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का००८
युक्त्यनुशासन • rrrrrrrammar प्रकार सत्स्वभावरूप तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता, विरोध नजर आता है-सर्वथा क्षणिक (अनित्य) और सर्वथा अक्षणिक (नित्य ) श्रादिरूप मान्यताएँ विरोधको लिये हुए है । स्याद्वाद-शासनसे भिन्न परमतमे सत्तत्त्व बनता ही नहीं-सर्वथा क्षणिक और सर्वथा अक्षणिककी मान्यतामें दूसरी जातिके ( परस्पर निरपेक्ष ) अनेकान्तका दर्शन होता है, जो सदोष है अथवा वस्तुत. अनेकान्त नही हैं । सत्तत्त्व सर्वथा एकान्तात्मक है ही नही, क्योकि प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे उसकी उपलब्धि नही होती।'
"(इसपर यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे भले ही सत्तत्त्वकी उपलब्धि ( दर्शन-प्राप्ति ) न होती हो, परन्तु परपक्षके दूषणसे तो उसकी सिद्धि होती ही है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ) जो यथार्थ वाच्य होता है वह दूषणरूप नही होता-जिसको क्षणिक-एकान्तवादी परपक्षमे स्वय दूषण बतलाता है उसमें यथा वाच्यता होनेसे अथवा परपक्षकी तरह स्वपक्षमे भी उसका सद्भाव होनेसे उसे दूषणरूप नही कह सकते, वह दूषणाभास है। और जो दूषण परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी निगकरण करता हो वह यथार्थ वाच्य नहीं हो सकता। वास्तवमे दोनो सर्वथा एकान्तोसे, विरोधके कारण, अनेकान्तकी निवृत्ति होती है, अनेकातकी निवृत्तिसे क्रम और अक्रम निवृत्त होजाते हैं, क्रम-अक्रमकी निवृत्तिसे अर्थक्रियाकी निवृत्ति हो जाती है—क्रम अक्रमके विना कही भी अर्थ-क्रियाकी उपलब्धि नहीं होती-और अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति होनेपर वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बनती क्योकि वस्तुतत्त्वकी अर्थ-क्रियाके साथ व्याप्ति है। और इसलिये सर्वथा एकान्तमे सत्तत्त्व की प्रतिष्ठा ही नहीं हो सकती।'
उपेय-तत्वाऽनमिलाप्यता-बद्उपाय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् । अशेष-तत्त्वाऽनभिलाप्यतायां द्विषां भवद्यक्तयभिलाप्यतायाः ॥२८॥