जिसे सद्रव्य तथा विधि भी कहते हैं, और दूसरा व्यवहारवान होनेसे पर्यायरूप, जिसे असद्रव्य, गुण तथा प्रतिषेध भी कहते है। इनसे भिन्न उसका दूसरा कोई प्रकार नहीं है, जो कुछ है वह सब इन्हीं दो भेदोके अन्तर्भूत है।'
न द्रव्य-पर्याय-पृथग-व्यवस्था द्वैयात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्च मिथस्त्रिधेमौ
न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ ॥४७|| सर्वथा द्रव्यकी ('द्रव्यमेव' इस द्रव्यमात्रात्मक एकान्तकी) कोई व्यवस्था नही बनती-क्योकि सम्पूर्ण पर्यायोसे रहित द्रव्यमात्रतत्त्व प्रमाणका विषय नहीं है-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वह सिद्ध नही होता अथवा जाना नही जासकता, न सर्वथा पर्यायकी ('पर्याय' एव-एक मात्र पर्याय ही इस एकान्त सिद्धान्तकी) कोई व्यवस्था बनती है क्योकि द्रव्य एकान्तकी तरह द्रव्यसे रहित पर्यायमात्र तत्त्व भी किसी प्रमाणका विषय नहीं है, और न सर्वथा पृथग्भूत--परस्परनिरपेक्ष-द्रव्य-पर्याय (दोनों) की ही कोई व्यवस्था बनती है क्योकि उसमे भी प्रमाणाभाव की दृष्टि से कोई विशेष नही है, वह भी सकल प्रमाणोके अगोचर है।'
'(द्रव्यमात्रकी, पर्यायमात्रकी तथा पृथग्भूतद्रव्य-पर्यायमात्रकी व्यवस्था न बन सकनेसे ) यदि सर्वथा द्वयात्मक एक तत्त्व माना जाय तो यह सर्वथा द्वैयात्म्य एककी अर्पणाके साथ विरुद्ध पडता है-सर्वथा एकत्त्वके साथ द्वयात्मकता बनती ही नही--क्योकि जो द्रव्यकी प्रतीतिका
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का०४८
युक्तयनुशासन mmmmmmmmmm हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका निमित्त है वे दोनो यदि परस्परमें भिन्नास्मा हैं तो कैसे तदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नही होता, क्योंकि अभिन्नका भिन्नात्माप्रोके साथ एकत्वका विरोध है । जब वे दोनो आत्माएँ एकसे अभिन्न हैं तब भी एक ही अवस्थित होता है, क्योकि सर्वथा एकसे अभिन्न उन दोनोके एकत्वकी सिद्धि होती है, न कि द्वयात्म्य (द्वयात्मकता) की, जो कि एकल्प के विरुद्ध है। कौन ऐसा अमूढ (समझदार) है जो प्रमाणको अङ्गीकार करता हुआ सर्वथा एक वस्तु के दो भिन्न प्रात्माअोकी अर्पणा--विवक्षा करे ?--मूढके सिवाय दूसरा कोई भी नही कर सकता । अत. द्वयात्मक तत्त्व सर्वथा एकार्पणाके--एक तत्त्वकी मान्यताके--साथ विरुद्ध ही है, ऐसा मानना चाहिये। ___(किन्तु हे वीर जिन 1) आपके मतमें-स्याद्वादशासनमे-ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दोनों असर्वथारूपसे तीन प्रकार-भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाऽभिन्न-माने गये हैं और (इसलिये) सर्वथा विरुद्ध नहीं हैं। क्योकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे विरुद्ध ठहरते हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं। अत. स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता है, न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोको सर्वथा अभिन्न प्रतिपादन करता है, न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध है। और इससे द्रव्य-एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा परस्परनिरपेक्ष पृथग्भूत द्रव्य-पर्याय. एकान्तको व्यवस्थाके न बन सकने का समर्थन होता है । द्रव्यादिके सर्वथा एकान्तमें युक्त्यनुशासन घटित नही होता।'
दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्मतत्त्व-व्यवस्थं सदिहाऽर्थरूपम् ॥४॥
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समन्तभद्र-भारती
का०४८
_ 'प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप-अबाधित-विषयस्वरूपअर्थका जो अर्थसे प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थसे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है-उसे युक्तयनुशासन-युक्तिवचन-कहते हैं और वही (हे वीर भगवान् । ) आपको अभिमत है।'
(यहाँ आपके ही मतानुसार युक्तयनुशासनका एक उदाहरण दिया जाता है और वह यह है कि ) अर्थका रूप प्रतिक्षण (प्रत्येक समय मे) 'स्थिति (ब्रौव्य ) उदय ( उत्पाद ) और व्यय (नाश ) रूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योकि वह सत् है।'
(इस युक्तयनुशासन मे जो पक्ष है वह प्रत्यक्षके विरुद्ध नही है, क्योकि अर्थका ब्रौव्योत्पादव्ययात्मक रूप जिस प्रकार बाह्य घादिक पदार्थोंमे अनुभव किया जाता है उसी तरह आत्मादि प्राभ्यन्तर पदार्थोंमे भी उसका साक्षात् अनुभव होता है । उत्पादमात्र तथा व्ययमात्रकी तरह स्थितिमात्रका-सर्वथा ब्रौव्यका-सर्वत्र अथवा कही भी साक्षात्कार नही होता । और अर्थके इस ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक रूपका अनुभव, बाधक प्रमाणका अभाव सुनिश्चित होनेसे, अनुपपन्न नहीं है-उपपन्न है, क्योकि कालान्तरमें ब्रौव्योत्पादव्ययका दर्शन होनेसे उसकी प्रतीति सिद्ध होती है, अन्यथा खर-विषाणादिकी तरह एक बार भी उसका योग नहीं बनता । अतः प्रत्यक्ष विरोध नही है । आगम-विराध भी इस युक्तयनुशासनके साथ घटित नही हो सकता, क्योंकि 'उत्पादव्यय-प्रौव्य-युक्त सत्' यह परमागमवचन प्रसिद्ध है-सर्वथा एकान्तरूप पागम दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट ( अनुमान ) के विरुद्ध अर्थका अभिधायी होनेसे ठग-पुरुषके वचनकी तरह प्रसिद्ध अथवा प्रमाण नही है। और इसलिये पक्ष निर्दोष है । इसी तरह सत्रूप साधन भी असिद्धादि दोषोसे रहित है। अतः 'अर्थका रूप प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक है सत् होनेसे,' यह युक्तयनुशासनका उदाहरण समीचीन है।)
