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________________ समर्पण त्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुभ्यमेव समर्पितम् । हे आराध्य गुरुदेव स्वामि समन्तभद्र । आपकी यह अनुपमकृति 'युक्त्यनुशासन' मुझे आजसे कोई ४६ वर्ष पहले प्राप्त हुई थी, जब कि यह 'सनातन जैनग्रन्थमाला' के प्रथम गुच्छकमे पहली ही बार बम्बई से ग्रकाशित हुई थी । उस वक्त से बराबर यह मेरी पाठ्य बस्तु बनी हुई है, और मै इसके अध्ययन-मनन तथा मर्मको समझने के यत्न- द्वारा इसका समुचित परिचय प्राप्त करने में लगा रहा हूँ । मुझे वह परिचय कहाँ तक प्राप्त हो सका है और मैं कितने अंशोंमें इस ग्रन्थके गूढ तथा गभीर पद्वाक्योकी गहराई में स्थित अर्थको मालूम करनेमे समर्थ हो सका हूँ, यह सब संक्षेपमे प्रन्थके अनुवादसे, जो आपके अनन्य भक्त आचार्य विद्यानन्दकी संस्कृत टीकाका बहुत कुछ आभारी है, जाना जा सकता हूँ, और उसे पूरे तौर पर तो आप ही जान सकते है । मैं तो इतना ही समझता हॅू कि आपकी श्राराधना करते हुए आपके ग्रन्थों परसे, जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ, मुझे जो दृष्टि -शक्ति प्राप्त हुई है और उस दृष्टि शक्तिके द्वारा मैने जो कुछ अर्थका अवलोकन किया है, यह कृति उसी - का प्रतिफल है। इसमे आपके ही विचारोंका प्रतिबिम्ब होनेसे वास्तवमे यह आपकी ही चीज है और इस लिए आपको ही सादर समर्पित है। आप लोकहितकी मूर्ति हैं, आपके प्रसादसे इस कृति द्वारा यदि कुछ भी लोकहितका साधन हो सका तो मैं अपनेको आपके भारी ऋणसे कुछ उऋण हुआ समभूगा । विनम्र जुगलकिशोर
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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