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________________ प्रस्तावना म त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ स्वन्मताऽमृत-बाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताऽभिमान-दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ -आप्तमीमांसा इस तरह वीरजिनेन्द्र के गलेमे आप्त-विषयक जयमाल डालकर और इन दोनों कारिकाओंमे वर्णित अपने कथनका स्पष्टीकरण करनेके अनन्तर आचार्य स्वामी समन्तभद्र इस स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे है, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामे प्रयुक्त हुए 'अद्य शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार प्रोविद्यानन्दाचार्य ने भी 'अद्य' शब्दका अर्थ 'अद्याऽस्मिन् काले परीक्षावसानसमये दिया है। साथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ आप्तमीमासाके बाद रचा गया है "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहतान्त्यतीर्थङ्कर• परमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः ? इति ते पृष्ठा इव प्राहुः।" स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा-प्रधानी आचार्य थे,वे यों ही किसीके आगे मस्तक टेकनेवाले अथवा किसीकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेवाले नहीं थे। इसीसे वीरजिनेन्द्रकी महानता-विषयक जब ये बाते उनके सामने आई कि 'उनके पास देव आते है, आकाशमे विना किसी विमानादिकी सहायताके उनका गमन होता है और
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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