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का०४६
युक्तयनुशासन
( इस तरह तो यह फलित हुश्रा कि एक ही वस्तु नाना-स्वभावको प्राप्त है जो कि विरुद्ध है । तब उसकी सिद्धि कैसे होती है ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-)
नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना। . अङ्गाङ्गि-भावात्तव वस्तु तयत्
क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥४६॥ '( हे वीर जिन ! ) आपके शासनमे जो (जीवादि ) वस्तु एक है ( सत्वरूप एकत्व-प्रत्यभिज्ञानका विषय हानेसे ) वह ( समीचीन नाना ज्ञानका विषय होनेसे) नानात्मता ( अनेकरूपता ) का त्याग न करती हुई ही वस्तुतत्त्वको प्राप्त होती है जो नानात्मताका त्याग करती है वह वस्तु ही नही, जैसे दूसरोके द्वारा परिकल्पित ब्रह्माद्वैत श्रादि । ( इसी तरह) जो वस्तु (अबाधित नानाज्ञानका विषय होनेसे ) नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मताको न छोड़ती हुई ही आपके मतमें वस्तुत्वरूपसे अभिमत है-अन्यथा उसके वस्तुत्व नही बनता, जैसे कि दूसरोके द्वारा अभिमत निरन्वय नानाक्षणरूप वस्तु । अतः जीवादिपदार्थसमूह परस्पर एक दूसरेका त्याग न करनेसे एक-अनेक-स्वभावरूप है, क्योकि वस्तुत्वकी अन्यथा उपपत्ति बनती ही नहीं यह युच्यनुशासन है। ____(इस प्रकारकी वस्तु वचनके द्वारा कैसे कही जा सकती है ? ऐसी शङ्का नही करनी चाहिए, क्योकि ) वस्तु जो अनन्तरूप है वह अङ्गअगीभावके कारण-गुण-मुख्यकी विवक्षाको लेकर-क्रमसे वचनगोचर है-युगपत् नहीं, युगपत् (एक साथ ) एक रूपसे और अनेकरूपसे वस्तु वचनके द्वारा कही ही नहीं जाती, क्योंकि वैसी वाणीका असभव है-वचनमें वैसी शक्ति ही नही है । और इस तरह क्रमसे प्रवर्तमान वचन वस्तुरूप-सत्य होता है उसके असत्यत्वका प्रसङ्ग नहीं
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समन्तभद्र-भारती
का०५०
आता, क्योकि उसकी अपने नानात्व और एकत्वविषयमें अङ्ग-अङ्गीभावसे प्रवृत्ति होती है। जैसे 'स्यादेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे एकत्व वाच्य है और गौणरूपसे अनेकत्व, स्यादनेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे अनेकत्व और गौणरूपसे एकत्व वाच्य है। इस तरह एकत्व और अनेकत्वके वचनके कैसे असत्यता होसकती है १ नही होसकती है । प्रत्युत इसके, सर्वथा एकत्वके वचन द्वारा अनेकत्वका निराकरण होता है और अनेकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी एकत्वके भी निराकरणका प्रसङ्ग उपस्थित होनेसे असत्यत्वकी परिप्राप्ति अभीष्ट ठहरती है, क्योकि वैसी उपलब्धि नहीं है । और सर्वथा अनेकत्वके वचनद्वारा एकत्वका निराकरण होता है और एकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी अनेकत्वके भी निराकरणका प्रसग उपस्थित होनेसे सत्यत्वका विरोध होता है। और इसलिये अनन्त धर्मरूप जो वस्तु है उसे अग-अंगी (अप्रधान-प्रधान) भावके कारण क्रमसे वाग्वाच्य (वचनगोचर ) समझना चाहिये।
मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ-हेतुनाँशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः। परस्परेक्षाः पुरुषार्थ-हेतु
दृष्टा नयास्तद्वदसि-क्रियायाम् ॥५०॥
(वस्तुको अनन्तधर्मविशिष्ट मानकर यदि यह कहा जाय कि वे धर्म परस्पर-निरपेक्ष ही हैं और धर्मी उनसे पृथक् ही है तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ) जो अंश-धर्म अथवा वस्तुके अवयव-परस्परनिरक्षेप हैं वे पुरुषार्थ के हेतु नहीं हो सकते, क्योकि उस रूपमें उपलभ्यमान नहीं हैं।-जो जिस रूपमें उपलभ्यमान नहीं वह उस रूपमे व्यवस्थित मी नहीं होता, जैसे अग्नि शीतताके साथ उपलभ्यमान नही है तो वह शीततारूपमें व्यवस्थित भी नहीं होती। परस्परनिरपेक्ष सत्वादिक धर्म
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का०५०
युक्त्यनुशासन अथवा अवयव पुरुषार्थहेतुतारूपसे उपलक्ष्यमान नहीं हैं, अतः पुरुषार्थता. हेतुरूपमे व्यवस्थित नहीं होते। यह युक्तयनुशासन प्रत्यक्ष और भागमसे अविरुद्ध है।
'जो अश-धर्म परस्पर-सापेक्ष है वे पुरुषार्थके हेतु हैं, क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं जो जिस रूपमें देखे जाते हैं वे उसी रूपमें व्यवस्थित होते हैं, जैसे दहन (अग्नि) दहनताके रूपमें देखी जाती है और इसलिये तद्र पभे व्यवस्थित होती है, परस्परसापेक्ष अशः स्वभावतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे देखे जाते हैं और इसलिये पुरुषार्थहेतुरूपसे व्यवस्थित हैं। यह स्वभावकी उपलब्धि है।
"( इसी तरह ) अशी-धर्मी अथवा अवयवी-अंशोंसे-धर्मों अथवा अवयवोंसे-पृथक् नहीं है, क्योंकि उसरूपमें उपलभ्यमान नहीं है-जो जिस रूपमें उपलभ्यमान नही वह उसमें नास्तिरूप ही है, जैसे अग्नि शीततारूपसे उपलभ्यमान नहीं है अतः शीततारूपसे उसका प्रभाव है। अशोंसे अशीका पृथक् होना सर्वदा अनुपलभ्यमान है अतः अशोसे पृथक् अशीका अभाव है । यह स्वभावकी अनुपलब्धि है। इसमे प्रत्यक्षतः कोई विरोध नहीं है, क्योकि परस्पर विभिन्न पदार्थों सह्याचल-विन्ध्याचलादि जैसोके अश-अशीभावका दर्शन नहीं होता। आगम-विरोध भी इसमें नहीं है, क्योंकि परस्पर विभिन्न अर्थोंके अश-अशीभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमका अभाव है, और जो भागम परस्पर विभिन्न पदार्थोंके अंश-अशीभावका प्रतिपादक है वह युक्ति-विरुद्ध होनेसे श्रागमाभास सिद्ध है। ___ 'अश-शीकी तरह परस्परसापेक्ष नय-नैगमादिक भी ( सत्तालक्षणा ) असिक्रियामें पुरुषार्थके हेतु हैं, क्योंकि उस रूप में देखे जाते हैं-उपलभ्यमान हैं। इससे स्थितिग्राहक द्रव्यार्थिकनयके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार और प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके ग्राहक पर्यायार्थिकनयके भेद ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवभूत ये सब परस्परमें सापेक्ष होते हुए ही वस्तुका जो साध्य अर्थक्रिया-लक्षण-पुरुषार्थ है उसके
