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युक्त्यनुशासन
होनेसे दोनो के ही द्वारा उस तत्त्वकी प्रसिद्धि नही हो
सकती ।
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२४ नि. साधना सिद्धिका आश्रय लेकर विज्ञानमात्र' अथवा 'संवेदनाद्वैत' तत्त्वको योगिगम्य कहने से कोई काम नही चलता, उससे परवादियोको उस तत्त्वका प्रत्यय (बोध) नही कराया जा सकता ।
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२५ जो (विज्ञानाद्वैत तत्त्व सकल - विकल्पोसे शून्य है वह 'स्वसंवेद्य' नही होता और जो सम्पूर्ण कथन - प्रकारोकी श्रयता से रहित है वह 'निगद्य' नही होता। ऐसा कथन अनेकान्तात्मक स्याद्वादकी उक्ति से बाह्य है और सुषुप्तिharat प्राप्त है । २६ जो लोग गूगेके स्वसंवेदनादिकी तरह उक्त तत्त्वको आत्मवेद्य, अभिलाप्य, अनंगसंज्ञ और परके द्वारा वेद्य बतलाते हैं वे अपने अवाच्य तत्त्वको स्वयं वाच्य बना रहे हैं ।
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२७ 'शास्ता (बुद्ध) ने अनवद्य वचनोकी शिक्षा दी परन्तु उन वचनोसे उनके वे शिष्य शिक्षित नही हुए' यह कथन (बौद्धोका) दूसरा दुर्गतम अन्धकार है । वीर जिन जैसे शास्ताके बिना नि.श्रेयसका न बन सकना । २८ संवेदनाद्वैतकी प्रत्यक्षा तथा लैगिकी आदि कोई भी गति न होने से उसकी प्रतिपत्ति नही बनती ।
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संवृति से सवेदनाद्वैतकी प्रतिपत्ति माननेमे बाधा । एकान्त सब परमार्थ
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शून्य है
२६ 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट विद्याको जन्म देनेमे दोषापत्ति ।
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विद्या भाव्यमान हुई निश्चयसे समर्थ है' इस बौद्ध-मान्यतामे
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