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समन्तभद्र भारतो
का० ३५
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ही वह होती है उसी प्रकार ज्ञानके हेतुभूत शक्तिविशेषकी व्यक्ति भी किसी दैवसृष्टिका परिणाम नहीं है बल्कि जानके कारण जा असाधारण और साधा रण भूत (पदार्थ) हैं उनके समागमपर स्वभावसे ही वह होती है । अथवा हरीतकी (हरड) आदि में जिस प्रकार विरेचन (जुलाब) की शक्ति स्वाभा विकी है -- किसी देवताको प्राप्त होकर हरीतकी विरेचन नही करती है— उसी प्रकार इन चारों भूतोमे भी चैतन्यशक्ति स्वाभाविकी है । हरीतकी यदि कभी और किसी विरेचन नहीं करती है तो उसका कारण या तो हरीतकी आदि योगके पुराना हो जानेके कारण उसकी शक्तिका जीर्ण-शीर्ण हो जाना होता है और या उपयोग करनेवालेको शक्तिविशेषकी प्रतीति उसका कारण होती है । यही बात चारो भूतोका समागम होनेपर भी कभी और कही चैतन्यशक्तिकी अभिव्यक्ति न होनेके विषय मे समझना चाहिये । इस तरह जब चैतन्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नही और चारो भूतोकी शक्तिविशेषके रूपमे जिस चैतन्यकी अभिव्यक्ति हाती है वह मरणपर्यन्त ही रहता है - शरीर के साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है— तब परलोकमें जानेवाला कोई नही बनता । परलोकीके अभाव मे परलोकका भी अभाव ठहरता है, जिसके विषय मे नरकादिका भय दिखलाया जाता तथा स्वर्गादिकका प्रलोभन दिया जाता है । और दैव (भाग्य) का प्रभाव हानेसे पुण्य - I पाप कर्म तथा उनके साधन शुभ-अशुभ अनुष्ठान कोई चीज नही रहते - सब व्यर्थ ठहरते है । और इस लिये लोक-परलोकके भय तथा लज्जाको छोड़1 कर यथेष्ट रूपमे प्रवर्तना चाहिये - जो जीमे श्रावे वह करना तथा खानापीना चाहिये । साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि 'तपश्चरण तो नाना प्रकारकी कोरी यातनाएँ है, सयम भोगोंका वचक है और अग्निहोत्र तथा पूजादिक कर्म बच्चो के खेल है", इन सबमे कुछ भी नही धरा है ।' इस प्रकार के ठगवचनो द्वारा जो लोग भोले जीवोको ठगते हैं-पाप
१ " तपासि यातनाश्चित्राः सयमो भोगवचक. । श्रग्निहोत्रादिक कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ||"