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समन्तभद्र-भारती
का०५१
निर्णयके हेतु हैं-अन्यथा नहीं । इस प्रकार प्रत्यक्ष और श्रागमसे अविरोधरूप जो अर्थका प्ररूपण सतरूप है वह सब प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक है, अन्यथा सत्पना बनता ही नहीं । इस प्रकार युक्त्यनुशासनको उदाहृत जानना चाहिये ।'
एकान्त-धर्माऽभिनिवेश-मूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् । एकान्त-हानाच्च स यत्तदेव
स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५॥ '(जिन लोगोका ऐसा खयाल है कि जीवादिवस्तुका अनेकान्तात्मकरूपसे निश्चय होनेपर स्वात्माकी तरह परात्मामें भी राग होता है-दोनोमे कथचित् अभेदके कारण, तथा परात्माकी तरह स्वात्मामे भी द्वेष होता है-दोनोमे कथचित् भेदके कारण, और राग-द्वेषके कार्य ईर्ष्या, असूया, मद, मायादिक दोष प्रवृत्त होते हैं, जो कि ससारके कारण हैं, सकल विक्षोभके निमित्तभूत है तथा स्वर्गाऽपवर्गके प्रतिबन्धक है । और वे दोष प्रवृत्त होकर मनके समत्वका निराकरण करते हैं-उसे अपनी स्वाभाविक स्थितिमे स्थित न रहने देकर विषम-स्थितिमें पटक देते है-, मनके समत्वका निराकरण समाधिको रोकता है, जिससे समाधि हेतुक निर्वाण किसीके नहीं बन सकता । और इसलिये जिनका यह कहना है कि मोक्षके कारण समाधिरूप मनके समत्वकी इच्छा रखनेवाले को चाहिये कि वह जीवादि वस्तुको अनेकान्तात्मक न माने वह भी ठीक नहीं है, क्योकि)वे राग द्वेषादिक-जो मनकी समताका निराकरण करते हैं-एकान्तधर्माभिनिवेशमूलक होते हैं-एकान्त-रूपसे निश्चय किये हुए (नित्यत्वादि) धर्ममे अभि निवेश-मिथ्याश्रद्धान' उनका मूलकारण होता है-और (मोही-मिथ्यादृष्टि)
१. चुकि प्रमाणसे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही निश्चय होता है और सम्यक नयसे प्रतिपक्षकी अपेक्षा रखनेवाले एकान्तका व्यवस्थापन होता है अतः एकान्ताभिनिवेशका नाम मिथ्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धान है, यह प्रायः निीत है।
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का०५१ युक्तयनुशासन
६६ जीवोंकी अहकृतिसे-अहकार तथा उसके साथी ममकारसे २-वे उत्पन्न होते है । अर्थात् उन अहकार-ममकार भावोसे ही उनकी उत्पत्ति है जो मिथ्यादर्शनरूप मोह-राजाके सहकारी हैं--मन्त्री है, अन्यसे नहीदूसरे अहकार-ममकारके भाव उन्हे जन्म देनेमे असमर्थ है । और (सम्य ग्दृष्टि-जीवोके) एकान्तकी हानि से-एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभावसे--वह एकान्ताभिनिवेश उसी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दशेनत्वको धारण करता है जो आत्माका वास्तविक रूप है, क्योकि एकान्ताभिनिवेशका जो अभाव है वही उसके विरोधी अनेकान्तके निश्चयरूर सम्यग्दर्शनका सद्भाव है। और चूँकि यह एकान्ताभिनिवेशका अभावरूप सम्यग्दर्शन आत्माका स्वाभाविक रूप है अतः ( हे वीर भगवान् ! ) आपके यहाँ-आपके युक्त्यनुशासनमे-( सम्यग्दृष्टिके ) मनका समत्व ठीक घटित होता है। वास्तवमे दर्शनमोहके उदयरूप मूलकारणके होते हुए चारित्रमोहके उदयमे जो रागादिक उत्पन्न होते हैं वे ही जीवोके अस्वाभाविक परिणाम हैं, क्योकि वे औदयिक भाव हैं । और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो परिणाम दर्शनमोहके नाश, चारित्रमोहकी उदयहानि और रागादिके अभावसे होते हैं वे अात्मरूप हानेसे जीवोके स्वाभाविक परिणाम है-किन्तु पारिणामिक नही, क्योकि पारिणामिक भाव कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं रखते । ऐसी स्थितिमे असयत सम्यग्दृष्टिके भी स्वानुरूप मन साम्यकी
२. 'मैं इसका स्वामी' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह 'अहकार' है और मेरा यह भोग्य' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह 'ममकार' कहलाता है । अहकारके साथ यहाँ सामर्थ्यसे ममकार भी प्रतिपादित है
३. कहा भी है"ममकाराऽहकारौ सचिवाविव मोहनीयराजस्य । रागादि-सकलपरिकर-परिपोषण-तत्परौ सततम् ।।१॥"
-युक्त्यनुशासनटीकामे उद्धत् ।
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७.
समन्तभद्र-भारतो
का० ५२
अपेक्षा मनका सम होना बनता है, क्योकि उसके सयमका सर्वथा अभाव नहीं होता। अतः अनेकान्तरूप युक्त्यनुशासन रागादिकका निमित्तकारण नही, वह तो मनकी समताका निमित्तभूत है।
प्रमुच्यते-च प्रतिपक्ष-दूषी जिन ! त्वदीयैः पटुसिंहनादैः। एकस्य नानात्मतया ज्ञ-वृत्ते
स्तो बन्ध-मोक्षौ स्वमतादबाह्यौ ॥५२॥ (यदि यह कहा जाय कि अनेकान्तवादीका भी अनेकान्तमें राग और सर्वथा एकान्तमें द्वष होनेसे उसका मन सम कैसे रह सकता है, जिससे मोक्ष बन सके १ मोक्षके अभावमे बन्धकी कल्पना भी नही बनती। अथवा मनका सदा सम रहना माननेपर बन्ध नही बनता और बन्धके अभावमे मोक्ष घटित नही हो सकता, जो कि बन्धपूर्वक होता है। अत. बन्ध और मोक्ष दोनो ही अनेकान्तवादीके स्वमतसे बाह्य ठहरते हैं--मनकी समता और असमता दोनो ही स्थितियोमे उनकी उपपत्ति नहीं बन सकतीतो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ) जो प्रतिपक्षदूषी है--प्रतिद्वन्द्वीका सर्वथा निराकरण करनेवाला एकान्ताग्रही है-वह तो हे वीर जिन !
