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का० ३६ युक्तयनुशासन
४५ उसका जैसे तैसे वचक वचनोके रूपमे प्रतिपादन करते है उन चार्वाकोके द्वारा सुकुमारबुद्धि मनुष्य निःसन्देह ठगाये जाते है। ___ इसके सिवाय, जिन चार्वाकोने चैतन्यशक्तिको भूतसमागमका कार्य माना है उनके यहा सर्व चैतन्य शक्तियोमें अविशेषका प्रसङ्ग उपस्थित होता है-किसी प्रकारका विशेष न रहनेसे प्रत्येक प्राणीमे बुद्धि प्राादका कोई विशेष (भेद) नही बनता । और विशेष पाया जाता है अत. उनकी उक्त मान्यता सदोष एव मिथ्या है। इसी बातको अगली कारिकामे व्यक्त किया गया है।
दृष्टेऽविशिष्टे जननादि-हेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धि
रतावकानामपि हा! प्रपातः ॥३६॥ 'जब जननादि हेतु-चैतन्यकी उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका कारण पृथिवी श्रादि भूतोका समुदाय-अविशिष्ट देखा जाता है-उसमे काई विशेषता नही पाई जाती और दैवसृष्टि (भाग्यनिर्माणादि) को अस्वीकार किया जाता है-तब इन (चार्वाकों) के प्राणि प्राणिके प्रति क्या विशेषता बन सकती है ?-कारणमे विशिष्टताके न हानेसे भूतसमागमकी और तज्जन्य अथवा तदभिव्यक्त चैतन्यकी कोई भी विशिष्टता नहीं बन सकती, तब इस दृश्यमान बुद्धयादि चैतन्यके विशेषको किस अाधारपर सिद्ध किया जायगा १ कोई भी प्राधार उसके लिये नही बनता।' ___(इसपर) यदि उस विशिष्टताकी सिद्वि स्वभावसे ही मानो जाय तो फिर चारों भूतोंसे भिन्न पाँचवें आत्मतत्त्वकी सिद्धि स्वभावले क्यों नहीं मानी जाय ?-उसमें क्या बाधा आती है और इसे न मान कर 'भूतोका कार्य चैतन्य' माननेसे क्या नतीजा, जो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योकि यदि कायाकार-परिणत भूतोका