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का०५१ युक्तयनुशासन
६६ जीवोंकी अहकृतिसे-अहकार तथा उसके साथी ममकारसे २-वे उत्पन्न होते है । अर्थात् उन अहकार-ममकार भावोसे ही उनकी उत्पत्ति है जो मिथ्यादर्शनरूप मोह-राजाके सहकारी हैं--मन्त्री है, अन्यसे नहीदूसरे अहकार-ममकारके भाव उन्हे जन्म देनेमे असमर्थ है । और (सम्य ग्दृष्टि-जीवोके) एकान्तकी हानि से-एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभावसे--वह एकान्ताभिनिवेश उसी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दशेनत्वको धारण करता है जो आत्माका वास्तविक रूप है, क्योकि एकान्ताभिनिवेशका जो अभाव है वही उसके विरोधी अनेकान्तके निश्चयरूर सम्यग्दर्शनका सद्भाव है। और चूँकि यह एकान्ताभिनिवेशका अभावरूप सम्यग्दर्शन आत्माका स्वाभाविक रूप है अतः ( हे वीर भगवान् ! ) आपके यहाँ-आपके युक्त्यनुशासनमे-( सम्यग्दृष्टिके ) मनका समत्व ठीक घटित होता है। वास्तवमे दर्शनमोहके उदयरूप मूलकारणके होते हुए चारित्रमोहके उदयमे जो रागादिक उत्पन्न होते हैं वे ही जीवोके अस्वाभाविक परिणाम हैं, क्योकि वे औदयिक भाव हैं । और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो परिणाम दर्शनमोहके नाश, चारित्रमोहकी उदयहानि और रागादिके अभावसे होते हैं वे अात्मरूप हानेसे जीवोके स्वाभाविक परिणाम है-किन्तु पारिणामिक नही, क्योकि पारिणामिक भाव कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं रखते । ऐसी स्थितिमे असयत सम्यग्दृष्टिके भी स्वानुरूप मन साम्यकी
२. 'मैं इसका स्वामी' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह 'अहकार' है और मेरा यह भोग्य' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह 'ममकार' कहलाता है । अहकारके साथ यहाँ सामर्थ्यसे ममकार भी प्रतिपादित है
३. कहा भी है"ममकाराऽहकारौ सचिवाविव मोहनीयराजस्य । रागादि-सकलपरिकर-परिपोषण-तत्परौ सततम् ।।१॥"
-युक्त्यनुशासनटीकामे उद्धत् ।