आप (अनेकान्तवादी ) के एकाऽनेकरूपता जैसे पटुसिंहनादोंसेनिश्चयात्मक एव सिंहगर्जनाकी तरह अबाध्य ऐसे युक्ति शास्त्राविरोधी
आगमवाक्योंके प्रयोगद्वारा प्रमुक्त ही किया जाता है--वस्तुतत्त्वका विवेक कराकर अतत्त्वरूप एकान्ताग्रहसे उसे मुक्ति दिलाई जाती हैक्योंकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्तका प्रमोचन है। ऐसी दशामे अनेकान्तवादीका एकान्तवादीके साथ कोई द्वेष नही हो सकता, और चूँ कि वह प्रतिपक्षका भी स्वीकार करनेवाला होता है इसलिये स्वपक्षमें उसका सर्वथा राग भी नहीं बन सकता । वास्तवमें तत्त्वका निश्चय ही राग नही होता ।
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का०५३
युक्त्यनुशासन
यदि तत्त्वका निश्चय ही राग होवे तो क्षीणमोहीके भी रागका प्रसग श्राएगा, जोकि असम्भव है, और न अतत्त्वके व्यवच्छेदको ही द्वेष प्रतिपादित किया जा सकता है, जिसके कारण अनेकान्तवादीका मन सम न रहे। अत: अनेकान्तवादीके मनकी समताके निमित्तसे होनेवाले मोक्षका निषेध कैसे किया जा सकता है ? और मनका समत्व सर्वत्र और सदाकाल नहीं बनता, जिससे राग-द्वेषके अभावसे बन्धके अभावका प्रसग आवे, क्योकि गुणस्थानोकी अपेक्षासे किसी तरह, कहीपर और किसी समय कुछ पुण्यबन्धकी उपपत्ति पाई जाती है। अतः बन्ध और मोक्ष दोनों अपने (अनेकान्त) मतसे--जोकि अनन्तात्मक तत्त्व विषयको लिये हुए हैंबाह्य नहीं हैं-उसीमे वस्तुतः उनका सद्भाव है क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों ज्ञवृत्ति हैं-अनेकान्तवादियोद्वारा स्वीकृत ज्ञाता श्रात्मामे ही उनकी प्रवृत्ति है । और इसलिये साख्योद्वारा स्वीकृत प्रधान (प्रकृति) के अनेकान्तात्मक होनेपर भी उसमें वे दोनो घटित नही हो सकते, क्योकि प्रधान (प्रकृति) के अज्ञता होती है-वह ज्ञाता नहीं माना गया है।"
आत्मान्तराऽभाव-समानता न वागास्पदं स्वाऽऽश्रय-भेद-हीना। भावस्य सामान्य-विशेषवत्त्वा
दैक्ये तयोरन्यतरन्निरात्म ॥५३॥ '(यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके प्रतिपादक शब्द पटुसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं हैं, क्योंकि बौद्धोके अन्याऽपोहरूप जो सामान्य है उसके वागास्पदता-वचनगोचरता-है, और वचनोंके वस्तु-विषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि) आत्मान्तरके अभावरूप-श्रात्मस्वभावसे भिन्न अन्य-अन्य स्वभावके अपोहरूपजो समानता ( सामान्य ) अपने आश्रयरूप भेदोंसे हीन ( रहित) है वह वागास्पद-वचनगोचर-नहीं होती, क्योकि वस्तु सामान्य और विशेष दोनो धर्मोको लिये हुए है।'
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समन्तभद्र-भारती
का०५४
'( यदि यह कहा जाय कि पदार्थके सामान्य-विशेषवान् होने पर भी सामान्यके ही वागास्पदता यु है, क्योकि विशेष उसीका अात्मा है, और इस तरह दोनोकी एकरूपता मानी जाय, तो ) सामान्य और विशेष दोनोंकी एकरूपता स्वीकार करनेपर एकके निरात्म ( अभाव ) होनेपर दूसरा भी (अविनाभावी होनेके कारण ) निरात्म ( अभावरूप ) हो जाता है और इस तरह किसीका भी अस्तित्व नही अन सकता, अतः दोनोकी एकता नहीं मानी जानी चाहिए।'
अमेयमश्लिष्टममेयमेव भेदेऽपि तवृत्त्यपवृत्तिभावात् । वृत्तिश्च कृत्लांश-विकल्पतो न
मानं च नाऽनन्त-समाश्यस्य ॥५४॥ ( यदि यह कहा जाय कि श्रात्मान्तराभावरूप-~-अन्यापोहरूपसामान्य वागास्पद नहीं है, क्योकि वह अवस्तु है, बल्कि वह सर्वगत सामान्य ही वागास्पद है जो विशेषोसे अश्लिष्ट है-किसी भी प्रकारके भेदको साथमे लिये हुए नहीं है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि ) जो अमेय है-नियत देश, काल और आकारकी दृष्टिसे जिसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जासकता-और अश्लिष्ट है-किसी भी प्रकार के विशेष ( भेद) को साथमें लिये हुए नही है-वह (सर्वव्यापी, नित्य, निराकाररूप सत्त्वादि ) सामान्य अमेय-अप्रमेय ही है किसी भी प्रमाणसे जाना नही जासकता। भेदके मानने पर भी सामान्यको स्वाश्रयभूत द्रव्यादिकोके साथ भेदरूप स्वीकार करने पर भी सामान्य प्रमेय नहीं होता, क्योंकि उन द्रव्यादिकोंमें उसकी वृत्तिकी अपवृत्ति (व्यावृत्ति ) का सद्भाव है--सामान्यकी वृत्ति उनमे मानी नही गई है, और जब तक सामान्यकी अपने आश्रयभूत द्रव्यादिकोमें वृत्ति नही है तब तक दोनोका संयोग. कुण्डीमे बेरोके समान ही होसकता है,
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का०५४
युक्तयनुशासन क्योकि सामान्यके अद्रव्यपना है तथा सयोगका अनाश्रयपना है और सयोगके द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालतमे सामान्यकी द्रव्यादिकमे वृत्ति नही बन सकती।' ____ 'यदि सामान्यको द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको कृत्स्न ( निरश ) विकल्परूप मानकर बनती है और न अ शविकल्परूप। क्योंकि अशकल्पनासे रहित कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और कालसे भिन्न व्यक्तियोमे युगपत्वत्ति सिद्ध नहीं की जासकती । उससे अनेक सामान्योंकी मान्यताका प्रसग अाता है, जो उक्त सिद्धान्तमान्यताके साथ माने नहीं गये है, क्योकि एक तथा अनशरूप सामान्यका उन सबके साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोके साथ युगपत् सम्बन्धवान् है, क्योकि वह सर्वगत, नित्य और अमूर्त है, जैसे कि आकाश, तो यह अनुमान भी ठीक नहीं है। इससे एक तो साधन इष्टका विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न देश-कालके व्यक्तियाके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध करता है उसी प्रकार यह सामान्यके अाकाशकी तरह साशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है, क्योकि सामान्यको निरश माना गया है। दूसरे, सामान्यके निरश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत होना उसी प्रकार विरुद्ध पड़ता है जिस प्रकार कि एक परमाणुका युगपत् सर्वगत होना विरुद्ध है, और इससे उक्त हेतु (साधन) असिद्ध है तथा असिद्ध-हेतुके कारण कृत्स्नविकल्परूप (निरश ) सामान्यका सर्वगत होना प्रमाणसिद्ध नहीं ठहरता।' __(यदि यह कहा जाय कि सत्तारूप महासामान्य तो पूरा सर्वगत सिद्ध ही है, क्योकि वह सर्वत्र सत्प्रत्ययका हेतु है, तो यह ठीक नहीं है, कारण ? ) जो अनन्त व्यक्तियोंके समाश्रयरूप है उस एक (सत्तामहासामान्य) के ग्राहक प्रमाणका अभाव है क्योकि अनन्त सद्व्यक्तियोके ग्रहण विना उसके विषयमे युगपत् सत् इस ज्ञानकी उत्पत्ति असर्वशो (छद्मस्थो) के नहीं बन सकती, जिससे सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी
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समन्तभद्र-भारती
का०५५
