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प्रस्तावना
अर्थात्-यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रके अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोंका समूह है, उस सबका संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये।
___ इसके आगे, प्रन्थके उत्तरार्धमें, वीर शासन-वर्णित तत्त्वज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो स्थकार-महोदय स्वामी समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रन्थोंमे प्राय. नही पाई जाती, जिनमे 'एव' तथा 'स्यात् शब्दके प्रयोगअप्रयोगके रहस्यकी बाते भी शामिल हैं और जिन सबसे वीरके तत्त्वज्ञानको समझने तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है । वीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही ग्रन्थमे 'सर्वोदयतीथे। बतलाया है-ससारसमुद्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी पार उतर जाते हैं और जो सबोंके उदय-उत्कर्षमे अथवा आत्माके पूर्ण विकासमें सहायक है-और यह भी बतलाया है कि वह सर्वान्तवान् है सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एकत्व-अनेकत्वादि अशेष धर्मोको अपनाये हुए है, मुख्य गौणकी व्यवस्थासे सुव्यवस्थित है और सर्व दु:खोंका अन्त करनेवाला तथा स्वय निरन्त हैं-अविनाशी तथा अखण्डनीय है। साथ ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता हैवह सर्वधर्मोसे शून्य होता है-उसमे किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है, ऐसो हालतमें सर्वथा एकान्तशासन 'सर्वोदयतीर्थ पद