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का० २१
युक्त्यनुशासन
स्थान बतलाया जाता है वह सब अापकी उक्तिसे बाह्य नहीं है-आपके सर्वथा नियम-त्यागी स्याद्वादमतके अनुरूप है।'
मूकात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्यं तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् । अनङ्ग संज्ञ तदवेधमन्यैः
स्यात् त्वद्विषां वाच्यमवाच्य-तत्त्वम् ॥२०॥ 'गूङ्ग का स्वसवेदन जिस प्रकार आत्मवेद्य है-अपने आपके द्वारा ही जाना जाता है-उसी प्रकार विज्ञानाद्वततत्त्व भी आत्मवेद्य है-स्वयके द्वारा ही जाना जाता है। आत्मवेद्य अथवा 'स्वसवेद्य' जैसे शब्दोके द्वारा भी उसका अभिलाप (कथन) नहीं बनता-उसका कथन गूग की अस्पष्ट भाषाके समान प्रलाप-मात्र होनेसे निरर्थक है-- वह अभिलापरूप नहीं है । साथ ही, वह अनङ्गसज्ञ है-अभिलाप्य न होनेसे किसी भी अगस जाके द्वारा उसका सक्त नहीं किया जासकता। और जब वह अनभिलाप्य तथा अनङ्गस है तब दूसरोंके द्वारा अवेद्य (अजय) है-दूसरोके प्रति उसका प्रतिपादन नही किया जा सकता। ऐसा (हे वीरजिन ! ) आपसे-आपके स्याद्वादमतसे-द्वेष रखनेवाले जिन (सवेदनाद्वैतवादि बौद्धो) का कहना है उनका सर्वथा अवाच्य-तत्व इससे वाच्य होजाता है | जो इतना भी नही समझते और यही कहते हैं कि वाच्य नही होता उनसे क्या बात की जाय १-- उनके साथ तो मौनावलम्बन ही श्रेष्ठ है ।'
अशासदांसि वचांसि शास्ता शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तैः ।
अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत् त्वया विना श्रायसमार्य ! किं तत् ॥२१॥