सिद्धि हो सके । सर्वत्र सस्प्रत्यय- हेतुत्वकी सिद्धि न होनेपर अनन्त समाश्रयी सामान्यका उक्त अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता । और इसलिये यह सिद्ध हुश्रा कि कृत्स्नविकल्पी सामान्यकी द्रव्यादिकोमें वृत्ति सामान्यबहुत्वका प्रसङ्ग उपस्थित होनेके कारण नही बन सकती । यदि सामान्यकी अनन्त स्वाश्रयोंमे देशतः युगपत् वृत्ति मानी जाय तो वह भी इसीसे दूषित होजाता है, क्योकि उसका ग्राहक भी कोई प्रमाण नही है। साथ ही सामान्यके सप्रदेशत्वका प्रसङ्ग श्राता है, जिसे अपने उस सिद्धान्तका विरोध होनेसे जिसमे सामान्यको निरश माना गया है, स्वीकार नही किया जा सकता ।
और इसलिये अमेयरूप एक सामान्य किसी भी प्रमाणसे सिद्ध न होने. के कारण अप्रमेय ही है-अप्रामाणिक है।'
नाना-सदेकात्म-समाश्रयं चेद्अन्यत्वमद्विष्ठमनात्मनोः क । विकल्प-शून्यत्वमवस्तुनश्चेत
तस्मिन्नमेये व खलु प्रमाणम् ॥५॥ 'नाना सतों-सत्पदार्थोंका-विविध द्रव्य-गुण-कर्मोंका-एक आत्माएक स्वभावरूप व्यक्तित्व, जैसे सदात्मा, द्रव्यात्मा, गुणास्मा अथवा कर्मास्मा–ही जिसका समाश्रय है ऐसा सामान्य यदि (सामान्य-वादियोके द्वारा ) माना जाय और उसे ही प्रमाणका विषय बतलाया जायअर्थात् यह कहा जाय कि सत्तासामान्यका समाश्रय एक सदात्मा, द्रव्यत्वसामान्यका समाश्रय एक द्रव्यात्मा, गुणत्वसामान्यका समाश्रय एक गुणात्मा अथवा कर्मत्व-सामान्यका समाश्रय एक कर्मात्मा जो अपनी क सद्व्यक्ति, द्रव्यव्यक्ति, गुणव्यक्ति अथवा कर्मव्यक्तिके प्रतिभासकालमें प्रमाणसे प्रतीत होता है वही उससे भिन्न द्वितीयादि व्यक्तियों के प्रतिभास-कालमें भी अभिव्यकताको प्राप्त होता है और जिससे उसके एक सत् अथवा एक व्यादिस्वभावकी प्रतीति होती है, इतने मात्र प्राश्रयरूप सामान्यके ग्रहणका निमित्त
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का०५५
युक्तयनुशासन
मौजूद है अतः वह प्रमाण है, उसके अप्रमाणता नहीं है, क्योकि अप्रमाणता अनन्तस्वभावके समाश्रयरूप सामान्यके घटित होती है तो ऐसी मान्यतावाले सामान्यवादियोंसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह सामान्य अपने व्यक्तियोंसे अन्य ( भिन्न ) है या अनन्य ( अभिन्न ) ? यदि वह एक स्वभावके आश्रयरूप सामान्य अपने व्यक्तियोंसे सर्वथा अन्य ( भिन्न ) है तो (उन व्यक्तियोके प्रागभावकी तरह असदात्मकत्व, अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्वका प्रसग आएगा
और व्यक्तियोंके असदात्मकत्व, अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्व-रूप होनेपर सत्सामान्य, द्रव्यत्वसामान्य, गुणत्वसामान्य अथवा कर्मत्वसामान्य भी व्यक्तित्वविहीन होनेसे अभावमात्रकी तरह असत् ठहरेगा, और इस तरह-)व्यक्तियों तथा सामान्य दोनोंके ही अनात्मा-अस्तित्वविहीनहोनेपर वह अन्यत्वगुण किसमे रहेगा जिसे अद्विष्ठ- एकमे रहने वाला माना गया है किसी भी उसका रहना नहीं बन सकता और इसलिए अपने व्यक्तियोसे सर्वथा अन्यरूप सामान्य व्यवस्थित नहीं होता।'
(यदि वह सामान्य व्यक्तियोसे सर्वथा अनन्य (अभिन्न ) है तो वह अनन्यत्व भी व्यवस्थित नहीं होता, क्योकि सामान्यके व्यक्तिमे प्रवेश कर जानेपर व्यक्ति ही रह जाती है-सामान्यकी कोई अलग सत्ता नहीं रहती और सामान्यके अभावमे उस व्यक्तिकी सभावना नही बनती इसलिए वह अनात्मा ठहरती है, व्यक्तिका अनात्मत्व (अनस्तित्व) होनेपर सामान्यके भी अनात्मत्वका प्रसग आता है और इस तरह व्यक्ति तथा सामान्य दोनों ही अनात्मा (अस्तित्व-विहीन ) ठहरते हैं, तब अनन्यत्वगुणकी योजना किसमे की जाय, जिसे द्विष्ठ ( दोनोमे रहने वाला ) माना गया है ? किसीमे भी उसकी योजना नही बन सकती । और इसके द्वारा सर्वथा अन्य-अनन्यरूप उभय-एकान्तका भी निरसन हो जाता है, क्योकि उसकी मान्यतापर दोनो प्रकारके दोषोका प्रसग पाता है।)
'यदि सामान्यको (वस्तुभूत न मान कर) अवस्तु (अन्याऽपोहरूप) ही इष्ट किया जाय और उसे विकल्पोंसे शून्य माना जाय
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समन्तभद्र-भारतो
का०५६
यह कहा जाय कि उसमे खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प ही नही बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष दिये गये है उनके लिए अवकाश नही रहता-तो उस अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणकी प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नही रहता और इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।'
(इस तरह दूसरोके यहाँ प्रमाणाभावके कारण किसी भी सामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।)
ब्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धयेद् विपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम् । अतव्युदासाऽभिनिवेश-वादः
पराऽभ्युपेताऽर्थ-विरोध-वादः ॥५६।। 'यदि साध्यको-सत्तारूप परसामान्य अथवा द्रव्यत्वादिरूप अपर सामान्यका-व्यावृत्तिहीन अन्वयसे-असत्की अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदायगी) के विना केवल सत्तादिरूप अन्वय-हेतुसेसिद्ध माना जाय तो वह सिद्ध नही होता-क्योकि विपक्षकी व्यावृत्तिके विना सत्-असत् अथवा द्रव्यत्व अद्रव्यत्वादिरूप साधनोके सकरसे सिद्धिका प्रसग आता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो सदादि. रूप अनुवृत्ति (अन्वय ) है वही असदादिकी व्यावृत्ति है, क्योकि अनुवृत्ति (अन्वय ) भाव-स्वभावरूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोमे भेद माना गया है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि सदादिके अन्वयपर असदादिककी व्यावृत्ति सामर्थ्य से ही हो जाती है, क्योकि तब यह कहना नही बनता कि 'व्यावृत्तिहीन अन्वयसे उस साध्यकी सिद्धि होती है-सामर्थ्य से असदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप हेतु असदादिकी व्यावृत्तिसहित है, उसीसे सत्सा
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युक्त यनुशासन
मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि-सामान्यकी सिद्धि होती है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य-विशेषाख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।' ___ 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह भी नही बनता-क्योकि सर्वथा अन्वयरहित अतव्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापोहकी सिद्धि होनेपर भी उसकी विधिकी असिद्धि होनेसे—उस अर्थक्रियारूप सात्यकी सिद्धिके अभावसेउसमे प्रवृत्तिका विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना भी नही बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोके एकत्वाऽध्यवसायसे प्रवृत्तिके होनेपर साध्यकी सिद्धि हाती है, क्योकि दृश्य और विकल्प्यका एकत्वाध्यवसाय असम्भव है । दर्शन उस एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता, क्योकि विकल्प्य उसका विषय नहीं है । दर्शनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता, क्योकि दृश्य विकल्पका विषय नहीं है और दोनोको विषय करनेवाला कोई ज्ञानान्तर सम्भव नहीं है, जिससे उनका एकत्वाध्यवसाय हो सके और एकत्वाध्यवसायके कारण अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रसे अन्यापोहरूप सामान्यकी सिद्धि बन सके । इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यकी सिद्धि नही बनती।'
