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समन्तभद्र-भारती
का० ३६
कार्य होनेसे चैतन्यकी स्वभावसे सिद्धि है तो यह प्रश्न पैदा हाता है कि पृथ्वी श्रादि भूत उस चैतन्यके उपादान कारण है या सहकारी कारण ? यदि उन्हे उपादान कारण माना जाय तो चैतन्यके भूतान्वित होनेका प्रसग आता है -अर्थात् जिस प्रकार सुवर्णके उपादान होनेपर मुकट, कु डलादिक पर्यायोमें सुवर्ण का अन्वय (वश) चलता है तथा पृथ्वी
आदिके उपादान होनेपर शरीर में पृथ्वी आदिका अन्वय चलता है उसी प्रकार भूतचतुष्टयके उपादान हाने पर चैतन्यमे भूतचतुष्टयका अन्वय चलना चाहिये-उन भूतोका लक्षण उसमे पायाजाना चाहिये । क्योकि उपादान द्रव्य वही कहलाता है जो स्यकाऽत्यक्त-आत्मरूप हो, पूर्वाऽपूर्वके साथ वर्तमान हो और त्रिकालवर्ती जिसका विषय हो ' । परन्तु भूतसमुदाय ऐसा नही देखा जाता कि जा अपने पहले अचेतनाकारका त्याग करके चोतनाकारको ग्रहण करता हुआ भूतोके धारण-ईरण-द्रव-उष्णता-लक्षण स्वभावसे अन्वित (युक्त) हो । क्योकि चरैतन्य धारणादि भूतस्वभावसे रहित जाननेमे आता है और कोई भी पदार्थ अत्यन्त विजातीय कार्य करता हुत्रा प्रतीत नहीं होता। भतोका धारणादि-स्वभाव और चैतन्य ( जीव ) का ज्ञान-दर्शनापयोग-लक्षण दानो एक दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण एव विजातीय हैं। अतः अचेत
नात्मक भूतचतुष्टय अत्यन्त विजातीय चैतन्यका उपादान कारण नहीं बन सकता-दोनोमे उपादानोपादेयभाव सभव ही नहीं। और यदि भूतचतुष्टयको चतन्यकी उत्पत्तिमे सहकारी कारण माना जाय ता फिर उपादान कारण काई ओर बतलाना हागा, क्योकि विना उपादानके कोई भी कार्य सभव नहीं। जब दूसरा काई उपादान कारण नही और उपादान तथा सहकारी कारणसे भिन्न तीसरा भी कोई कारण ऐसा नहीं जिससे भूत चतुष्टयको चैतन्यका जनक स्वीकार किया जा सके, तब चैतन्यकी स्वभावसे ही भूतविशेषकी तरह तत्वान्तरके रूपमे सिद्धि होती है। इस तत्त्वा
१ " त्यक्ताऽत्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वाऽपूर्वेण वर्तते ।
कालत्रयेऽपि तद्व्यमुपादानमिति स्मृतम् ।।'
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