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का० ६४
युक्तयनुशासन
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पदार्थ के गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र 'हितान्वेषण के उपायस्वरूप' आपकी गुणकथा के साथ कहा गया है । इसके सिवाय, जिस भवन्याशको आपने छेद दिया है उसे छेदना अपने और दूसरो ससारबन्धनोको तोडना - हमे भी इष्ट है और इस लिये यह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका एक हेतु है । इस तरह यह स्तात्र श्रद्धा और गुणज्ञता की अभिव्यक्ति के साथ लोक-हितकी दृष्टिको लिये हुए है ।'
इति स्तुत्यः स्तुत्यैस्त्रिदश - मुनि-मुख्यैः प्रणिहितैः स्तुतः शक्त्या श्रेयः पदमधिगस्त्वं जिन ! मया । 'महावीरो वीरो दुरित - पर-सेनाऽभिविजये विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ ॥६४॥
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'हे वीर जिनेन्द्र | आप चूँ कि दुरितपरकी - मोहादिरूप कर्मशत्रु श्रोकी - सेनाको पूर्णरूप से पराजित करने में वीर हैं - वीर्यातिशयको प्राप्त है— निःश्रेयस पदको धिगत (स्वाधीन) करने से महावीर हैं और देवेन्द्रों तथा मुनीन्द्रों ( गणधर देवादिको ) जैसे स्वय स्तुत्योंके द्वारा एकाग्रमनसे स्तुत्य हैं, इसीसे मेरे - मुझ परिक्षाप्रधानीके - द्वारा शक्तिके अनुरूप स्तुति किये गये हैं। अत अपने ही मार्गमे-अपने द्वारा अनुष्ठित एव प्रतिपादित सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्गमें, जो प्रतिनिधिरहित है —— श्रन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे निर्णीत हे अर्थात् दूसरा कोई भी मार्ग जिसके जोडका अथवा जिसके स्थान पर प्रतिष्ठित होनेके योग्य नही है — मेरी भक्तिको सविशेष रूपसे चरितार्थ करो -- श्राप के मार्गकी श्रोता और उससे श्रभिमत फलकी सिद्धिको देखकर मेरा अनुराग ( भक्तिभाव ) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढे जिससे मैं भी उसी मार्गकी श्राराधना - साधना करता हुआ कर्मशत्रु श्रोंकी सेनाको जीतने में समर्थ होऊ और निःश्रेयस (मोक्ष) पदको प्राप्त करके सफल मनोरथ हो सकूँ । क्यो क