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समन्तभद्र - भारती
का० ६३
आपके इष्टका - शासनका - अबलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य हो उसका मानशृङ्ग खडित होजाता है— सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका श्राग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । अथवा यो कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है ।।'
(शिखरिणी वृत्त ' )
न रागान्नः स्तोत्रं भवति भव- पाश - च्छिदि सुनौ न चाऽन्येषु द्वेषादपगुण-कथाऽभ्यास-खलता । किमु न्यायाsन्याय प्रकृत-गुणदोषज्ञ - मनसां हिताऽन्वेषोपायस्तव गुण - कथा - सङ्ग-गदितः ||६३ ॥
' (हे वीर भगवन् 1 ) हमारा यह स्तोत्र आप जैसे भव-पाश-छेदक मुनिके प्रति रागभावसे नहीं है, न हो सकता है- क्योंकि इधर तो हम परीक्षा - प्रधानी हैं और उधर श्रापने भव पाशको छेदकर संसार से अपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है; ऐसी हालत में श्रापके व्यक्तित्वके प्रति हमारा राग-भाव इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता । दूसरों के प्रति द्वेषभाव से भी इस स्तोत्रका कोई सम्बन्ध नहीं हैक्योंकि एकान्तवादियो के साथ अर्थात् उनके व्यक्तित्व के प्रति हमारा कोई द्व ेष नही है – हम तो दुगुखोंकी कथाके अभ्यासको खलता समते हैं और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे वह 'खलता' हममे नही है, और इसलिये दूसरोंके प्रति द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो सकता । तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उद्देश यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और प्रकृत
1. इससे पूर्वका समग्र ग्रन्थ उपजाति और उपजाति जिनसे मिलकर बनता है उन इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा वृत्तों (छन्दों) में हैं ।