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युक्त्यनुशासन मिलता है । चौथा ‘पण्डित' विशेषण आजकलके व्यवहारमे 'कवि' विशेषणकी तरह भले ही कुछ साधारण समझा जाता हो परन्तु उस समय कविके मूल्य की तरह उसका भी बडा मूल्य था और वह प्राय. 'गमक' (शास्त्रोके मर्म एवं रहस्यको समझने और दूसरोको समझानेमे निपुण ) जैसे विद्वानोके लिये प्रयुक्त होता था। अतः यहां गमकत्व-जैसे गुणविशेषका ही वह द्योतक है। शेष सब विशेषण इस पद्यके द्वारा प्रायः नये ही प्रकाशमे आए है और उनसे ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोमे भी समन्तभद्रकी निपुणताका पता चलता है। रत्नकरण्डनावकाचारमे अगहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमे असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरनेमे न्यूनाक्षरमंत्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखो तथा ग्रन्थोमे 'स्वमन्त्रवचन-व्याहत-चन्द्रप्रमः'-जसे विशेषणोंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी आपके मन्त्र-विशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होनेका सूचक है। अथवा यो कहिये कि आपके 'मान्त्रिक' विशेषणसे अब उन सब कथनोकी यथार्थताको अच्छा पोषण मिलता है। इधर हवी शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचार्यने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थमे 'अष्टाङ्गमप्यखिलमत्र समन्तभद्रेः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैविशेषात्' इत्यादि पद्य(२०-८६) के द्वारा समन्तभद्रकी अष्टागवद्यक-विषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमे 'भिषक' विशेषण अच्छा सहायक जान पडता है।
अन्तके दो विशेषण 'आज्ञासिद्ध' और 'सिद्धसारस्वत तो बहुत ही महत्वपूर्ण है और उनसे स्वामी समन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आजाता है । इन विशेषणोको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते