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________________ ७८ समन्तभद्र-भारती द्वारा सवेदनाद्वैतरूप जो अर्थ पराभ्युपगत है वह अतव्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहवचनरूपसे-विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि किसी असाधन तथा असाध्यके अर्थाभावमे उनकी अव्यावृत्तिसे साध्यसाधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी सिद्धि होती है । इस तरह बौद्धोके पूर्वाभ्युपेत अर्थके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है , अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्तिवस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः। अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः ॥५॥ "(यदि बौद्धोकी तरफसे यह कहा जाय कि वे साधनको अनात्मक मानते हैं, वास्तविक नहीं और साध्य भी वास्तविक नहीं है, क्योकि वह सवृत्तिके द्वारा कल्लिताकाररूप है, अतः पराभ्युपेतार्थके विरोधवादका प्रसङ्ग नहीं आता है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; (क्योंकि) अनात्मा–नि स्वभाव सवृतिरूप तथा असाधनकी व्यावृत्तिमात्ररूपसाधनके द्वारा उसी प्रकारके अनात्मसाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जानकारी) है उसकी सर्वथा अयुक्ति-अयोजना है-वह बनती ही नहीं।। यदि (सवेदनाद्वैतरूप) वस्तुमें अनात्मसाधनके द्वारा अनात्मसाध्यकी गतिकी अयुक्तिसे पक्षकी सिद्धि मानी जाय-अर्थात् सवेदनाद्वैतवादियोके द्वारा यह कहा जाय कि साध्य-साधनभावसे शून्य सवेटनमात्रके पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वसिद्धि है, तो (विकल्पिताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रतिपक्षकी-द्वैतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप साधन अद्वैततत्त्वरूप साध्यको सिद्ध नहीं करता है, क्योंकि ऐसा होनेसे अतिप्रसंग आता है-विपक्षकी भी सिद्धि ठहरती है।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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