_ 'यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति दोनोंसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका प्रतिभासन होनेसे सत्ताद्वैतरूप सामान्यकी सिद्धि होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि सर्वथा अद्वितयकी मान्यतापर साध्य-साधनकी भेदसिद्धि नहीं बनती
और भेदकी सिद्धि न होनेपर साधनसे-साध्यकी सिद्धि नही बनतो और साधनसे साध्यकी सिद्धिके न होनेपर अद्वितय-हेतु विरुद्ध पडता है।' ___'यदि अद्वितयको सवित्तिमात्रके रूपमे मानकर असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे साध्यको अतव्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित किया जाय तब भी ( बौद्धोके मत में ) पराभ्यपेतार्थ के विरोधवादका प्रसङ्ग आता है, अर्थात् बौद्धोके
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समन्तभद्र-भारती द्वारा सवेदनाद्वैतरूप जो अर्थ पराभ्युपगत है वह अतव्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहवचनरूपसे-विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि किसी असाधन तथा असाध्यके अर्थाभावमे उनकी अव्यावृत्तिसे साध्यसाधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी सिद्धि होती है । इस तरह बौद्धोके पूर्वाभ्युपेत अर्थके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है ,
अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्तिवस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः। अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः
न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः ॥५॥ "(यदि बौद्धोकी तरफसे यह कहा जाय कि वे साधनको अनात्मक मानते हैं, वास्तविक नहीं और साध्य भी वास्तविक नहीं है, क्योकि वह सवृत्तिके द्वारा कल्लिताकाररूप है, अतः पराभ्युपेतार्थके विरोधवादका प्रसङ्ग नहीं आता है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; (क्योंकि) अनात्मा–नि स्वभाव सवृतिरूप तथा असाधनकी व्यावृत्तिमात्ररूपसाधनके द्वारा उसी प्रकारके अनात्मसाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जानकारी) है उसकी सर्वथा अयुक्ति-अयोजना है-वह बनती ही नहीं।।
यदि (सवेदनाद्वैतरूप) वस्तुमें अनात्मसाधनके द्वारा अनात्मसाध्यकी गतिकी अयुक्तिसे पक्षकी सिद्धि मानी जाय-अर्थात् सवेदनाद्वैतवादियोके द्वारा यह कहा जाय कि साध्य-साधनभावसे शून्य सवेटनमात्रके पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वसिद्धि है, तो (विकल्पिताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रतिपक्षकी-द्वैतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप साधन अद्वैततत्त्वरूप साध्यको सिद्ध नहीं करता है, क्योंकि ऐसा होनेसे अतिप्रसंग आता है-विपक्षकी भी सिद्धि ठहरती है।
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___ 'और यदि साधनके विना स्वतः ही संवेदना तरूप साध्यकी सिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नही है क्योकि तब पुरुषाद्वतकी भी स्वय सिद्धिका प्रसग आता है, उसमे किसी भी बौद्धको विप्रतिपचि नहीं हो सकती।'
निशायितस्तैः परशुः परघ्नः. स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञः। वैतण्डिकैयः कुसृतिः प्रणीता
मुने ! भवच्छासन-हक-प्रमूढः ॥८॥ (इस तरह) हे वीर भगवन् । जिन वैतण्डिकोंने-परपक्षके दूषण को प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको लिए हुए सवेदनाद्वैतवादियोनेकुसृतिका-कुत्सिता गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके (स्याद्वाद) शासनकी दृष्टिसे प्रमूढ एव निर्भेदके भयसे अनभिज्ञ जनोंने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके कारण) परघातक परशुकुल्हाड़ेको अपने ही मस्तकपर मारा है ।। अर्थात् जिस प्रकार दूसरेके घातके लिये उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मस्तकपर पड़ता है तो अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ कहलाते हैं उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने वाले वैतण्डिकोंके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इसलिये उन्हे भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एव दृकप्रमूढ समझना चाहिये।
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदहतस्ते। प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तु-व्यवस्थाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५६॥
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समन्तभद्र-भारती
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'(यदि यह कहा जाय कि 'साधनके विना साध्यकी स्वय सिद्धि नहीं होती' इस वाक्यके अनुसार सवेदनाद्वैतकी भी सिद्धि नही होती तो मत हो, परन्तु शून्यतारून सर्वका अभाव तो विचारबलसे प्राप्त हो जाता है, उसका परिहार नही किया जा सकता अत. उसे हो मानना चाहिये तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ) हे वीर अहन | आपके मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है बाह्य तथा आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव होनेपर सर्वशु यतारूर तदभाव सम्भव नहीं हो सकता, क्योकि स्वधर्मीके असम्भव होनेपर किसी भी धर्म की प्रतीति नहीं बन सकती। अभावधर्मकी जब प्रतीति है तो उसका काई वर्मों (बाह्य-आभ्यन्तर पदार्थ) होना ही चाहिये, और इस लिये सर्वशून्यता घटित नही हो सकती। सर्व ही नही तो सर्व-शून्यता कैसी १ तत् ही नही तो तदभाव कैसा १ अथवा भाव ही नहीं तो अ-भाव किसका १ इसके सिवाय, यदि वह अभाव स्वरूपसे है तो उसके वस्तुधर्मत्वकी सिद्धि है, क्योकि स्वरूपका नाम ही वस्तुधर्म है। अनेक धमोमेसे किसी धर्मके अभाव होनेपर वह अभाव धर्मान्तर ही होता है और जो धर्मान्तर होता है वह कैसे वस्तुधर्म सिद्ध नहीं हाता १ होता ही है । यदि वह अभाव स्वरूपसे नही है तो वह अभाव ही नहीं है, क्योकि अभावका अभाव हानेर भावका विधान होता है । और यदि वह अभाव (धर्मका अभाव न होकर) धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है जैसे कि कुम्भका जो अभाव है वह भूभाग है और वह भावान्तर ( दूसरा पदार्थ) ही है, योगमतकी मान्यताके अनुसार सकल-शक्तिविरहरूप तुच्छ नही है । साराश यह कि अभाव यदि धर्मका है तो वह धर्मकी तरह धर्मान्तर होनेसे वस्तुधर्म है और यदि वह धर्मीका है तो वह भावकी तरह भावान्तर (दूसरा धमी) होनेसे स्वय दूसरी वस्तु है-उसे सकलशक्ति-शून्य तुच्छ नहीं कह सकते। और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है, व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु-व्यवस्थाके अङ्गरूपमें निर्दिष्ट किया जाता है। (यदि धर्म अथवा धींके अभावको किसी प्रमाणसे नहीं जाना जाता
