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विषय-सूची और जो वस्तु अनन्तरूप है वह अग-अङ्गीभावके कारण क्रमसे वचन-गोचर है। ६४ वस्तुके जो अंश (धर्म) परस्पर निरपेक्ष हैं वे पुरुषार्थके हेतु नही किन्तु सापेक्ष ही पुरुषार्थके हेतु हो सकते हैं। अंशी (धर्मी) अंशोसे पृथक नही है। • ६६
अश-अशीकी तरह परस्पर-सापेक्ष नय भी पुरुषार्थके हेतु देखे जाते है। .
६७ ६५ जो राग-द्वेषादिक मनकी समताका निराकरण करते हैं
वे एकान्तधर्माभिनिवेशमूलक होते हैं और मोही जीवोके अहकार-ममकारसे उत्पन्न होते हैं। एकान्तकी हानिसे एकान्ताभिनिवेशके अभावरूप जो सम्यग्दर्शन है वह आत्माका स्वाभाविक रूप है, अतः वीर-शासनमे अनेकान्तवादी सम्यग्दृष्टिके मनका समत्व ठीक घटित होता है। उसमे बाधाकी कोई बात नहीं।
६८ ६६ जो प्रतिपक्षदूषी है वह वीर जिनके एकाऽनेकरूपता-जैसे
पटुसिहनादोसे प्रमुक्त ही किया जाता है, क्योकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्तका प्रमोचन है। बन्ध और मोक्ष दोनो ज्ञातात्म-वृत्ति होनेसे वीरके अनेकान्त-शासनसे बाह्म नही है।
७० ६७ आत्मान्तरके अभावरूप जो ममानता अपने आप्रयरूप
भेदोसे हीन है वह वचनगोचर नहीं होती। ६८ सामान्य और विशेष दोनोकी एकरूपता स्वीकार करने
पर एकके निरात्म (अभाव ) होनेपर दूसरा भी निरात्म हो जाता है।
• ७२ ६६ जो अमेय है और अश्लिष्ट है वह सामान्य अप्रमेय
ही है। भेदके माननेपर भी यह सामान्य प्रमेय नही