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________________ समन्तभद्र-भारतो का००६ wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ( हे वीर जिन 1 ) आपकी युक्तिकी-स्याद्वादनीतिकी-अभिलाप्यताके जो द्वषी हैं-सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व स्वरूपादि-चतुष्टयकी (स्वद्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी ) अपेक्षा कथञ्चित् सत्रूप ही है, पररूपादि-चतुटयकी ( परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी ) अपेक्षा कथञ्चित् असत्रूप ही है इत्यादि कथनीके साथ दुषभाव रस्वते है-उन द्वेषियोंकी इस मान्यतापर कि 'सम्पूर्ण तत्स्व अनमिलाप्य ( अवाच्य ) है' उपेयतत्त्वकी अवाच्यताके समान उपायतत्त्व भी सवेथा अगच्य ( अवक्तव्य ) हो जाता है-जिस प्रकार निःश्रेयस ( निवाण-मोक्ष ) तत्त्वका कथन सर्वथा नही किया जा सकता उसी प्रकार उसकी प्राप्ति के उपायभूत निर्वाणमार्गका कथन भी सर्वथा नही किया जा सकता, क्योकि दोनोमे परस्पर तत्त्व-विषयक काई विशेषता नही है।' अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् । स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥२९॥ (अशेष तत्त्व सर्वथा अवाच्य है ऐसी एकान्त मान्यता होने पर) तत्व अवाच्य ही है ऐसा कहना अयथाप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञाके विरुद्धहोजाता है। क्योंकि 'अवाच्या इस पदमे ही वाच्यका भाव हैवह किसी बातको बतलाता है, तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा। यदि यह कहा जाय कि तत्त्व स्वरूपसे अवाच्य ही है तो 'सर्व वचन स्वरूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध पडता है। और यदि यह कहा जाय कि पररूपसे तत्त्व अवाच्य ही है तो 'सर्ववचन पररूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध ठहरता है।' [इस तरह तत्त्व न तो भावमात्र है, न अभावमात्र है, न उभयमात्र है और न सर्वथा अवाच्य है । इन चारो मिथ्याप्रवादीका यहा तक निरसन
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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