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ता वह कैसे व्यवस्थित होता है ? नही होता। यदि किसी प्रमाणसे जाना जाता है तो वह धर्म-धर्मके स्वभाव - भावकी तरह बस्तु-धर्म अथवा भावान्तर हुआ । और यदि वह प्रभाव व्यपदेशको प्राप्त नही होता तो कैसे उसका प्रतिपादन किया जाता है ? उसका प्रतिपादन नही बनता । यदि व्यपदेशका प्राप्त होता है तो वह वस्तुधर्म अथवा वस्त्वन्तर ठहरा, अन्यथा उसका व्यपदेश नही बन सकता। इसी तरह वह भाव यदि वस्तु व्यवस्थाकाग नही तो उसकी कल्पनासे क्या नतीजा १ 'घटमें पटादिका अभाव है' इस प्रकार पटादिके परिहार द्वारा अभावको घट-व्यवस्थाका कारण परिकल्पित किया जाता है, अन्यथा वस्तु में सङ्कर दोषोका प्रसग आता है - एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप भी कहा जा सकता है, जिससे वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं रहती - श्रतः श्रभाव वस्तु व्यवस्थाका श्रग है और इस लिये भावकी तरह वस्तुधर्म है | )
'जो अभाव तत्व (सर्वशून्यता ) वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग नहीं है वह (भाव-एकान्तकी तरह) अमेय (प्रमेय) ही है- किसी भी प्रमाणके गोचर नहीं है ।'
(इस तरह दूसरोके द्वारा परिकल्पित वस्तुरूप या श्रवस्तुरूप सामान्य जिस प्रकार वाक्यका अर्थ नही बनता उसी प्रकार व्यक्तिमात्र परस्पर-निरपेक्ष उभयरूप सामान्य भी वाक्यका श्रर्थ नही बनता, क्योकि वह सामान्य अमेय है - सम्पूर्ण प्रमाणोंके विषयसे प्रतीत है अर्थात् किसी भी प्रमाणसे उसे जाना नहीं जा सकता | )
विशेष - सामान्य - विषक्त-भेदविधि-व्यवच्छेद- विधायि-वाक्यम् । भेद-बुद्ध रविशिष्टता स्याद् व्यावृत्ति बुद्धश्व विशिष्टता ते ॥ ६०॥ 'वाक्य (वस्तुतः ) विशेष (विसदृश परिणाम) और सामान्य
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समन्तभद्र-भारती
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(सदृश परिणाम) को लिये हुए जो (द्रव्यपर्यायकी अथवा द्रव्य-गुणकर्मकी व्यक्तिरूप) भेद हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता है। जैसे 'घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके लानेरूप विधिका विधायक (प्रतिपादक) है उसी प्रकार अघटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोगका प्रसग श्राता है और उस वाक्यान्तरके भी तत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह वाक्यान्तरके प्रयोगकी कहीं भी समाप्ति न बन सकनेसे अनवस्था दोषका प्रसग आता है, जिससे कभी भी घटके लानेरूप विधिकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकती । अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और जो मुख्यरूपसे प्रतिषधका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन करना चाहिये।
(हे वीर जिन !) आपके यहॉ-आपके स्याद्वाद-शासनमें-(जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी प्रकार) व्यावृत्ति ( भेद ) बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है।
सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्प मन्तिशून्यं च मिथोऽनपेचम् । सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ . (हे वीर भगवन् ।) आपका तीर्थ-प्रक्चनरूप शासन, अर्थात् परमागमवाक्य, जिसके द्वारा ससार-महासमुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान है-सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषक, एक-अनेक, आदि अशेष धमोंको लिये हुए है और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है, इसीसे
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५३ सुव्यवस्थित है, उसमें असगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है। जो शासन-वाक्य धर्मोंमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोंसे शून्य हैउसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थव्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अत आपका ही यह शासनतीर्थ सर्व-दु खोंका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है-किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा खडनीय नही है और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा सर्वोदय-तीर्थ है।
भावार्थ-आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो (परस्परनिरपेक्ष नयो) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही ससारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादशनोका अन्त करनेवाला हानेसे अापका शासन समस्त आपदाओका अन्त करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते हैं-उसे पूर्णतया अपनाते हैं उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय-उत्कर्ष एब विकास-सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं ।
कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो
भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२।। (हे वीर जिन 1) आपके इष्ट-शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ, उपपत्ति-चक्षुसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक युक्तिसङ्गत समाधानकी दृष्टिसे--
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आपके इष्टका - शासनका - अबलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य हो उसका मानशृङ्ग खडित होजाता है— सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका श्राग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । अथवा यो कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है ।।'
(शिखरिणी वृत्त ' )
न रागान्नः स्तोत्रं भवति भव- पाश - च्छिदि सुनौ न चाऽन्येषु द्वेषादपगुण-कथाऽभ्यास-खलता । किमु न्यायाsन्याय प्रकृत-गुणदोषज्ञ - मनसां हिताऽन्वेषोपायस्तव गुण - कथा - सङ्ग-गदितः ||६३ ॥
' (हे वीर भगवन् 1 ) हमारा यह स्तोत्र आप जैसे भव-पाश-छेदक मुनिके प्रति रागभावसे नहीं है, न हो सकता है- क्योंकि इधर तो हम परीक्षा - प्रधानी हैं और उधर श्रापने भव पाशको छेदकर संसार से अपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है; ऐसी हालत में श्रापके व्यक्तित्वके प्रति हमारा राग-भाव इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता । दूसरों के प्रति द्वेषभाव से भी इस स्तोत्रका कोई सम्बन्ध नहीं हैक्योंकि एकान्तवादियो के साथ अर्थात् उनके व्यक्तित्व के प्रति हमारा कोई द्व ेष नही है – हम तो दुगुखोंकी कथाके अभ्यासको खलता समते हैं और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे वह 'खलता' हममे नही है, और इसलिये दूसरोंके प्रति द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो सकता । तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उद्देश यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और प्रकृत
