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समन्तभद्र- भारती
तत्त्वं विशुद्ध सकलैर्विकल्पैविश्वाऽभिलापाऽऽस्पदतामतीतम् । न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगद्यं सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्ति- बाह्यम् ॥१६॥
'जो (विज्ञानाद्वैत तत्त्व सकल विकल्पोंसे विशुद्ध (शून्य) हैकार्य-कारण, ग्राह्य-ग्राहक, वास्य वासक, साध्य-साधन, बाध्य बाधक, वाच्यवाचक भाव आदि कोई भी प्रकारका विकल्प जिसमे नहीं है - वह स्वसवेद्य नही होसकता, क्योकि सवेदनावस्थामे योगी के अन्य सब विकल्पोके दूर होनेपर भी ग्राह्य ग्राहकके श्राकार विकल्पात्मक सवेदनका प्रतिभासन होता है, बिना इसके वह बनता ही नहीं, और जब विकल्पात्मक सवेदन हुआ तो सकल विकल्पोंसे शून्य विज्ञानाद्वैत तत्त्व न रहा ।
का० १६
' (इसी तरह) जो विज्ञानाद्वैत तत्त्व सम्पूर्ण अभिलापों (कथन प्रकारो की आस्पदता ( श्राश्रयता) से रहित है – जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया और यदृच्छा ( स केत) की कल्पनाओसे शून्य होने के कारण उस प्रकार के किसी भी विकल्पात्मक शब्दका उसके लिये प्रयोग नही किया जा सकता वह निगद्य (कथन के योग्य) भो नहीं हो सकता — दूसरोको उसका प्रतिपादन नहीं किया जासकता । '
( अतः हे वीरजिन 1) आपकी उक्ति से अनेकान्तात्मक स्याद्वादसे— जो बाह्य है वह सर्वथा एकान्तरूप विज्ञानाद्वैत तत्त्व (सर्वथा विकल्प और अभिलापसे शून्य होनेके कारण ) सुषुप्ति की अवस्थाको प्राप्त हैसुषुतिमे सवेदनकी जो अवस्था होती है वही उसकी अवस्था है । और इससे यह भी फलित होता है कि स्याद्वादका श्राश्रय लेकर ऋजुसूत्र नयावलम्बियोके द्वारा जो यह माना जाता है कि विज्ञानका अर्थातत्त्व विज्ञानके
पर्यायके आदेश से ही सकल - विकल्पो तथा अभिलापोसे रहित है और व्यवहारनयावलम्बियोके द्वारा जो उसे विकल्पों तथा अभिलापोका श्राश्रय