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समन्तभद्र-भारतो
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अपेक्षा मनका सम होना बनता है, क्योकि उसके सयमका सर्वथा अभाव नहीं होता। अतः अनेकान्तरूप युक्त्यनुशासन रागादिकका निमित्तकारण नही, वह तो मनकी समताका निमित्तभूत है।
प्रमुच्यते-च प्रतिपक्ष-दूषी जिन ! त्वदीयैः पटुसिंहनादैः। एकस्य नानात्मतया ज्ञ-वृत्ते
स्तो बन्ध-मोक्षौ स्वमतादबाह्यौ ॥५२॥ (यदि यह कहा जाय कि अनेकान्तवादीका भी अनेकान्तमें राग और सर्वथा एकान्तमें द्वष होनेसे उसका मन सम कैसे रह सकता है, जिससे मोक्ष बन सके १ मोक्षके अभावमे बन्धकी कल्पना भी नही बनती। अथवा मनका सदा सम रहना माननेपर बन्ध नही बनता और बन्धके अभावमे मोक्ष घटित नही हो सकता, जो कि बन्धपूर्वक होता है। अत. बन्ध और मोक्ष दोनो ही अनेकान्तवादीके स्वमतसे बाह्य ठहरते हैं--मनकी समता और असमता दोनो ही स्थितियोमे उनकी उपपत्ति नहीं बन सकतीतो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ) जो प्रतिपक्षदूषी है--प्रतिद्वन्द्वीका सर्वथा निराकरण करनेवाला एकान्ताग्रही है-वह तो हे वीर जिन !
आप (अनेकान्तवादी ) के एकाऽनेकरूपता जैसे पटुसिंहनादोंसेनिश्चयात्मक एव सिंहगर्जनाकी तरह अबाध्य ऐसे युक्ति शास्त्राविरोधी
आगमवाक्योंके प्रयोगद्वारा प्रमुक्त ही किया जाता है--वस्तुतत्त्वका विवेक कराकर अतत्त्वरूप एकान्ताग्रहसे उसे मुक्ति दिलाई जाती हैक्योंकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्तका प्रमोचन है। ऐसी दशामे अनेकान्तवादीका एकान्तवादीके साथ कोई द्वेष नही हो सकता, और चूँ कि वह प्रतिपक्षका भी स्वीकार करनेवाला होता है इसलिये स्वपक्षमें उसका सर्वथा राग भी नहीं बन सकता । वास्तवमें तत्त्वका निश्चय ही राग नही होता ।