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का० २३
युक्त्यनुशासन
"जिस (सवेदनाद्वैत) तत्त्वमे प्रत्यक्षबुद्धि प्रवृत्त नही होतीप्रत्यक्षत. किसीके जिसका तद्प निश्चय नहीं बनता-उसे यदि (स्वर्ग प्रापणशक्ति श्रादिकी तरह) लिङ्गगम्य माना जाय तो उसमे अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नही हो सकता क्योंकि वह स्वभावलिङ्ग उस तत्त्वकी तरह प्रत्यक्ष-बुद्धिसे अतिक्रान्त है, उसे, लिङ्गान्तरसे गम्य माननेपर अनवस्था दोष आता है. तथा कार्यलिङ्गका सभव माननेपर द्वैतताका प्रसङ्ग
आता है-और (परार्थानुमानरूप) वचनका उसके सवेदनाद्वैतरूप विषयके साथ योग नही बैठता-परम्परासे भी सम्बन्ध नही बनता, उस स वेदनाद्वैत तत्त्वकी क्या गति है ?--प्रत्यक्षा, लैङ्गिकी और शाब्दिकी कोई भी गति न होनेसे उसकी प्रतिपत्ति (बोधगम्यता) नही बनती, वह किमीके द्वारा जाना नही जासकता। अत (हे वीरजिन ।)
आपको न सुननेवालोंका-आपके स्याद्वाद-शासनपर ध्यान न देनेवाले बौद्धोका-संवेदनाद्वैत दर्शन कष्टरूप है ।'
रागाद्यविद्याऽनल-दीपन च विमोक्ष-विद्याऽमृत शासनं च । न भिधते संकृति-वादि-वाक्यं
भवत्प्रतीपं परमार्थ-शू-यम् ॥२३॥ (यदि सवृतिसे सवेदनाऽद्वैत तत्त्वकी प्रतिपत्ति मानकर बौद्ध दर्शनकी कष्टरूपताका निषेध किया जाय तो वह भी ठीक नहीं बैठता, क्योकि सवृति वादियोंका रागादि-अविद्याऽनल-दीपन वाक्य और विमोक्ष-विद्याऽ मृत-शासन-वाक्य परमार्थ-शून्य-विषयमे परस्पर भेदको लिये हुए नही बनता अर्थात् जिस प्रकार सवृति-वादियोके यहाँ 'अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम.' इत्यादि रागादि-अविद्याऽनलके दीपक वाक्य-समूहको परमार्थशून्य बतलाया जाता है उसी प्रकार उनका 'सम्यग्ज्ञान-वैतृष्ण-भावनातो निःश्रेयसम्' इत्यादि विमोक्षविद्याऽमृतका शसनात्मक-वाक्य-समूह भी