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युक्त्यनुशासन annan vara
(ग) श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य, सिद्धान्तसारसग्रहमे, यह प्रकट करते हैं कि श्रीसमन्तभद्रदेवका निर्दोष प्रवचन प्राणियोके लिये ऐसा ही दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अथीत् अनादिकालसे ससारमे परिभ्रमण करते हुए प्राणियोको जिस प्रकार मनुष्यभवका मिलना दुर्लभ होता है उसी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनका लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्राप्ति होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली है।
ऊपरके इन राब उल्लेखोपरसे समन्तभद्रकी कवित्वादि शक्तियोके साथ उनकी वादशक्तिका जो परिचय प्राप्त होता है उससे सहज ही यह समझमे आ जाता है कि वह कितनी असाधारण कोटिकी तथा अप्रतिहत-वीर्य थी और दूसरे विद्वानोपर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था, जो अभी तक भी अक्षुण्णरूपसे चला जाता है-जो भी निष्पक्ष विद्वान आपके वादो अथवा तर्कोसे परिचित होता है वह उनके सामने नत-मस्तक हो जाता है। ___ यहॉपर मै इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि समन्तभद्रका वाद-क्षेत्र संकुचित नहीं था। उन्होने उसी देशमे अपने वादकी विजयदुन्दुभि नहीं बजाई जिसमे वे उत्पन्न हुए थे बल्कि उनकी वाद-प्रीति, लोगोके अज्ञानभावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगानेकी शुभभावना और जैन सिद्धान्तोके महत्वको विद्वानोके हृदय-पटलपर अंकित कर देनेकी सुरुचि इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होने सारे भारतवर्षको अपने वादका लीला-स्थल बनाया था। वे कभी इस बातकी प्रतीक्षामे नही रहत्ते थे कि कोई दूसरा उन्हे वादके लिए निमंत्रण दे और न उनकी मन परिणति उन्हें इस बातमे सन्तोष करनेकी ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञानभावसे मिथ्यात्वरूपी गों