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का० १८
युक्तयनुशासन को सिद्ध करने के लिये जो (प्रतिभासमानत्व) हेतु दिया जाता है उसकी (स्वप्नोपलम्भ-साधनकी तरह) सिद्धि नहीं बनती और जब हेतु ही सिद्ध नहीं तब उससे ( असिद्ध-साधनसे) विज्ञप्तिमात्ररूप साध्यकी सिद्धि भी नहीं बन सकती।
यदि साध्य-साधनकी बुद्धि अर्थवतो है--अर्थावलम्बनको लिये हुए है-तो इसीसे प्रस्तुत हेतुके 'व्यभिचार' दोष आता है-- 'सर्वज्ञान निरालम्बन है ज्ञान हानेसे' ऐसा दूसरोके प्रति कहना तब युक्त नही ठहरता, वह महान् दोष है, जिसका निवारण नही किया जा सकता; क्योकि जैसे यह अनुमान-जान स्वसाध्यरूप पालम्बनके साथ सालम्बन है वैसे विवादापन्न (विज्ञानमात्र) ज्ञान भी सालम्बन क्यो नही ? ऐसा संशय उत्पन्न होता है। जब भी सर्ववस्तुसमूहको प्रतिभासमानत्व-हेतुसे विज्ञानमात्र सिद्ध किया जाता है तब भी यह अनुमान परार्थप्रतिभासमान होते हुए भी वचनात्मक है-विज्ञानमात्रसे अन्य होनेके कारण विज्ञानमात्र नही है-अत. प्रकृत हेतुके व्यभिचार दोष सुघटित एव अनिवार्य ही है।'
'यदि (नि साधना सिद्धिका आश्रय लेकर) विज्ञानमात्रतत्त्वको योगिगम्य कहा जाय-यह बतलाया जाय कि साध्यके विज्ञानमात्रात्मकपना हानेपर साधनका साध्यतत्त्वके साथ अनुषङ्ग है-वह भी साध्यकी ही कोटिम स्थित है - इसलिये समाधि-अवस्थामे योगीको प्रतिभासमान होने वाला जो सवेदनाद्वैत है वही तत्त्व है, क्योकि स्वरूपकी स्वत• गति (ज्ञप्ति) होती है-उसे अपने आपसे ही जाना जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि यह बात परवादियोंको सिद्ध अथवा उनके द्वारा मान्य नहीं है--जो किसी योगीके गम्य हो वह परवादियोके द्वारा मान्य ही हो ऐसी कोई बात भी नहीं है, यह तो अपनी घरेलू मान्यता ठहरा। अत नि.माधना सिद्धिका आश्रय लेनेपर परवादियोको विज्ञानमात्र अथवा सवेदनाद्वैत तत्वका प्रत्यय (बोध) नहीं कराया जासकता।'