1. इससे पूर्वका समग्र ग्रन्थ उपजाति और उपजाति जिनसे मिलकर बनता है उन इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा वृत्तों (छन्दों) में हैं ।
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पदार्थ के गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र 'हितान्वेषण के उपायस्वरूप' आपकी गुणकथा के साथ कहा गया है । इसके सिवाय, जिस भवन्याशको आपने छेद दिया है उसे छेदना अपने और दूसरो ससारबन्धनोको तोडना - हमे भी इष्ट है और इस लिये यह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका एक हेतु है । इस तरह यह स्तात्र श्रद्धा और गुणज्ञता की अभिव्यक्ति के साथ लोक-हितकी दृष्टिको लिये हुए है ।'
इति स्तुत्यः स्तुत्यैस्त्रिदश - मुनि-मुख्यैः प्रणिहितैः स्तुतः शक्त्या श्रेयः पदमधिगस्त्वं जिन ! मया । 'महावीरो वीरो दुरित - पर-सेनाऽभिविजये विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ ॥६४॥
1
'हे वीर जिनेन्द्र | आप चूँ कि दुरितपरकी - मोहादिरूप कर्मशत्रु श्रोकी - सेनाको पूर्णरूप से पराजित करने में वीर हैं - वीर्यातिशयको प्राप्त है— निःश्रेयस पदको धिगत (स्वाधीन) करने से महावीर हैं और देवेन्द्रों तथा मुनीन्द्रों ( गणधर देवादिको ) जैसे स्वय स्तुत्योंके द्वारा एकाग्रमनसे स्तुत्य हैं, इसीसे मेरे - मुझ परिक्षाप्रधानीके - द्वारा शक्तिके अनुरूप स्तुति किये गये हैं। अत अपने ही मार्गमे-अपने द्वारा अनुष्ठित एव प्रतिपादित सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्गमें, जो प्रतिनिधिरहित है —— श्रन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे निर्णीत हे अर्थात् दूसरा कोई भी मार्ग जिसके जोडका अथवा जिसके स्थान पर प्रतिष्ठित होनेके योग्य नही है — मेरी भक्तिको सविशेष रूपसे चरितार्थ करो -- श्राप के मार्गकी श्रोता और उससे श्रभिमत फलकी सिद्धिको देखकर मेरा अनुराग ( भक्तिभाव ) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढे जिससे मैं भी उसी मार्गकी श्राराधना - साधना करता हुआ कर्मशत्रु श्रोंकी सेनाको जीतने में समर्थ होऊ और निःश्रेयस (मोक्ष) पदको प्राप्त करके सफल मनोरथ हो सकूँ । क्यो क
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समन्तभद्र-भारती
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सच्ची सविवेक भक्ति ही मार्गका अनुसरण करनेमे परम सहायक होती है और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्गका अनुसरण करना अथवा उसके अनुकूल चलना ही स्तुतिको सार्थक करता है, इसीसे स्तोत्र के अन्त में ऐसी फलप्राप्तिकी प्रार्थना अथवा भावना की गई है ।'
इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति - सकलतार्किकचक्रचूडामणिश्रद्धागुणज्ञता दिसातिशयगुणगणविभूषित-सिद्धसारस्वत
स्वामिसमन्तभद्राचार्यवर्य-प्रणीत हितान्वेषणोपायभूत युक्त्यनुशासन स्तोत्र समाप्तम् ।
इस स्तोत्र की श्रीविद्यानन्दाचार्य विरचित सस्कृतटीकाके अन्त में स्तुत्याsभिनन्दन और ग्रन्थ- प्रशस्स्यादिके रूपमें जो दो महत्व के पद्म पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं :
स्थेयाज्जातजयध्वजाऽप्रतिनिधि: प्रोभूत-भूरिप्रभुः प्रध्वस्ताsखिल दुनेय द्विषभिः सन्नति-सामध्यतः । सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्ग-मथनोऽर्हन्वीरनाथ. श्रिये शश्वत्स स्तुति - गोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥ १॥ श्रीमद्वीर - जिनेश्वराऽमल गुण स्तोत्र परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्व समीच्याऽखिलम् । प्रोक्तं युक्तयनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गाऽनुगैविद्यानन्द-बुधैरलंकृत मिद श्रीसत्यवाक्याधिपै ||२||||
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युक्त्यनुशासनकी कारिकाओंका
अकारादि-क्रम
५४ । तथापि
कारिका
पृष्ठ । कारिका अतस्वभावेऽप्यनयोरुपाया- ३२ कृतप्रणाशाप्रकृतकम भोगौ १७ अनार्थकासाधनसाध्यधीश्चेद् २० तत्त्व विशुद्ध सकलैर्विकल्पै- २४ अनात्मनाऽनात्मगतरयुक्ति- ७८ तथा न तत्कारणकार्यभावो १४ अनुक्कतुल्य यदनेवकार | तथापि वै यात्यमुपेत्य भक्त्या ३ अभावमात्र परमार्थवृत्तेः २६ तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोग. ५८ अभेदभेदात्मकमर्थतत्त्व ५ व शुद्धिशक्त्योरुदयस्य काष्ठा ३ अमेयमश्लिष्टममेयमेव ७२ दयादमत्यागसमाधिनिष्ठ ४ अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावा ३४ | दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थ- ६३ अशासदञ्जासिवचासि शास्ता २५ | दृष्टोऽविशिष्ट जननादिहेतौ ४५. अहेतुकत्वप्रथितः स्वभावः ६ न द्रव्यपर्यायपृथव्यवस्था ६२ अात्मान्तराऽभावसमानता न ७१ न बन्धमोक्षौ क्षणिकैकसस्थौ १८ इति स्तुत्य. स्तुत्यैः त्रिदश- न रागान, स्तोत्र भवति भव- ८४ उपेयतत्वानभिलाध्यतावद् ३३ न शास्तृशिष्यादिविधिव्यवस्था २० एकान्तधर्माऽभिनिवेशमूला ६८ न सच्चनाऽसच्च न दृष्टमेक- ३६ काम द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः ८३ नानात्मतामप्रजहत्तदेक- ६५ कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा ४ नानासदेकात्मसमाश्रय चेद् ७४ कालान्तरस्थे क्षणिक ध्रुवे वा ३६ / निशायितस्तै. परशु. परनः ७६ कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं १ नैवास्ति हेतु क्षणिकात्मवादे १६
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________________ 8 समन्तभद्र-भारती कारिका पृष्ठ / कारिका प्रतिक्षण भगिषु तत्पृथक्त्वा- 16 विद्याप्रसूत्यै दिल शील्यमाना 28 प्रत्यक्षनिर्देशवदप्यसिद्ध विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च 56 प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र 26 विरोधि चाऽमेघविशेषमावात् 55 प्रमुच्यते च प्रतिपक्षदूषी 70 विशेषसामान्यविषक्त मेद- 81 प्रवृत्तिरक्तः समन्तुष्टि-रिक्त 46 व्यतीतसामान्यविशेषभावाद् 30 भवत्यभावाऽपि च वस्तुधर्मों व्यावृत्ति हीनान्वयतो न सिद्ध येद् 76 भावेषु नित्येषु विकारहाने 76 शीर्षोपहारादिभिरामदु.खै. 46 मद्यागवद्भूतसमागमे ज्ञः सत्यानृत वाप्यन्तामृत वा 35 मिथोऽनपेक्ष. पुरुषार्थहेतु सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प 82 मूकात्मसंवेद्यवदात्मवेद्य सहक्रमाद्वा विषयाल्पभूरि- 35 यदेवकारोपहित पद तद् | सामान्यनिष्ठाविविधा विशेषाः 51 याथात्म्यमुल्लण्य गुणोदयाख्या 2 स्यादित्यपि स्याद्गुणमुख्य कल्प-६० बेषामवक्तव्यमिहात्मतत्त्वं | स्वच्छन्दवृत्तेजेगतः स्वभावा- 47 रागाद्यविद्यानलदीपनञ्च 27 / हेतुर्नदृष्टोऽत्र नचाऽध्यदृष्टो 40 25